उमेश चतुर्वेदी: राजनीति में जो कहा जाता है असल में वह होता नहीं। जो वास्तविकता होती है, उसका संदेश सिर्फ संकेतों के जरिये दिया जाता है। मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष का कुछ इसी अंदाज में उठाया गया कदम रहा। मणिपुर के बहाने मोदी सरकार को घेरना विपक्ष का घोषित मकसद था, लेकिन हकीकत में उसकी मंशा एक नैरेटिव के माध्यम से मोदी सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की थी।

चूंकि अविश्वास प्रस्ताव के ठीक पहले ही राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता भी बहाल हुई, इसलिए यह कांग्रेस द्वारा राहुल को एक राष्ट्रीय मंच प्रदान करने का पड़ाव भी बन गया। इस पूरे घटनाक्रम के बीच बड़ा सवाल यही है कि क्या विपक्ष और विशेषकर राहुल गांधी अपने मकसद में कामयाब हुए?

तीन दिनों तक अविश्वास प्रस्ताव पर हुई चर्चा का नतीजा देखें तो इन सवालों का जवाब विपक्ष के लिहाज से निराशाजनक है। तमाम विपक्षी नेताओं और राहुल गांधी ने संसदीय मंच के बेहतर उपयोग का अवसर गंवा दिया। इस बार राहुल के समर्थक ही नहीं, उनके विरोधियों को भी उनके भाषण का बेसब्री से इंतजार था।

भारत जोड़ो यात्रा के जरिये करीब साठ प्रतिशत देश की थाह लेने वाले राहुल से उम्मीद थी कि वह विनोबा न सही, कम से कम चंद्रशेखर की तरह अपने जमीनी अनुभवों के जरिये संसद को संबोधित कर अपना अनुभव बांटेंगे। राहुल के राजनीतिक विरोधी भी सशंकित थे कि कहीं उनका सामना बदले हुए राहुल से न हो। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। राहुल का भाषण निराशाजनक रहा। उम्मीद थी कि सरकार पर उनके हमलों की धार तीखी होगी, लेकिन वह प्रभावहीन रहे।

किसी लेखक ने भारत के विभाजन को लेकर उसे ‘भारत की हत्या’ कहा था। विभाजन की विभीषिका भयावह थी। वह इतिहास ही नहीं, दिलों का भी बंटवारा था। राहुल गांधी ने मणिपुर के हालात पर चर्चा के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया, वह कम से कम आज के भारत के संदर्भ में तो स्वीकार्य नहीं। मणिपुर की घटना निश्चित रूप से परेशान करने वाली है। वहां महिलाओं के साथ हुआ अनाचार असहज और शर्मसार करने वाला है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि मणिपुर में भारत की हत्या हो गई है।

राहुल गांधी ने सीधे सरकार को ही भारत माता का हत्यारा बता दिया। राहुल गांधी सांस्कृतिक तथ्यों और संदर्भों को पता नहीं समझते हैं या नहीं? कम से कम उनके शब्दों से तो लगता है कि उन्हें सांस्कृतिक संदर्भों की समझ नहीं है। राहुल से इतर भी दृष्टि डालें तो तीन दिनों की बहस के दौरान विपक्षी खेमे की ओर से कोई भी प्रभावी भाषण सुनने को नहीं मिला। ऐसा लगा कि विपक्षी खेमा बिना किसी तैयारी के ही मैदान में उतर आया था। विपक्षी खेमे में नए-नए शामिल हुए जनता दल यूनाइटेड के एक सांसद मौका मिलने पर जो बोले, उसका मकसद तक समझ में नहीं आया कि वह क्या बोलना चाहते थे।

अविश्वास प्रस्ताव सत्ता पक्ष के लिए ही नहीं, बल्कि विपक्षी खेमे के लिए भी देश को संबोधित करने का बेहतर मौका होता है। स्मरण कीजिए 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की तेरह दिवसीय सरकार के विश्वासमत पर हुई बहस को। उस बहस के बाद भले ही वाजपेयी सरकार गिर गई थी, लेकिन अटल जी की लोकप्रियता में भारी इजाफा हुआ था। राहुल गांधी कुछ ऐसा ही कर सकते थे, लेकिन उन्होंने हाथ आए अवसर को भुनाया नहीं।

पूरी बहस का लब्बोलुआब यह रहा कि विपक्ष सरकार पर न ठोस आरोप लगा पाया और न ही सरकार को घेरने में कामयाब हो सका। विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस की ओर से बड़ी रणनीतिक गलतियां भी हुईं। विपक्ष प्रधानमंत्री के जवाब से असंतुष्ट होकर स्पष्टीकरण मांग सकता था। उसे पता था कि उसका अविश्वास प्रस्ताव गिरने ही वाला है। फिर भी, उसकी रणनीति होनी चाहिए थी कि वह सदन में रहे और स्पष्टीकरण की मांग करे, लेकिन विपक्ष ने सदन से बहिर्गमन करके वह मौका भी खुद ही खो दिया।

अविश्वास प्रस्ताव पर सत्ता पक्ष की ओर से विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने जैसा रवैया दिखाया, उसमें भावी चुनावी अभियान की झलक दिखी। अमित शाह ने तथ्य-तर्क के साथ ही कटाक्ष की जुगलबंदी से विपक्ष को करारा जवाब दिया। राहुल के भाषण के बाद अमित शाह ने लोकसभा में अपनी बात रखी और इसे स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अपने तर्कों, तथ्यों और तंज के जरिये रचे भाषाई प्रतीकों के माध्यम से वह विपक्षी खेमे पर भारी पड़े।

वहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने जवाब से साफ कर दिया है कि अगले चुनाव में भाजपा की ओर से कांग्रेस को सत्ता का भूखा और देश की समस्याओं की जड़ के लिए जिम्मेदार ठहराया जाएगा। जिस पूर्वोत्तर को लेकर इन दिनों माहौल तल्ख है, उसकी समस्याओं के लिए भी नेहरू पर अंगुली उठाई जाएगी। नेहरू ने एक विदेशी मानवशास्त्री वेरियर एल्विन के सुझाव पर नेफा को संरक्षित घोषित किया था।

मोदी ने अपने जवाब में वेरियर का नाम तो नहीं लिया, पर संरक्षित क्षेत्र घोषित करने के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराने का संकेत जरूर किया। अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने विपक्ष के समाजवादी खेमे को भी लोहिया के जरिये चोट पहुंचाई। जाहिर है कि आगामी चुनाव में मोदी लोहिया के बहाने विपक्षी समाजवादी धारा का भी विरोध करेंगे।

विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से मोदी और उनकी सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की, लेकिन इस मौके का फायदा उठाकर सत्ता पक्ष ने अपनी उपलब्धियों को ही देश के सामने रखा। इस अवसर का लाभ उठाकर मोदी ने परिवारवाद और दरबारवाद के लिए सीधे-सीधे गांधी-नेहरू परिवार पर हमला बोल दिया। यह तय है कि आगामी चुनावों में इन मुद्दों को भाजपा जोर-शोर से उठाएगी।

राहुल गांधी ने अपने भाषण में मोदी की तुलना रावण और उनके अहंकार से की, मोदी ने इसे पलटकर रावण और लंका से कांग्रेस को ही जोड़ दिया। जाहिर है कि आने वाले चुनावों में इन मुद्दों के इर्द-गिर्द ही मोदी और अमित शाह कांग्रेस को घेरेंगे। अविश्वास प्रस्ताव पर विपक्ष का जैसा प्रदर्शन रहा है, उससे एक तथ्य साफ है कि उसने तश्तरी में सजाकर सत्ता पक्ष को मौका परोस दिया, जिसे सत्ता पक्ष ने दोनों हाथों से लपक भी लिया।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं)