रोहित कौशिक: मेरे परिचित एक साहित्यकार हैं। वह महोदय कुंठाओं की चलती-फिरती दुकान लगते हैं। मैं जब भी उनसे मिलता हूं, दुखी ही पाता हूं, लेकिन इस समय वह बहुत खुश हैं, क्योंकि शहर में विश्व पुस्तक मेला चल रहा है। मेले में लोकार्पण करते और मुस्कुराते साहित्यकारों के फोटो घड़ाधड़ खिंच रहे हैं। इस चकाचौंध से उनका हृदय इतना प्रकाशित हो गया है कि कुछ समय के लिए वहां से कुंठा को भागने का मौका मिल गया है। लोकार्पण और फोटो खिंचाने के लिए एक स्टाल से दूसरे स्टाल पर जाने के लिए भगदड़ मची है। इस भगदड़ में साहित्यकारों की रचनाएं कराह रही हैं। रचनाओं का दर्द यह है कि उन्हें सजाने-संवारने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

किताबों के स्टालों पर जिन लेखकों की मांग कम होती है, उनको पुस्तक मेले में अपने दुख-दर्द बांटने का मौका भी मिल जाता है। मेले में ऐसे ही एक लेखक दूसरे लेखक को बता रहे हैं कि उन्हें हाल में फिजी में संपन्न विश्व हिंदी सम्मेलन का न्योता नहीं मिला। इसलिए वह सरकार के रवैये से बहुत दुखी हैं और पुस्तक मेले में लोगों को रोक-रोक कर बता रहे हैं कि ऐसे सम्मेलनों से हिंदी का कोई भला नहीं होने वाला है। हालांकि उन्हें पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन में न्योता दिया गया था और वह उसमें शामिल भी हुए थे। उस समय वह सड़क पर लोगों को रोक-रोक कर बता रहे थे कि विश्व हिंदी सम्मेलन जैसे आयोजनों से ही हिंदी जिंदा है। आज उनके सुर बदल गए हैं। अब उनका कहना है कि जो साहित्यकार विश्व हिंदी सम्मेलन में नहीं गए हैं, केवल उनकी वजह से ही हिंदी जिंदा है।

एक पाठक को साहित्यकार महोदय की यह बात खल गई और वह बोला कि सर, हिंदी तो हमेशा जिंदा रहेगी, आप क्यों रो रहे हैं? पाठक का यह व्यंग्य सुनकर साहित्यकार तिलमिलाते हुए बोले कि मुझे हिंदी के लिए मरना भी पड़े तो मरने से पीछे नहीं हटूंगा। हम स्वयं को गलाकर और मिटाकर पाठकों के लिए लिखते हैं। यह सुनकर पाठक सोचने लगा कि इस दौर के साहित्यकार क्या वाकई गलते और मिटते हैं? वैसे साहित्यकार होने के नाते उन्हें स्वयं को विशिष्ट समझने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन इसके कारण कभी-कभी उनका लेखन इतना विशिष्ट हो जाता है कि विशिष्ट लोग ही उसे समझ पाते हैं, आम जनता नहीं।

दरअसल वह बड़े वाले साहित्यकार तो हैं ही, उनका डीलडौल भी बड़ा है, लेकिन लोग कहते हैं कि उनका कद बहुत छोटा है। वह स्वयं भी यह नहीं समझ पाए हैं कि डीलडौल बड़ा होने के बावजूद उनका कद छोटा क्यों है? हालांकि वह अपना कद बढ़ाने के लिए तरह-तरह की नौटंकियां करते रहते हैं। नौटंकियां करते-करते कभी-कभी तो वह मसखरे भी लगने लगते हैं। वह चाहते हैं कि जितने बड़े साहित्यकार हैं, उनका कद भी उनका ही बड़ा हो जाए, लेकिन वह कद बढ़ाने की जितनी कोशिश करते हैं, उनका कद उतना ही छोटा होता जाता है। हारकर उन्होंने अपना कद बढ़ाने की कोशिश छोड़ दी है। अब उनका सारा ध्यान अपनी रचना का कद बढ़ाने पर है।

इस समय उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि उनकी रचना उनके कद जितनी छोटी न हो जाए। रचना का कद बढ़ाने के लिए वह दिन-रात एक किए हुए हैं। अति उत्साह में उन्होंने पुस्तक मेले में पोस्टर चिपका दिए कि वह अंतिम समय तक रचना का कद बढ़ाने की कोशिश करते रहेंगे। तब जाकर साहित्यिक जमात को पता चला कि रचना का भी कोई कद होता है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समीक्षकों को उनकी यह मेहनत दिखाई ही नहीं देती।

पुस्तक मेला साहित्यकार महोदय को एक नया हौसला प्रदान करता है। इसके आधार पर ही उन्होंने कई किताबें लिख मारी हैं। हालांकि उन्हें स्वयं भी अभी तक यह नहीं पता चल पाया है कि उन्होंने किताबों में लिखा क्या है? पुस्तक मेले में एक पाठक ने साहित्यकार महोदय की एक पुस्तक के कुछ अंश पढ़कर उनसे कहा कि मैं यह नहीं समझ पाया हूं कि आपकी रचना क्या कहना चाहती है? तो उन्होंने पाठक को पकड़कर वहीं बैठा लिया और उसे रचना का मर्म समझाने लगे, लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी सफल नहीं हो पाए।