ऋषि गुप्ता। विदेश मंत्री एस. जयशंकर बीते दिनों क्वाड की बैठक में शामिल होने के लिए टोक्यो गए थे। इससे पूर्व इस समूह की बैठक दस महीने पहले न्यूयार्क में हुई थी। भू-राजनीतिक परिदृश्य पर हो रहे परिवर्तनों के संदर्भ में टोक्यो में हुई बैठक खासी महत्वपूर्ण थी। विशेषकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर, जहां चीन फिलीपींस जैसे देश को दक्षिण-चीन सागर में दबाने और ताइवान की स्वायत्तता पर निरंतर आघात करने की धमकी देता आ रहा है।

ऐसे माहौल में विश्व की चार बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति और नियम आधारित व्यवस्था के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाना काफी मायने रखता है। क्वाड के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय नियमों की बहाली के साथ वैश्विक आर्थिक वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए प्रमुख चुनौतियों का सामना करने और आपूर्ति शृंखला को सुरक्षित बनाने पर ध्यान दिया जा रहा है। इसके साथ ही क्वाड का उद्देश्य भरोसेमंद और पारदर्शी डिजिटल साझेदारी को बढ़ावा देने की जरूरत पर ध्यान देना भी है, ताकि संकट के समय एक साझा समाधान निकाला जा सके।

आज के विश्व में समुद्री मार्ग विश्व व्यापार, डिजिटल बुनियादी ढांचे, सामरिक बढ़त और दुर्लभ खनिजों की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं। चूंकि चीन ऐसे तमाम क्षेत्रों में अपना अधिकार जताता रहा है, इसलिए क्वाड सदस्य देशों का एक स्थिर, सुरक्षित और समृद्ध हिंद-प्रशांत क्षेत्र सुनिश्चित करने के लिए सामूहिक प्रयास जरूरी है। खास बात यह है कि ये चारों देश एक लोकतांत्रिक सूत्र में बंधे हैं और विश्व शांति पर समान विचारधारा रखते हैं और वे साथ मिलकर चीन की विघटनकारी, आक्रामक और विस्तारवादी शक्ति के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं।

अपनी प्रकृति एवं स्वरूप में क्वाड बुनियादी रूप से एक सामरिक मोर्चा न होकर आर्थिक सहयोग, क्षेत्रीय और समुद्री सुरक्षा सहयोग, प्रौद्योगिकी सहयोग के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों के समर्थन का एक मंच है, लेकिन चीन के क्षेत्रीय प्रभाव को रोकने का यह अप्रत्यक्ष प्रयास बीजिंग को रास नहीं आता।

अपने बयानों में चीन का नाम न लेना क्वाड का एक रणनीतिक निर्णय जरूर माना जा सकता है, लेकिन चीन को इसकी उपस्थिति का अखरना यही दर्शाता है कि उसे अपनी विघटनकारी और आक्रामक नीतियों का अहसास है। टोक्यो में क्वाड की बैठक के दौरान जयशंकर का कहना था कि ‘यह कोई बातचीत की दुकान नहीं, बल्कि एक मंच है जो व्यावहारिक परिणाम उत्पन्न करता है।’

उनका बयान न केवल क्वाड की एक समूह के रूप में मजबूती, बल्कि चारों सदस्य देशों भारत, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान का चीन की नीतियों के खिलाफ साथ खड़ा भी होना दर्शाता है।

पिछले सात वर्षों में क्वाड एक मजबूत पहल के तौर पर उभरा है और ऐसे मुद्दों पर साथ आया है, जो भविष्य में चिंता का सबब बन सकते हैं। टोक्यो की बैठक का एक खास मुद्दा समुद्र के नीचे बिछे डिजिटल संचार केबलों से संबंधित रहा। ऐसा माना जा रहा है कि चीन वैश्विक डिजिटल बुनियादी ढांचे को बाधित करने के लिए युद्ध रणनीति का उपयोग कर रहा है।

अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियों ने चिंता जताई है कि चीन इन केबलों में सेंध लगाकर अपनी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए व्यक्तिगत डाटा से लेकर बौद्धिक संपदा और गोपनीय सैन्य खुफिया जानकारी चुरा सकता है। विश्व के करीब 95 प्रतिशत डाटा की आवाजाही इन्हीं केबलों के माध्यम से होती है।

निश्चित रूप से यह एक बड़ी चिंता का विषय है। अगर भविष्य में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में किसी भी तरह के युद्ध की स्थिति बनी तो चीन इन केबलों को काटकर संचार बाधित करने का भी प्रयास कर सकता है। ऐसे में यह आवश्यक है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड देश आपसी सहयोग के साथ ऐसी समस्याओं का समाधान निकालें।

तमाम स्तरों पर बात आगे बढ़ने के बावजूद इस वास्तविकता को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि कुछ स्पष्ट रणनीतियों के अभाव में क्वाड अनिश्चितता की ओर बढ़ रहा है। क्वाड देशों के राष्ट्राध्यक्षों की आखिरी बैठक जापान के हिरोशिमा शहर में मई 2023 में हुई थी और आगामी बैठक का इस वर्ष जनवरी में होना तय था, लेकिन राष्ट्रपति बाइडन की अनुपलब्धता के चलते यह नहीं हो पाई।

हालांकि अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता ने हाल में हुई प्रेस वार्ता में राष्ट्रपति बाइडन की क्वाड नेताओं की बैठक के प्रति प्रतिबद्धता की बात तो कही, लेकिन कोई निश्चित तारीख भी नहीं बताई। राष्ट्रपति बाइडन के स्वास्थ्य और अमेरिका में हो रहे चुनावों को देखते हुए इस वर्ष भी बैठक मुश्किल दिखती है। इस बीच अच्छी बात यही है कि समूह की अन्य बैठकों से निरंतरता बनी हुई है, लेकिन शीर्ष नेताओं का मिलना इस समूह की प्रतिबद्धताओं को और मजबूती प्रदान करेगा।

क्वाड के भविष्य की दशा-दिशा एक बड़ी हद तक अमेरिकी चुनाव परिणामों पर भी निर्भर करेगी। यदि अमेरिकी सत्ता में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी होती है तो संभव है कि अमेरिका इससे कुछ पीछे हटे, क्योंकि ट्रंप बहुपक्षीय सक्रियता में बहुत ज्यादा विश्वास नहीं करते और अक्सर उन्होंने ऐसे मंचों को लेकर नकारात्मक टीका-टिप्पणियां ही की हैं।

ट्रंप का ‘अमेरिका प्रथम’ का नारा अमेरिका को हर क्षेत्र में पहले रखना चाहेगा और ऐसे में हो सकता है कि क्वाड देशों के साथ सामूहिक बराबरी ट्रंप की रणनीतिक प्राथमिकता न रहे। ऐसे में क्वाड के भविष्य पर सवालिया निशान लग सकता है। यदि इस प्रकार की स्थितियां उत्पन्न होती हैं तो भारत के पास एक सुनहरा अवसर होगा कि वह क्वाड समूह का नेतृत्व करे और नई ऊर्जा के संचार के साथ क्षेत्रीय पटल पर अपनी प्रतिबद्धताओं की मुखरता से पैरवी करे।

(लेखक एशिया सोसायटी पालिसी इंस्टीट्यूट, दिल्ली में सहायक निदेशक हैं)