सुरेंद्र किशोर। जनता को जब-जब किसी राजनीतिक दल, सरकार और नेता की मंशा एवं कार्यशैली पर भरोसा हुआ तब-तब उसने उसके पक्ष में अपेक्षा से बढ़कर मतदान किया है। हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों में भी इसकी पुष्टि हुई। इन नतीजों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी को तीसरा कार्यकाल मिलने में कोई खास कठिनाई नहीं आएगी।

देश का चुनावी इतिहास यही बताता है कि अपवादों को छोड़कर जनता ने हमेशा बेहतर काम करने वाली सरकारों को सराहा है। अब तो अधिकांश मतदाता आंतरिक और बाह्य सुरक्षा को ध्यान में रखकर भी मतदान कर रहे हैं। इस समस्या के प्रति कुछ भाजपा विरोधी दल अब भी गंभीर नहीं हैं। यह स्थिति भी भाजपा को मजबूत बना रही है। वोट बैंक का लोभ कुछ भाजपा विरोधी दलों को इस खतरनाक हकीकत को स्वीकार करने से लगातार रोक रहा है। इसका उन्हें जहां-तहां चुनावी नुकसान भी हो रहा है।

समय-समय पर नेताओं ने जनता को बड़े सब्जबाग दिखाए, लेकिन उसे सबसे बड़ा झांसा पिछली सदी के आठवें दशक में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दिया था। उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया, जो अंततः खोखला साबित हुआ। उनके इस नारे से प्रभावित होकर ही जनता ने 1971 में इंदिरा कांग्रेस को बड़ा बहुमत दिया था। तब गरीबी बहुत बड़ी समस्या थी। उसे इंदिरा गांधी ने बखूबी भुनाया। यह बात अलग है कि सत्ता में आने के बाद गरीबी हटाने के बजाय इंदिरा गांधी मारुति के कारखाने के जरिये अपने बेटे संजय गांधी को ही अमीर बनाने के काम में लग गईं।

जिस तरह उस दौर में गरीबी एक बड़ी समस्या थी, उसी प्रकार आज भ्रष्टाचार और जिहादी गतिविधियां बड़ी समस्याओं में शामिल हैं, जिन्हें मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने अपनी प्राथमिकता बना रखा है। वस्तुत:, राजनीतिक दलों की चुनावी सफलता इस पर निर्भर करती है कि वे आम लोगों के समक्ष मौजूद समस्याओं को कितना पहचानते हैं और समाधान के लिए उनके पास कितने कारगर उपाय हैं। सत्ता में आने के बाद वे उन उपायों को किस हद तक लागू करते हैं। अभी तो इस देश के तमाम दलों के लिए भ्रष्टाचार और जिहादी हिंसा कोई समस्या ही नहीं है।

डा. राममनोहर लोहिया ने 1967 में अपने दल की राज्य सरकारों को संदेश दिया था कि अपने कर्मों के जरिये ‘बिजली की तरह कौंध जाओ और सूरज की तरह स्थायी हो जाओ।’ वे सरकारें उनका संदेश ग्रहण नहीं कर सकीं, लेकिन हाल के वर्षों में केंद्र में मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने डा. लोहिया का नाम लिए बिना उस मंत्र को आत्मसात कर उसे साकार रूप दिया है। इसी कारण मोदी और योगी की सरकारों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर नहीं पनप रही।

याद रहे कि 1952 और उसके बाद के दो चुनाव जीतने के बावजूद जब कांग्रेस सरकारें लोगों का कोई खास भला नहीं कर सकीं तो समाजवादी डा. लोहिया और भारतीय जनसंघ के नेता नानाजी देशमुख ने मिलकर सत्ता पर कांग्रेसी एकाधिकार को तोड़ने का प्रयास किया। विपक्षी दलों के चुनावी तालमेल से 1967 में देश के सात राज्यों से कांग्रेस का सफाया हो गया। लोकसभा में भी कांग्रेस का बहुमत घट गया। दो अन्य राज्यों में दलबदल के कारण कुछ ही महीनों में कांग्रेस सरकारें गिर गईं। हालांकि गैर-कांग्रेसी सरकारों से जो अपेक्षाएं थीं, वे उन पर खरी नहीं उतर पाईं। नि:संदेह, केंद्र और कुछ राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों ने कई बेहतर काम किए, लेकिन आंतरिक कलह के कारण वे अधिक दिनों तक नहीं चल सकीं। अधिक दिनों तक चलने के लिए सरकारों को कुछ अधिक ही अच्छे काम करने होते हैं।

गैर-कांग्रेसी सरकारों के प्रदर्शन में बड़ा अंतर 2014 के बाद आना शुरू हुआ जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी आम लोगों को प्रभावित किया। हाल के तीन राज्यों के परिणामों पर केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकारों के अच्छे कामों की प्रभावकारी भूमिका का असर है। उम्मीद है कि तीन राज्यों की नई सरकारें भी वैसा ही कुछ करेंगी। हाल की चुनावी जीत के बाद कुछ विपक्षी नेताओं ने भी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारा है कि नरेन्द्र मोदी एक बेहद लोकप्रिय नेता हैं।

अब सवाल यह है कि सत्ता में बने रहने के बावजूद किसी नेता की लोकप्रियता निरंतर क्यों बढ़ती जाती है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वह देश की वास्तविक समस्याओं और जरूरतों को पहचानता है। उन पर ठोस काम करके लोगों को राहत देता है। सत्ता में आने के बाद किसी दल का कोई भी नेता ऐसा करके अपनी लोकप्रियता बढ़ा सकता है। यह कोई राकेट साइंस नहीं। इसके बावजूद कुछ नेता और राजनीतिक दल लगातार खस्ताहाल हैं तो इसी कारण, क्योंकि उनके निजी स्वार्थ जनहित पर हावी हो जाते हैं। वे वोट बैंक के बंधुआ बनकर कड़े फैसले लेने से हिचकने लगते हैं। भ्रष्टाचार और विभाजनकारी ताकतों के खतरे को अनदेखा करते हैं।

मोदी का स्पष्ट मंत्र है कि देश को सुशासन की ओर ले जाना। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास के नारे को यथार्थ के धरातल पर उतारना। उनके इन्हीं सकारात्मक प्रयासों से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि मोदी स्वतंत्र भारत के इतिहास में नेहरू के बाद दूसरे ऐसे नेता हो सकते हैं, जो लगातार तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बनें। हालांकि नेहरू और मोदी में बड़ा अंतर है। नेहरू के पास आजादी की लड़ाई से कमाई राजनीतिक पूंजी थी। लोग उनसे अभिभूत थे। उनके साथ अन्य अनेक स्वतंत्रता सेनानियों की पूरी टीम थी, जिनका अपने-अपने क्षेत्रों में व्यापक जनाधार था।

मोदी को कोई राजनीतिक विरासत नहीं मिली। उनकी राजनीतिक पूंजी है तो गुजरात जैसे राज्य को लगातार 12 साल तक सुशासन प्रदान करना। पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद जनता का मन उन पर ऐसा मोहित हुआ कि उन्हें दूसरी बार और बड़े बहुमत से जिताया। संप्रति मोदी ने विभिन्न दलों और अन्य नेताओं के समक्ष ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया है कि आम जन के वास्तविक मुद्दों की पहचान कर उनके समाधान में जुट जाओ तो जनता आपको सिर आंखों पर बिठाए रखेगी।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)