जागरण संपादकीय: भारत के लिए ब्रिक्स का महत्व, चीन का दबदबा घटाने के लिए क्वाड जितना उपयोगी
ब्रिक्स के शुरुआती वर्षों में चीन आज के मुकाबले कम शक्तिशाली था और वह भारत का जोड़ीदार माना जाता था। तब सभी उभरती अर्थव्यवस्थाओं का एकजुट होकर विकसित देशों से सामूहिक सौदेबाजी करने का स्वप्न सच्चा लगता था जबकि मौजूदा दौर में चीन ब्रिक्स पर अपने वर्चस्व की फिराक में है। ऐसे में यह आशंका निर्मूल नहीं कि चीन इसे अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति का साधन बना सकता है।
श्रीराम चौलिया। ब्रिक्स का 16वां शिखर सम्मेलन रूस में होने जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उसमें सहभागिता करेंगे। इस वर्ष की ब्रिक्स बैठक खास मायने रखती है, क्योंकि 2010 में दक्षिण अफ्रीका के पूर्ण सदस्य बनने के बाद यह पहला अवसर है जब ईरान, मिस्र, इथियोपिया और संयुक्त अरब अमीरात के रूप में चार नए सदस्य शिखर वार्ता में शामिल होंगे।
अपने संस्थापक देशों के नाम के पहले अक्षर से जाना जाने वाला ब्रिक पहले ब्रिक्स हुआ और अब ब्रिक्स का भी विस्तार हो रहा है। स्पष्ट है कि सदस्यों में वृद्धि के कारण इस समूह की राजनीति एवं कार्यशैली में अंतर पड़ेगा। भारत ब्रिक्स को नई दिशा और आकार देने के साथ उसके संचालन में सक्रिय भूमिका निभाने का इच्छुक है।
इस बार ब्रिक्स शिखर बैठक का मुख्य विषय है बहुपक्षवाद को मजबूत करना। पहले की तुलना में आज नौ सदस्यों के रहते ब्रिक्स की बहुपक्षीय प्रमाणिकता बढ़ी है। पश्चिम एशिया और अफ्रीका के प्रमुख देशों के प्रतिनिधित्व से संगठन की छवि और दृष्टिकोण में विविधता आई है, जो प्रगतिशीलता का संकेत है। हालांकि इसके साथ ही सर्वसम्मति और निर्णयन में चुनौतियां भी उत्पन्न हो सकती हैं।
चीन और रूस का अमेरिका के साथ छत्तीस का आंकड़ा किसी से छिपा नहीं। ये दोनों चाहते हैं कि विस्तारित ब्रिक्स पश्चिम के विरुद्ध मजबूत मोर्चा बने और पश्चिमी शक्तियों के पाखंड के खिलाफ आवाज उठाए। चीन का बस चलता तो पाकिस्तान सहित कई विकासशील देशों को सदस्यता देकर ब्रिक्स को विकसित देशों के रास्ते का कांटा बना सकता था, लेकिन भारत ने इसका अंधाधुंध विस्तार नहीं होने दिया।
वह अमेरिका और यूरोप के साथ अपनी सामरिक साझेदारियों का ख्याल करते हुए ब्रिक्स को वैचारिक मंच बनने से रोक रहा है। हालांकि सीमा पर सैनिकों की गश्त को लेकर भारत चीन के साथ समझौते पर पहुंचने में कामयाब रहा, लेकिन दोनों देशों के बीच दीर्घकालिक प्रतिस्पर्धा और तनाव जारी रहेंगे और यह ब्रिक्स में भी परिलक्षित हो सकता है।
अंदरूनी रस्साकशी में भारत और ब्राजील विचारधारा केंद्रित दृष्टिकोण से परे हैं और वे व्यावहारिक सहयोग तथा विकास से संबंधित नए उपक्रमों को ब्रिक्स की कार्यसूची में प्राथमिकता दिलाने का प्रयास कर रहे हैं। वित्त, व्यापार, कृषि और प्रौद्योगिकी जैसे मुद्दों पर विकासशील देशों में आपसी तालमेल और परस्पर लाभ पर भारत का ध्यान है। इस दृष्टि को साकार करने के लिए नए सदस्यों में मिस्र, इथियोपिया और अमीरात भारत के करीबी हैं।
हालांकि, ईरान के साथ भी भारत की सामरिक साझेदारी है, लेकिन पश्चिम एशिया में चल रहे युद्ध और अमेरिका के करीबी इजरायल से ईरान का संघर्ष यही संकेत करता है कि तेहरान का झुकाव चीन और रूस की ओर रहेगा। अगर दो अन्य देश-अर्जेंटीना और सऊदी अरब भी ब्रिक्स के दायरे में आ जाएं तो भारत का पलड़ा भारी हो सकता है। इन देशों को सदस्य बनने का निमंत्रण दिया गया है, लेकिन अभी वे इससे किनारा कर रहे हैं। भारत ब्रिक्स में नए भागीदार देशों की सूची पर आम सहमति बनाने की रूपरेखा तैयार करने में भी जुटा है।
चीन के विस्तारवादी रवैये को देखते हुए नए देशों का चयन और सदस्यता का मार्ग तय करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस प्रक्रिया से विकासशील जगत के नेतृत्व की प्रतिस्पर्धा का फैसला हो सकता है। मोदी सरकार ने भारत को विकासशील देशों का सच्चा मित्र एवं मुखर आवाज के रूप में स्थापित किया है और विकास के भारत के प्रारूप को चीन से अलग हटकर दिखाया है, जिसकी प्रकृति कहीं अधिक समावेशी एवं साझा हितों को पोषित करने वाली है।
भारत के ये प्रयास इसलिए उल्लेखनीय हैं, क्योंकि विकासशील देशों के बीच चीन अपनी पैठ बढ़ाकर अपने मंसूबे पूरे करना चाहता है। कुछ आलोचकों का सवाल है कि ब्रिक्स में चीन की दमदार उपस्थिति के चलते भारत को ऐसे संस्थान से भला क्या लाभ मिलेगा? इसमें दो राय नहीं कि भूराजनीति एवं सामरिक दृष्टिकोण से ब्रिक्स के मुकाबले क्वाड भारत के लिए कहीं अधिक उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक अभियान चलाने के लिए आवश्यक कदमों पर सहमति बनाने से लेकर युद्धग्रस्त क्षेत्रों में शांति एवं स्थिरता को लेकर भारत ब्रिक्स के मंच पर भी अपनी आवाज उठा रहा है।
इसके जरिये भारत के सुरक्षा हितों की अपेक्षित पूर्ति संभव नहीं लगती। जब तक रूस पूरी तरह भारत के पाले में रहा, तब तक चीन की चुनौती का संतुलन साधने में भारत को कुछ सफलता मिलती रही, लेकिन अब रूस चीन पर इतना निर्भर हो गया है कि उसके भरोसे चीनी चुनौती का जवाब तलाशना व्यावहारिक नहीं रहा।
प्राचीन चीनी रणनीतिकार सुन जू ने कहा था कि सम्राट द्वारा ‘दोस्तों को करीब रखना चाहिए, मगर दुश्मनों को उससे भी अधिक करीब रखना चाहिए, ताकि उनकी गतिविधियों और पैंतरों का अंदाजा मिलता रहे।’ चीन के विस्तारवाद को टक्कर देने में भले ही क्वाड जैसे समूहों के पास प्रत्यक्ष और स्पष्ट अधिदेश हो, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर और विशेषकर विकासशील देशों के बीच चीन के दबदबे को घटाने के लिहाज से ब्रिक्स भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
भारतीय कूटनीति का यह स्पष्ट लक्ष्य होना चाहिए कि ब्रिक्स में किसी एक देश का वर्चस्व नहीं होने देना है और इस समूह के द्वारा आर्थिक और व्यापारिक लाभ मिलने का सिलसिला कायम रहे। परिवहन, नवीकरणीय ऊर्जा, जल आपूर्ति और बुनियादी ढांचा जैसे क्षेत्रों में ब्रिक्स के ‘नए विकास बैंक’ के वित्तीय सौजन्य से भारत में जो परियोजनाएं चलाई जा रही हैं, उनसे देश को लाभ ही मिलेगा। ब्रिक्स के इस नए युग के आरंभ में भारत वास्तविकता और दूरदर्शिता के आधार पर कार्य करे तो अभीष्ट की प्राप्ति अवश्य होगी।
(स्तंभकार अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ और ‘फ्रेंड्स: इंडियाज क्लोजेस्ट स्ट्रैटेजिक पार्टनर्स’ के लेखक हैं)