जागरण संपादकीय: सदा स्मरण रहे स्वतंत्रता की महत्ता, स्वाधीनता सेनानियों का स्मरण भी जरूरी
भारत आज जब अपना स्वाधीनता दिवस मना रहा है तब हमें स्वाधीनता सेनानियों के साथ-साथ उन तमाम लोगों का भी स्मरण कर लेना चाहिए जिन्होंने विभाजन की विभीषिका झेली और जिन्होंने पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों को सहारा दिया। ध्यान रहे कि तब देश में सरकार नाम की कोई चीज मुश्किल से ही थी। सब तरफ अराजकता और अव्यवस्था का आलम था।
आरके सिन्हा। आज देश अपनी आजादी का जश्न मना रहा है। स्वाधीनता दिवस भारत के लिए दो तरह की अनुभूतियां लेकर आता है। पहला, असंख्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संघर्ष के कारण 15 अगस्त, 1947 को देश को ब्रिटिश शासन के चंगुल से मुक्ति मिली। इसलिए उन तमाम स्वाधीनता सेनानियों के प्रति मन में अपार श्रद्धा का भाव पैदा होने लगता है, जिनके बलिदानों की वजह से अंग्रेज यहां से गए। दूसरा, देश को आजादी के साथ बंटवारे का दंश भी झेलना पड़ा।
भारत दो भागों में बंट गया। विभाजन की त्रासदी की मार पड़ने के बाद कुछ ही दिनों में नए देश बने पाकिस्तान से लाखों हिंदू और सिख शरणार्थी देश के अनेक हिस्सों के साथ दिल्ली आए। लाखों सौभाग्यशाली बचकर आ गए तो लाखों अभागे मारे भी गए। जब देश अपना पहला स्वतंत्रता दिवस मना रहा था, तब लाखों लोग विभाजन की पीड़ा भोग रहे थे।
विभाजन के दिनों में दिल्ली जंक्शन पर आने वालों में मिल्खा सिंह भी थे, जिसे आज पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन भी कहा जाता है। वह आगे चलकर महान धावक बने। देश के बंटवारे के समय इंसानियत एक तरह से मरी पड़ी थी। पाकिस्तान में सांप्रदायिक सोच वालों ने मिल्खा सिंह के माता-पिता का कत्ल कर दिया था, पर तब भी कुछ फरिश्ते तो मौजूद थे ही।
वे उन्हें रेल के महिला डिब्बे में छिपाकर भारत ले आए थे। विभाजन की विभीषिका में वह अपनी बहन से बिछड़ गए। जरा सोचिए कि विभाजन के कारण अस्त-व्यस्त और अनजान शहर में मिल्खा सिंह दंगों के दौरान गुम हो गई अपनी बहन को कैसे खोज रहे होंगे, पर उन्होंने अंतत: अपनी बहन को तलाश लिया।
देश की राजधानी होने के बावजूद दिल्ली विभाजन की घड़ी में उस समय आज के मुकाबले एक छोटा सा शहर था। तब यहां सेंट स्टीफंस अस्पताल की प्रमुख डा. रूथ रोसवियर के नेतृत्व में घायल और बीमार शरणार्थियों का इलाज हो रहा था। डॉ. रूथ रोसवियर ब्रिटिश नागरिक थीं। सेंट स्टीफंस अस्पताल को दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी ने 1885 में खोला था।
फिल्म अभिनेता मनोज कुमार को सारा देश उनकी देशभक्ति से रची-बसी फिल्मों के चलते बखूबी जानता है। उनका परिवार जब देश के बंटवारे के बाद सरहद के उस पार से लुटा-पिटा 1947 में दिल्ली आया तो उनके परिवार के कई सदस्य दंगाइयों के हमलों के कारण चोटग्रस्त थे। उनका छोटा भाई बीमार था। तब उन सबका इलाज इसी सेंट स्टीफंस अस्पताल में हुआ था।
देश के बंटवारे के कारण पाकिस्तान से लाखों हिंदू और सिख शरणार्थी दिल्ली आए थे। ये ज्यादातर दिल्ली जंक्शन पर ही आते थे। तब इनके पास नए शहर में खुले आसमान के अलावा कुछ नहीं होता था। उस भीषण दौर में दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और कुछ सिख संगठनों के कार्यकर्ताओं ने शरणार्थियों की बहुत मदद की। इनके अलावा संकट के उस दौर में दिल्ली के करोलबाग में रहने वाले डा. एनसी जोशी ने भी शरणार्थियों की खूब सेवा की। करोलबाग में 1947 के दौरान जब दंगे भड़के तो डा. एनसी जोशी भी उसके शिकार हो गए थे।
लेडी इरविन अस्पताल (अब लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल) के तत्कालीन मेडिकल सुपरिटेंडेंट डा. बनवारी लाल और कबूलचंद वाल्मीकि जैसे उनके साथियों ने भी रोगियों का दर्द दूर किया। दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी के कार्यकर्ता बहुत से रोगियों को लेडी हार्डिंग मेडिकल अस्पताल भी इलाज के लिए लेकर जाते।
तब तक नई दिल्ली क्षेत्र में यही एकमात्र कायदे का अस्पताल था। उस दौर में इसकी प्रिंसिपल-डायरेक्टर डा. केजे मैक्डरमाट और डा. ओपी बाली की देखरेख में रोगियों का अच्छी तरह इलाज हुआ था। शरणार्थियों की सेवा के लिए मशहूर हुए विशंभर दास ने 1922 में नई दिल्ली क्षेत्र में बिशंभर फ्री होम्योपैथिक डिस्पेंसरी की स्थापना की और जीवनपर्यंत दीनहीनों का इलाज करते रहे।
आज भी बहुत से ऐसे परिवार मिल जाते हैं, जो बताते हैं कि अगर दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी से जुड़े फादर इयान वेदरवेल और उनके साथियों का साथ न मिलता तो वे भारत विभाजन की भेंट चढ़ गए होते। आज उनका कोई नामलेवा नहीं रहता। वे विभाजन के कारण सड़क पर आ गए थे।
फादर इयान वेदरवेल शरणार्थियों के पुनर्वास में लगे रहे। फादर इयान वेदरवेल का भारत से सबसे पहले रिश्ता तब स्थापित हुआ था, जब दूसरा विश्व महायुद्ध चल रहा था। वह ब्रिटेन की फौज में पंजाब रेजीमेंट में थे। विश्व महायुद्ध की समाप्ति के बाद उनका जीवन बदला।
वह युद्ध के विरुद्ध बोलने-लिखने लगे। उन्होंने जंग के कारण होने वाली तबाही अपनी आंखों से देखी थी। उन्हें युद्ध की निरर्थकता समझ आ गई थी। वह जीवन में शांति चाहते थे। फादर इयान वेदरवेल पर महात्मा गांधी का बहुत प्रभाव पड़ा। उनसे प्रेरणा लेकर उन्होंने अपना शेष जीवन गरीबों और हाशिए पर धकेल दिए लोगों के हक में काम करने में लगा दिया। फादर इयान वेदरवेल की जान भारत में बसती थी।
भारत आज जब अपना स्वाधीनता दिवस मना रहा है, तब हमें स्वाधीनता सेनानियों के साथ-साथ उन तमाम लोगों का भी स्मरण कर लेना चाहिए, जिन्होंने विभाजन की विभीषिका झेली और जिन्होंने पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों को सहारा दिया। ध्यान रहे कि तब देश में सरकार नाम की कोई चीज मुश्किल से ही थी। सब तरफ अराजकता और अव्यवस्था का आलम था।
उस दौर में नि:स्वार्थ भाव से शरणार्थियों का साथ देने वाले किसी फरिश्ते से कम नहीं थे। न तो विभाजन को भूला जाना चाहिए और न ही लाखों-लाख शरणार्थियों को। हमें यह याद रखना चाहिए कि देश को विभाजन की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। इसीलिए हर किसी को यह समझना चाहिए कि हमें जो स्वतंत्रता मिली, वह बहुत अनमोल है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)