उमेश चतुर्वेदी। विपक्षी दलों के मोर्चे आइएनडीआइए के एक तरह से सूत्रधार रहे नीतीश कुमार खुद ही इससे अलग हो गए। पिछले साल पटना में बड़े धूम-धड़ाके के साथ नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ विपक्षी दलों को लामबंद करने की कोशिश शुरू की थी, लेकिन अब वह स्वयं भाजपा के साथ मिल गए हैं। बिहार में नीतीश कुमार की अगुआई में भाजपा और जदयू की गठबंधन सरकार बन गई है।

इससे पहले तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने आइएनडीआइए की स्वघोषित अगुआ कांग्रेस को बंगाल में दरकिनार करते हुए राज्य की सभी लोकसभा सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का एलान कर दिया। देश की पूर्वी सीमा से उठी ममता की आवाज अभी गूंज ही रही थी कि पश्चिमी सीमा से भी आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को अंगूठा दिखा दिया। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने राज्य की सभी 13 सीटों पर अकेले दम पर उतरने की घोषणा कर दी।

देश में राजनीतिक रूप से सबसे प्रभावी राज्य उत्तर प्रदेश से भी आइएनडीआइए के लिए संकेत सही नहीं आ रहे हैं। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए मात्र 11 सीटें छोड़ने का एकतरफा एलान किया है। नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, भगवंत मान और अखिलेश यादव की इन घोषणाओं से साफ है कि विपक्षी गठबंधन का कुनबा बिखरने लगा है।

इस बिखराव के मोटे तौर पर तीन कारण माने जा रहे हैं। 22 जनवरी को अयोध्या में संपन्न रामलला की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम को जिस तरह पूरे देश के लोगों का समर्थन मिला, उससे विपक्षी खेमा घबराया हुआ है। उसे सूझ नहीं रहा कि मौजूदा राम लहर को वह कैसे थामे। वहीं गठबंधन के दलों के बीच अपने-अपने अस्तित्व को बचाए रखने की भी पुरजोर लड़ाई जारी है। इस बीच मोदी सरकार ने पिछड़ों के बड़े नेता कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का एलान करके पिछड़ों की राजनीति करने का दंभ भरने वालों की बुनियाद को जैसे हिला दिया है।

गत वर्ष बिहार से मोदी विरोधी गठबंधन आइएनडीआइए की शुरुआत करते वक्त 1974 के छात्र आंदोलन का खूब हवाला दिया गया। कहा गया कि जिस तरह 1974 में बिहार से उठी चिंगारी इंदिरा सरकार के खिलाफ जनाक्रोश का शोला बन गई, इस बार भी वैसा ही होगा। हालांकि विपक्ष के कुछ दलों ने तब यह भी माना था कि पुराना और बड़ा संगठन होने के नाते कांग्रेस विपक्षी गठबंधन की अगुआई को हथियाने की कोशिश कर सकती है। साथ ही कहा गया कि मोदी विरोध में विपक्ष एकजुट होने की कोशिश भले ही करे, लेकिन उसके अंदरूनी दलीय घात-प्रतिघात शायद ही कम हो पाएं। इसी वजह से तटस्थ प्रेक्षकों को आइएनडीआइए के टिकाऊ होने पर संदेह रहा। अब नीतीश कुमार के कदम और ममता बनर्जी की ताजा घोषणा जानकारों के उसी संदेह की पुष्टि करते हैं।

वास्तव में लोकतांत्रिक राजनीति में वही गठबंधन टिकाऊ होते हैं, जो किसी कार्यक्रम और सैद्धांतिक बुनियाद पर बनाए या गठित किए जाते हैं। व्यक्ति विरोध पर बने गठबंधनों की उम्र लंबी नहीं होती। 1977 का इंदिरा विरोधी गठबंधन हो या फिर 1989 का राजीव विरोधी, 1996 का वाजपेयी विरोधी या फिर 2023 का मोदी विरोधी गठबंधन, इनमें एक समानता है। इन गठबंधनों में कार्यक्रमों के बजाय व्यक्ति विरोध पर फोकस ज्यादा रहा।

मौजूदा आइएनडीआइए की उम्र का अभी अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी, लेकिन अतीत के व्यक्तिविरोधी गठबंधनों का हश्र सबको पता है। वीपी सिंह की सरकार एक साल का भी कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी। एचडी देवेगौड़ा और आइके गुजराल भी बहुत आगे नहीं बढ़ पाए, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाले राजग को देखिए या फिर 2004 में बने संप्रग को। इनके मूल में कार्यक्रम थे, इसलिए ये गठबंधन ज्यादा टिकाऊ रहे या हैं।

आइएनडीआइए में सबसे बड़ा पेच इसमें शामिल दलों के बीच अपने-अपने राज्यों में आपसी सियासी लड़ाई को संतुलित करना भी है। यह कैसे संभव है कि कांग्रेस के भ्रष्टाचार के विरोध में अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी पंजाब और दिल्ली जैसे राज्यों में कांग्रेस के साथ सहज समझौता कर लेगी। केरल में वाममोर्चे के साथ भी कांग्रेस की हालत वैसी है। केरल में दोनों आमने-सामने हैं। ऐसे में वे किस तरह राज्य में अपने स्थानीय राजनीतिक हितों को किनारे कर पाएंगे।

वहीं बंगाल में ममता बनर्जी की पूरी राजनीति वाम विरोध पर पल्लवित हुई है। ऐसे में राज्य में आखिरकार वह किस आधार पर वाममोर्चे के साथ खड़ी रह सकती हैं। फिर कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व की भी पूरी सियासत ही ममता विरोध पर टिकी है, जिसमें अधीर रंजन चौधरी प्रमुख हैं। ऐसे में संतुलन साधना और सीटों को लेकर तालमेल बनाना आसान नहीं।

विपक्षी गठबंधन का पेच महाराष्ट्र में भी फंसा है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान शरद पवार ने कांग्रेस का साथ दिया था, लेकिन अब उनके भतीजे अजीत भाजपा के साथ चले गए हैं। पेच तेलंगाना में भी फंसा है। आंध्र में तो चंद्रबाबू नायडू लगातार डोल रहे हैं। वह अब भाजपा के साथ गलबहियां करने को तैयार दिख रहे हैं तो उनके विरोधी सत्तारूढ़ जगनमोहन रेड्डी अपनी चाल अपने ढंग से चल रहे हैं। कर्नाटक में जदएस पहले ही भाजपा के साथ आगे बढ़ गया है। ले-देकर उत्तर प्रदेश में गठबंधन के लिए अखिलेश यादव तैयार हैं, लेकिन आधे मन से।

इस प्रकार देखा जाए तो आइएनडीआइए में शामिल कोई दल खुलकर यह नहीं बता रहा है कि अपने-अपने अस्तित्व को बचाने की उलझन को सुलझाने का उनके पास स्पष्ट फार्मूला क्या है? बिना फार्मूले के गठबंधन की गांठ को मजबूत बनाने की जितनी कोशिश कर रहे हैं वह और कमजोर होती जा रही है। गालिब के शब्दों में कुछ वैसे ही कि मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)