श्रीराम चौलिया। वर्तमान वैश्विक भूराजनीति के केंद्रबिंदु यूक्रेन की यात्रा करने वाले प्रथम भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर दुनिया की निगाहें टिकी हुई हैं। भारतीय प्रधानमंत्री ऐसे समय यूक्रेन पहुंचे हैं, जब 2022 से चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध अनेक शक्तियों के हस्तक्षेप और प्रतिस्पर्धा का मैदान बन गया है। मूलतः यह संघर्ष रूस की ऐतिहासिक महत्वाकांक्षा, उसके असुरक्षा भाव और यूक्रेन की संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता से सरोकार रखता है।

यूरोप के देशों और अमेरिका ने इस युद्ध में जिस प्रकार यूक्रेन की सैन्य और आर्थिक सहायता की है, उससे यह टकराव वैश्विक स्थिरता और शक्ति संतुलन की समस्या बन गया है। ऐसे परिप्रेक्ष्य में उभरती विश्व शक्ति भारत की भूमिका को लेकर काफी अपेक्षाएं हैं।

यूक्रेन पर आक्रमण करने के कारण रूस की खुले तौर पर निंदा करने और रूस के संग अपने सैन्य और ऊर्जा व्यापार को घटाने हेतु पश्चिमी देशों की ओर से भारत पर तीव्र दबाव रहा है, लेकिन मोदी सरकार ने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए रूस के प्रति कठोर रवैया नहीं अपनाया।

इसी के साथ भारत ने अमेरिका और यूरोपीय संघ संग अपनी रणनीतिक साझेदारी को गहरा करना जारी रखा और यूक्रेन को मानवीय सहायता देना तथा उसके नेताओं के साथ नियमित बैठकें और बातचीत का सिलसिला कायम रखा।

प्रधानमंत्री मोदी ने इस दोहरी नीति को समझाते हुए स्पष्ट किया है कि भारत दशकों से सभी देशों से समान दूरी बनाने में लगा हुआ था, पर अब वह सभी देशों से समान निकटता बनाने की राह पर है।

यानी गुटनिरपेक्षता की पुरानी जंजीर तोड़कर आज भारत बहुपक्षीयता के पथ पर चल रहा है, जो कि उभरती महाशक्ति के लक्षण हैं। इसी बहुपक्षीयता का संकेत मोदी के यूक्रेन दौरे से मिल रहा है। ध्यान रहे कि उन्होंने हाल में रूस की यात्रा भी की है।

गत दो वर्षों में संयुक्त राष्ट्र में रूस-यूक्रेन युद्ध पर अनेक पक्षतापूर्ण प्रस्ताव लाए गए और उन पर अधिकतर बार भारत ने तटस्थ रहने का चयन किया। जुलाई 2024 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में उस एकतरफा प्रस्ताव का समर्थन करने से मना कर दिया था, जिसमें रूस से यूक्रेन के खिलाफ अपनी आक्रामकता तुरंत बंद करने का आग्रह किया गया था।

गौरतलब है कि भारत के अलावा 59 अन्य देश थे, जिन्होंने तटस्थ रहना पसंद किया था। जून 2024 में स्विट्जरलैंड में आयोजित शांति शिखर वार्ता की विज्ञप्ति पर भी भारत ने हस्ताक्षर नहीं किए थे और अपने रुख को समझाते हुए कहा था, “केवल वे विकल्प ही स्थायी शांति स्थापित कर सकते हैं, जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य हों।’

आलोचकों ने इसके आधार पर भारत पर ताने कसे कि वह वस्तुतः रूस के पक्ष में है और केवल दिखावे के लिए अपने आप को निष्पक्ष दर्शा रहा है, लेकिन जिस जटिल मोड़ पर यह युद्ध आ खड़ा हुआ है, धीरे-धीरे भारत के रुख में ही तर्कसंगतता और बुद्धिमानी साबित हो रही है।

बहुपक्षीयता एक रचनात्मक अवस्था है और भारत इसके जरिये बंटे हुए विश्व के सभी पक्षों के साथ आपसी हित साध रहा है और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सकारात्मक किरदार निभाने की स्थिति में आ गया है।

जैसे-जैसे रूस-यूक्रेन युद्ध गतिरोध में फंसता गया, वैसे-वैसे पश्चिमी शक्तियों ने बार-बार मोदी से आग्रह किया कि वह रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ अपनी मित्रता का प्रयोग करके उन्हें इसके लिए मनाएं कि वह यूक्रेन में आक्रमण बंद कर दें और बातचीत से कोई हल निकालें। लंबी लड़ाई लड़ते-लड़ते थकान स्वाभाविक है। आज अमेरिका सहित कई पश्चिमी देश इस दलदल से निकासी का रास्ता खोज रहे हैं। सवाल यह है कि क्या भारत इस खोज में मार्गदर्शक बन सकता है?

बहुत पहले भारतीय प्रधानमंत्री ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन से दो टूक कहा था कि “यह युग युद्ध का नहीं है।” कुछ माह पहले मास्को में भारत-रूस शिखर बैठक के समय जब यूक्रेन में रूसी हमलों से अनेक बेगुनाह मारे गए तो मोदी ने पुतिन से साफ कहा, “बम, बंदूक और गोलियों के बीच शांति वार्ता सफल नहीं होती और संघर्ष का समाधान युद्ध के मैदान में नहीं पाया जा सकता।”

भारत का किरदार केवल बातों तक सीमित नहीं है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने स्पष्ट किया है कि इस युद्ध के “विभिन्न पहलुओं पर दूसरों ने संदेश भेजने के लिए हमारा उपयोग किया है।” भारत ने काला सागर अनाज गलियारा बनाने के लिए तुर्किए और रूस के बीच “कुछ दृष्टिकोण और चिंताओं को पाटने” में योगदान दिया और 2022 में इसी मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव के साथ भी काम किया था।

इस वर्ष भारत ने रूस और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को संदेश भेजकर संवेदनशील जापोरीजिया बिजली संयंत्र की सुरक्षा के बारे में यूक्रेन की चिंताओं के संबंध में भी सकारात्मक योगदान दिया।

भारतीय कूटनीति ने ऐसे छोटे-छोटे उपक्रमों को बढ़ावा दिया है, जो जीवन बचा सकने में सहायक होने के साथ बुनियादी ढांचे की रक्षा कर सकते हैं। वास्तव में इसी प्रकार दीर्घकालिक शांति के लिए ठोस आधार तैयार किया जा सकता है।

प्रभावित विकासशील देशों, जिनकी खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण गंभीर रूप से बाधित हुई है, के अधिकारों की हिमायत करते हुए भारत ने दुनिया की बहुसंख्यक आबादी के प्रवक्ता की भूमिका भी निभाई है।

रही बात सीधे दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता करने की तो इसमें अन्य देशों द्वारा कई पहल की जा चुकी हैं, जो असफल रही हैं। तुर्किए, सऊदी अरब, ब्राजील, चीन, अफ्रीकी देशों के समूह और रोमन कैथोलिक चर्च के प्रमुख पोप फ्रांसिस ने विभिन्न किस्मों के शांति प्रस्ताव, सम्मलेन और युद्धविराम के विचार सामने रखे, लेकिन बात बनी नहीं।

वास्तव में जब तक रूस और यूक्रेन स्वयं राजी नहीं होते और जब तक उन्हें युद्धभूमि में डटे रहने में ही अपना भला नजर आता है, तब तक मध्यस्थता व्यर्थ है। भारत सही अवसर पर शांति निर्माता हो सकता है। तब तक शांति के निमित्त और संदेशवाहक बने रहने में कोई हर्ज नहीं है। रूस-यूक्रेन मामले में राष्ट्रीय हितों पर आधारित मोदी सकरार की कूटनीति संतुलित एवं उचित है और इस पर हमें गर्व करना चाहिए।

(लेखक जिंदल स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)