वैश्विक शक्ति केंद्र के रूप में उभरता भारत, ‘मानव-केंद्रित’ सोच से विकासशील देशों को नई दिशा देने में सक्षम
चीन के उलट भारत का रवैया विकासशील देशों को हथियार के रूप में इस्तेमाल न कर उन्हें सशक्त करने का है। इसकी वजह भारत की परंपराओं और मूल्यों के साथ ही वह दृष्टिकोण भी है जिसमें भारत अपनी प्रगति को विकासशील देशों की नियति के साथ जोड़कर देखता है।
श्रीराम चौलिया : तेजी से बदल रहे वैश्विक ढांचे में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही है। भारत भी इस भूमिका को विस्तार एवं गहराई देने में जुटा है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बीते दिनों नई दिल्ली में ‘वाइस आफ द ग्लोबल साउथ समिट’ का वर्चुअल आयोजन हुआ। भारत के आमंत्रण पर करीब 125 देशों के प्रतिनिधि इसमें शामिल हुए। यह इस बात का भी प्रमाण है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की साख और मान्यता लगातार बढ़ रही है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबोधन से पुन: स्पष्ट हुआ कि भारत वैश्विक स्तर पर उन देशों की आवाज उठाना चाहता है, जिसे अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। सम्मेलन में जुटे विकासशील एवं अल्पविकसित देशों के प्रतिनिधियों को प्रधानमंत्री मोदी ने संदेश दिया कि ‘आपकी आवाज ही भारत की आवाज है और आपकी प्राथमिकताएं भारत की प्राथमिकताएं हैं।’ वहीं विदेश सचिव वीएम क्वात्रा ने कहा कि भारत की जी-20 मेजबानी के दौरान यह दावा अवश्य किया जा सकता है कि उसने न केवल बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ मंत्रणा की, बल्कि संपूर्ण विकासशील दुनिया की भावनाओं और विचारों का भी प्रतिनिधित्व किया।
स्पष्ट है कि इन बातों से प्रतिभागी देशों में भारत के प्रति भरोसे का भाव बढ़ा होगा। इसकी पुष्टि अंतरराष्ट्रीय वक्ताओं के बयानों से भी हुई, जिन्होंने स्वीकार किया कि गरीब और वंचित देशों को इसी प्रकार एकजुट होकर मंच पर लाया जाए तो वे समृद्धि के स्वप्न को साकार कर सकेंगे। संयुक्त राष्ट्र महासभा में भी यही सहमति बनी थी कि विकासशील देशों (जी-77) की ‘संयुक्त समझौता वार्ता क्षमता’ में बढ़ोतरी हो और अपने संख्याबल के आधार पर वे अपने हितों की रक्षा कर सकें। ऐसे में यह संतोष की बात ही कही जाएगी कि भारत ने इस समूह के अधिकांश देशों के लिए यह आयोजन किया और इन देशों ने इसे सफल बनाया। सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने ऐतिहासिक कड़ियों को जोड़ते हुए कहा कि बीसवीं सदी में ‘हमने एक दूसरे की सहायता की और साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष किया था’ और आशा व्यक्त की कि ‘हम यह मुहिम दोबारा चलाकर इक्कीसवीं सदी में नई विश्व व्यवस्था का निर्माण कर सकते हैं, जो हमारे नागरिकों का कल्याण सुनिश्चित करेगी।’
वास्तव में, नई विश्व व्यवस्था दशकों से विकासशील देशों की मांग रही है। विकसित देशों द्वारा गरीब राष्ट्रों का आर्थिक शोषण, उनके आंतरिक मामलों में सैन्य हस्तक्षेप और वैश्विक व्यापार एवं निवेश नीतियों में उन्हें लाभ से वंचित रखने की संस्थागत चालों से अमीर और गरीब देशों के बीच की खाई निरंतर चौड़ी होती गई है। भारत ने स्वतंत्रता के बाद से ही गरीब देशों की आवाज उठाई है। हालांकि, वर्तमान परिप्रेक्ष्य मे ‘ग्लोबल साउथ’ यानी वैश्विक दक्षिण की आवश्यकताएं अलग हैं। पूर्व की भांति अब पश्चिमी साम्राज्यवाद और प्रत्यक्ष आधिपत्य नहीं रहा।
दूसरी ओर चीन महाशक्ति बनने की राह पर है। विकासशील देशों मे उसका बोलबाला पश्चिम से अधिक है। विकासशील देशों के भीतर भी भिन्नता दिख रही है, क्योंकि ‘गरीब देश’ और ‘उभरती अर्थव्यवस्थाएं’ अलग-अलग दिशा में हैं। चीन अपनी सुविधा से कभी खुद को ‘विकासशील’ देशों में रखता है तो कभी उनके विरुद्ध ही मोर्चा खोल लेता है। चीन की प्रति व्यक्ति आय करीब 13 हजार डालर है, लेकिन वह ग्लोबल साउथ की आड़ लेकर विकासशील देशों के नाम पर अमेरिका और यूरोप से टकराव मोल लेकर अपने हित साधता है। वहीं भारत जैसी उभरती शक्तियां पश्चिमी शक्तियों से गठजोड़ कर चीनी विस्तारवाद को रोकने में लगी हैं। इस परिदृश्य में वैश्विक दक्षिण की जटिलताएं और बढ़ जाती हैं।
चीन के उलट भारत का रवैया विकासशील देशों को हथियार के रूप में इस्तेमाल न कर, उन्हें सशक्त करने का है। इसकी वजह भारत की परंपराओं और मूल्यों के साथ ही वह दृष्टिकोण भी है, जिसमें भारत अपनी प्रगति को विकासशील देशों की नियति के साथ जोड़कर देखता है। आज भारत-अफ्रीका व्यापार करीब 90 अरब डालर तक पहुंच गया है, तो भारत-दक्षिण अमेरिका व्यापार 50 अरब डालर के स्तर तक पहुंच गया है।
जहां पश्चिमी शक्तियों और चीन ने पिछड़े देशों से बेहिसाब प्राकृतिक खनिज लूटने और उनकी अंदरूनी राजनीति में आग लगाकर उस पर अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकने से परहेज नहीं किया, वहीं भारत का रवैया वहां मानव संसाधन विकास और आमजन के जीवन में सुधार केंद्रित परियोजनाओं पर आधारित रहा है। ‘ग्लोबल साउथ’ में ऐसा एक भी देश नहीं, जिसे भारत ने प्रताड़ित किया हो। वहीं चीनी उत्पीड़न का रवैया जगजाहिर है।
दुनिया को अब चीनी कर्ज जाल का फंदा समझ आने लगा है कि इसके माध्यम से ड्रैगन इन देशों को निगलने पर आमादा है। चीन की इसी रणनीति पर परोक्ष रूप से निशाना साधते हुए विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ‘ऋण का बोझ बढ़ाने वाली परियोजनाओं से मांग-संचालित परियोजनाओं की ओर परिवर्तन’ का प्रस्ताव रखा और ‘विकेंद्रीकृत वैश्वीकरण’ का आह्वान किया। भारत भी अपनी किफायती एवं पर्यावरण अनुकूल तकनीकी विकासशील एवं अल्पविकसित देशों के साथ साझा करने को तत्पर है। इसी सिलसिले में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सम्मेलन में शामिल देशों को ‘इंडिया स्टैक’ जैसे अभिनव ‘डिजिटल पब्लिक गुड्स’ की पेशकश की, जो इन देशों के लिए मुफ्त उपलब्ध होंगे और जिनसे वे अपनी स्थानीय सामाजिक एवं आर्थिक योजनाओं को दक्षता से लागू कर सुशासन की ओर कदम बढ़ा सकते हैं।
नि:संदेह, वैश्विक महाशक्तियों द्वारा गरीब देशों के मुंह पर पैसा फेंकने और उन्हें निर्भरता के जाल में फंसाने का खेल यकायक खत्म तो नहीं किया जा सकता, परंतु भारत के ‘मानव-केंद्रित’ सोच और प्रस्ताव ‘ग्लोबल साउथ’ को नई दिशा अवश्य दे सकते है। इस दृष्टिकोण से देखें तो वाइस आफ ग्लोबल साउथ समिट को भारतीय विदेश नीति में एक और मील का पत्थर कहा जा सकता है। इस आयोजन के दौरान गरीब देशों के लिए एक अनोखा भारतीय माडल उभरा है, जो भविष्य में भारत को विश्व के तीसरे शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित करने में सहायक होगा।
(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)