वैश्विक आर्थिक ढांचे को आकार देता भारत, नई विदेश व्यापार नीति भी दे रही इसके संकेत
अतीत की नीतियों में जहां एक तय अवधि हुआ करती थी उसके उलट इसमें ऐसा नहीं है। यानी इसमें समय पर आवश्यकतानुसार संशोधन की गुंजाइश है। इसने उस व्यापार नीति की जगह ली है जिसकी अवधि 2020 में समाप्त हो गई थी।
हर्ष वी. पंत : एक ऐसे दौर में जब वैश्विक आर्थिक ढांचा तमाम चुनौतियों से जूझ रहा है और हाल-फिलहाल किसी बड़ी राहत के आसार नहीं दिखते, तब भारतीय अर्थव्यवस्था ने अपेक्षाकृत बढ़िया प्रदर्शन कर उम्मीद जगाई है। भारत तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कोविड-19 महामारी के दुष्प्रभावों से कहीं बेहतर तरीके से निपटने में सफल रहा। तमाम भू-राजनीतिक एवं भू-आर्थिक समस्याओं के बावजूद उसकी आर्थिक वृद्धि में तेजी कायम है। इसी कारण अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने विश्व अर्थव्यवस्था में भारत को ‘चमकता बिंदु’ बताया।
2023 की वैश्विक वृद्धि में 15 प्रतिशत योगदान अकेले भारत का रहा है। प्रभावी डिजिटलीकरण के साथ-साथ अनुशासित राजकोषीय नीति और पूंजीगत निवेश के लिए पर्याप्त संसाधनों जैसे पहलुओं के दम पर भारत न केवल महामारी के चंगुल से अपनी अर्थव्यवस्था को बाहर निकालने में सफल रहा, बल्कि वैश्विक आर्थिक सुस्ती के दौर में भी अपनी वृद्धि को चुस्त बनाए हुए है। इसी बीच मोदी सरकार ने नई विदेश व्यापार नीति (एफटीपी) पेश की है। इस नीति का उद्देश्य 2030 तक देश के निर्यात को बढ़ाकर दो ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर करना है।
अतीत की नीतियों में जहां एक तय अवधि हुआ करती थी, उसके उलट इसमें ऐसा नहीं है। यानी इसमें समय पर आवश्यकतानुसार संशोधन की गुंजाइश है। इसने उस व्यापार नीति की जगह ली है, जिसकी अवधि 2020 में समाप्त हो गई थी, लेकिन कोविड महामारी के चलते नई नीति में विलंब हो गया। जहां विश्व अर्थव्यवस्था मंदी को लेकर संघर्षरत है, वहीं नई व्यापार नीति के माध्यम से भारत ने वैश्विक आर्थिक ढांचे में अहम किरदार के रूप में उभरने की नई प्रतिबद्धता एवं आकांक्षा का संकेत दिया है।
भू-राजनीतिक स्तर पर विश्व की बड़ी शक्तियों में विभाजन साफ दिखने के साथ ही उनके बीच की विभाजक-रेखाएं निरंतर चौड़ी होती जा रही हैं। विश्व स्तर पर शक्ति को लेकर ध्रुवीकरण नई हकीकत है, जिसके साथ सभी राष्ट्रों को ताल मिलानी होगी। चीन की अपने इर्दगिर्द जारी आक्रामकता और यूक्रेन पर रूसी आक्रमण से विकसित देशों के पास विकास से जुड़े एजेंडे पर आगे बढ़ने की गुंजाइश कम हो गई है। वहीं शीत युद्ध के बाद भू-आर्थिक क्षेत्र में वैश्विक आर्थिक ढांचे को लेकर बनी सहमति भी दरक रही है।
राजनीतिक विश्वास बनाने के लिए व्यापार एवं तकनीकी सहयोग अब विश्वास आधारित व्यापार एवं तकनीक साझेदारी की राह तैयार कर रहा है। आर्थिक उदारीकरण पर बहस का नेतृत्व करने वाले देश अब अप्रत्याशित रूप से उससे पीछे हट रहे हैं। वैश्विक ढांचे में कई मोर्चों पर जो चुनौतियां उभर रही हैं उन्हें भारत के लिए एक मौके के रूप में देखा जा रहा है और भारतीय नीति-निर्माता यह सुनिश्चित करने में लगे हैं कि वैश्विक राजनीतिक एवं आर्थिक ढांचे में देश इस बार अपने लिए विशेष भूमिका बनाने का अवसर न गंवाए।
यदि भारत को वैश्विक व्यापार परिदृश्य में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में अपना उभार सुनिश्चित करना है तो इसके लिए प्राथमिकताएं तय करनी होंगीं, जो नई व्यापार नीति में स्पष्ट दिखती हैं। यह नीति निर्यातकों के लिए डिजिटलीकरण की प्रक्रिया को और आगे बढ़ाकर प्रक्रियाओं को सुसंगत बनाने, ई-कामर्स निर्यात को बढ़ाने, एमएसएमई यानी छोटे एवं मझोले उद्यमों के लिए पर्याप्त प्रविधान करने और अन्य देशों के साथ रुपये में व्यापारिक लेनदेन करने पर ध्यान देती है। भारत का निर्यात 2020-21 के 500 अरब डालर से बढ़कर इस साल 750 अरब डालर के रिकार्ड ऐतिहासिक स्तर पर पहुंच गया, लेकिन वैश्विक व्यापार में अभी भी उसकी हिस्सेदारी बहुत कम है। ऐसे में भारत के लिए गतिशील विदेश व्यापार नीति पर आगे बढ़ना बहुत आवश्यक है, जो देश की बढ़ती आकांक्षाओं के साथ-साथ नए भू-आर्थिक परिदृश्य के अनुरूप प्रतिक्रिया देने में सक्षम हो।
इसी दिशा में भारत ने मुक्त व्यापार समझौतों यानी एफटीए को लेकर अपना रवैया बदला है। कुछ देशों के साथ उसके एफटीए हो गए हैं तो कई के साथ बातें चल रही हैं। असल में यह भारत का आर्थिक उभार ही है, जिसने पिछले तीन दशकों में उसकी विदेश नीति की दशा-दिशा को आकार दिया है। भारतीय नीति-निर्माताओं को देश के राजनीतिक-आर्थिक उभार के अनुरूप समायोजन करना पड़ा और उन्होंने उसी अनुरूप विदेश नीति को नया रूप दिया। भारत के आर्थिक कायाकल्प ने ही उसे उभरते वैश्विक ढांचे के केंद्र में ला दिया है। बढ़ती आर्थिक-सामरिक ताकत के दम पर ही भारत नए वैश्विक ढांचे में एक शक्ति के रूप में स्थापित हो रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था द्वारा शानदार परिणाम देने के बाद भारतीय लोकतंत्र का आकर्षण भी और बढ़ गया है।
भारत की आर्थिकी ने पहले से ही वैश्विक सामरिक समीकरणों को बदलना शुरू कर दिया है और उभरते शक्ति संतुलन में भी उसका खासा प्रभाव दिखता है। यदि आज भारत वैश्विक ढांचे में ‘प्रमुख खिलाड़ी’ की भूमिका का दावा करने में सक्षम है तो यह भारतीय आर्थिक विकास गाथा के जीवंत एवं गतिशील होने की वजह से उपजे आत्मविश्वास का ही परिणाम है। आज यदि भारत एक जिम्मेदार वैश्विक अंशभागी की भूमिका निभा सकता है तो इसी कारण कि उसकी आर्थिक क्षमताएं उसे यह संभावना प्रदान करती हैं।
अब उभार ले रहे वैश्विक ढांचे में शक्तियां खुली प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। इस स्थिति में वैश्विक संस्थान निस्तेज हो रहे हैं और आर्थिक वैश्वीकरण विखंडित हो रहा है। भारत इन सभी पहलुओं से जुड़ी बहस के केंद्र में है। आज पूरी दुनिया भारत की आवाज को इसीलिए सुनती है, क्योंकि लोकतांत्रिक भारत पांच ट्रिलियन डालर की आर्थिकी बनने के लिए प्रयास कर रहा है। विश्व उसकी विकास गाथा में विश्वास करने के साथ ही उसे पोषित भी कर रहा है। भारत अपना आर्थिक रुतबा बढ़ाकर ही वैश्विक ढांचे में अपेक्षित दर्जा प्राप्त करने में सफल हो पाएगा। इसीलिए कोई हैरत की बात नहीं कि भारत विश्व के साथ आर्थिक सक्रियता के मामले में अतीत की अपनी हिचक और असहजता को पीछे छोड़ रहा है। नई विदेश व्यापार नीति भी इसी रुझान को दर्शाती है।
(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं)