डॉ ऋषि गुप्ता। नेपाल में तीसरी बार वाम गठबंधन वाली सरकार की वापसी हुई है। सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) और नेपाली कांग्रेस के बीच विवादों के कारण प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ ने गठबंधन से अलग होकर अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी रहे केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी यानी एमाले) के साथ वापसी की।

यह तीसरी बार है जब नेपाल के दो प्रमुख वाम दलों ने गठबंधन वाली सरकार बनाई है। प्रधानमंत्री प्रचंड और केपी ओली के बीच हुए आठ सूत्रीय समझौते में अन्य दो दल भी साथ आए हैं, जिनमें जनता समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी शामिल है। नवंबर 2022 में हुए आम चुनावों के बाद यह तीसरी बार है, जब नेपाल में सरकार का नए सिरे से गठन हुआ है।

यह नेपाल के राजनीतिक इतिहास में अवसरवाद का एक और उदाहरण है। नेपाल में 2008 में राजशाही के पतन के बाद से जितनी भी लोकतांत्रिक सरकारें बनी हैं, उनमें से किसी ने भी पांच वर्षों का कार्यकाल पूरा नहीं किया है। नेपाल ने 16 वर्षों में औसतन हर साल एक नया प्रधानमंत्री देखा है। शायद इसी कारण वहां की जनता ने नए दलों को मौका दिया है। दुर्भाग्य से नए दलों ने भी जनता को निराश ही किया है।

मौजूदा वाम गठबंधन में शक्ति संतुलन पर ध्यान दिया जाए तो यह अत्यधिक अस्थिर है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि माओवादी सेंटर के पास एमाले (78 सीटें) की तुलना में कम सीटें हैं, फिर भी उसके प्रमुख प्रचंड प्रधानमंत्री बने रहेंगे। चूंकि अतीत में केपी शर्मा ओली ने प्रचंड को कम सीटों (32) के कारण प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था, इसलिए यह मुमकिन है कि आने वाले दिनों में ओली प्रधानमंत्री बनना चाहें। यह भी संभव है कि इसके लिए उनकी पार्टी सबसे अधिक सीटों (88) वाली नेपाली कांग्रेस के साथ हाथ मिला ले। वाम दलों की मौकापरस्ती और उनके नेताओं के स्वार्थों के चलते नेपाली जनता का एक हिस्सा राजशाही और हिंदू राष्ट्र की वापसी की पुरजोर वकालत करता आया है। हाल में नेपाली कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय समिति में हिंदू राष्ट्र के दर्जे की बहाली पर लंबी बात हुई। नेपाल के राजनीतिक हलकों में इसे ही माओवादी सेंटर-नेपाली कांग्रेस गठबंधन टूटने का एक तात्कालिक कारण माना जा रहा है।

यदि इतिहास के पन्नों को पलटा जाए तो यह साफ दिखेगा कि राजशाही ने अपने दो सौ वर्षों के इतिहास में नेपाल को जोड़े रखा और राष्ट्रहित में कई कार्य भी किए। नेपाल में आज भी अस्सी प्रतिशत आबादी हिंदू है। चूंकि वहां राजा को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है, इसलिए जनता की आस्था राजशाही से जुड़ी हुई है। हालांकि नेपाल की हिंदू राष्ट्र के रूप में वापसी मुश्किल होगी, लेकिन मौजूदा राजनीतिक हालात एक हिंदूवादी आंदोलन की ओर इशारा जरूर करते हैं।

प्रचंड के नेतृत्व वाली नई सरकार नेपाल और भारत के संबंधों पर भी गहरा असर डाल सकती है, क्योंकि वाम दलों की पूरी राजनीति भारत विरोध पर केंद्रित रही है। 2008 में माओवादियों ने अपनी पहली सरकार के दौरान चीन को प्राथमिकता देते हुए एक नई विदेश नीति की स्थापना की थी, लेकिन प्रधानमंत्री प्रचंड को जल्दी ही यह समझ आ गया था कि नेपाल का भूगोल, इतिहास, संस्कृति और रोटी-बेटी का संबंध आदि भारत से दूरी बनाने की इजाजत नहीं देते। नेपाल के लिए भारत से अच्छे संबंध बनाए रखना जरूरी है, लेकिन एमाले ने सदैव भारत विरोध की ही राजनीति की है। नेपाल के वाम दलों ने चीन से सैद्धांतिक जुड़ाव के बहाने 2017 में यह जानते हुए भी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआइ परियोजना पर सहमति जताई थी कि इसका असर भारत की सुरक्षा पर भी हो सकता है।

चीन लगातार नेपाल पर दबाव डालता रहा है कि वह भारत से दूरी बनाए और सुरक्षा मामलों में बीजिंग का साथ दे। चीन को नेपाल में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों से लगातार भय बना रहता है और वह प्रयास करता है कि तिब्बत की आजादी की मांग कर रहे लामाओं को नेपाल बंदी बनाए या फिर उसके हवाले करे। वाम दल हमेशा से इस मुद्दे पर चीन के साथ सहमत रहे हैं, जिसका अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने बार-बार विरोध किया है। चीन के कुटिल इरादों के कारण नेपाल का एक तबका बीआरआइ का विरोध करता रहा है।

हाल में हुए अध्ययन दर्शाते हैं कि बीआरआइ के तहत चीन अपनी दमनकारी और विस्तारवादी नीतियां ही आगे बढ़ा रहा है। इससे नेपाली जनता सशंकित है। हालांकि नेपाल में अभी तक बीआरआइ के तहत कोई भी तय कार्य पूरा नहीं हो सका है, फिर भी चीन चाहता है कि बात आगे बढ़े और इसीलिए नेपाल में सत्ता परिवर्तन होते ही चीनी विदेश मंत्रालय ने नेपाल की नई सरकार का स्वागत किया और साथ काम करने की इच्छा जताई। यह तय है कि बीआरआइ परियोजना चीन की प्राथमिकता में रहेगी।

नए विदेश मंत्री नारायण काजी श्रेष्ठा ने भारत और चीन के साथ ‘सम-दूरी’ की नीति का वादा किया है। यह नीति अव्यावहारिक है। नेपाल भारत और चीन के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं कर सकता, क्योंकि वह चीन की तुलना में भारत पर अधिक निर्भर है। चूंकि नेपाल भू-आबद्ध देश है, इसलिए वह विश्व व्यापार भारत के रास्ते ही करता है। ऐसे में नेपाल को यह समझने की जरूरत है कि वह भले ही भारत के साथ इतिहास को बदल ले, लेकिन वह भूगोल और लोगों के आपसी संबंधों को नहीं बदल सकता। मालदीव के घटनाक्रम के बाद भारत को नेपाल में जो कुछ हो रहा है, उस पर नजर रखने की जरूरत है।

(लेखक एशिया सोसायटी पालिसी इंस्टीट्यूट, दिल्ली में सहायक निदेशक हैं)