श्रीराम चौलिया। पांच वर्षों के अंतराल के पश्चात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रूस दौरे ने खासी उत्सुकता जगाई है। कुछ समीक्षकों के अनुसार रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा मोदी का भव्य स्वागत और कई क्षेत्रों में आपसी सहयोग को आगे बढ़ाने के उनके निर्णयों ने सिद्ध कर दिया कि भारत पश्चिम समर्थक विदेश नीति का पालन न करते हुए गुटनिरपेक्ष रुख अपना रहा है।

कुछ ने यह भी अटकलें लगाई हैं कि मोदी ने तीसरे कार्यकाल की पहली द्विपक्षीय विदेश यात्रा के लिए रूस को अपना गंतव्य ठीक उसी समय चुना, जब अमेरिका में नाटो गठबंधन के सदस्य देश रूस विरोधी शिखर वार्ता के लिए इकट्ठे हो रहे थे। यानी भारत ने मानो कोई संकेत दिया है कि वह पश्चिमी शक्तियों द्वारा सुझाई गई लकीर पर नहीं चलने वाला।

इन अटकलों के बीच भारत ने रूस के साथ पुरानी मित्रता को बरकरार रखकर अपनी जानी-पहचानी रणनीतिक स्वायत्तता का प्रदर्शन किया है। हालांकि यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा कि भारत रूस के साथ लंबे अर्से से चली आ रही सामरिक साझेदारी से पश्चिम को ललकार रहा है। रूस समर्थकों ने भले ही यह दर्शाना चाहा हो कि मोदी की यात्रा से भारत ने पश्चिम को चुनौती दी है और इससे पश्चिमी देश ‘ईर्ष्या से जल रहे हैं’, परंतु असल में भारत ऐसा कोई मंतव्य नहीं रखता है।

विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने स्पष्ट किया है कि ‘हम रूस के साथ अपने संबंधों को पूरी तरह से द्विपक्षीय संदर्भ के ढांचे से देखते हैं’ और इस भागीदारी के माध्यम से हमारा पश्चिम के खिलाफ मोर्चा खड़ा करने का कोई इरादा नहीं है। वर्ष 2022 में जबसे रूस-यूक्रेन युद्ध आरंभ हुआ है, तबसे दुनिया विपरीत खेमों में बंटी हुई है। इस संदर्भ में रूस के प्रति हमारा रवैया वास्तविकता और व्यावहारिकता के आधार पर टिका है। इसमें वैश्विक विचारधारा के द्वंद्वों का कोई प्रश्न नहीं उठता। भारत और रूस की मैत्री वक्त की कसौटियों पर जांची-परखी और खरी है।

भारत के 60 प्रतिशत सैन्य प्लेटफार्म रूसी मूल के हैं। भारत के तेल आयात में रूसी हिस्सेदारी 40 प्रतिशत से अधिक हो गई है। रक्षा हो या ऊर्जा सुरक्षा, रूस अब भी हमारे लिए प्रमुख आपूर्तिकर्ता है। इन ठोस कारकों को देखते हुए भारत रूस से मित्रता जारी रखना चाहता है और आपसी लेनदेन में उत्पन्न हो रही बाधाओं और असंतुलन का हल निकालना चाहता है।

मोदी-पुतिन शिखर बैठक के बाद की गई घोषणाओं में कई ऐसे मुद्दे सुलझने के स्पष्ट संकेत देखने को मिले हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि रूस भारत के मुख्य सामरिक साझेदारों की सूची में आज भी ऊपरी पायदान पर है। इसके बावजूद भारत रूस की कमजोरियों और परेशानियों से वाकिफ है। यूक्रेन युद्ध से जुड़े पश्चिमी आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंधों ने रूस के उज्ज्वल भविष्य पर प्रश्न चिह्न लगाया है। युद्ध से जुड़ी गतिविधियों के चलते रूस की आर्थिक वृद्धि तेज हुई है, लेकिन यह विकास टिकाऊ एवं सतत नहीं होने वाला।

रूस की अर्थव्यवस्था भारत से काफी छोटी है और वह फिलहाल विश्व में ग्यारहवें स्थान पर है। रूस और भारत के बीच भारी व्यापार घाटे को कम करने के लिए जो विदेशी निवेश रूस से भारत में आना चाहिए, उतनी पूंजी रूस के पास है ही नहीं। प्रौद्योगिकी और विदेशी निवेश के हिसाब से भारत को रूस के मुकाबले पश्चिमी देशों से कई गुना अधिक लाभ मिल रहा है। इसके साथ ही, सैन्य नवाचार और अत्याधुनिक हथियारों के निर्माण में रूस जितना माहिर हुआ करता था, आज इस मामले में वह उतना महारथी नहीं रह गया। यही कारण है कि पिछले एक दशक में रक्षा आयात के क्षेत्र में भारत ने विविधीकरण की नीति के अंतर्गत रूस से सैन्य सामग्री की खरीदारी काफी घटाई है।

एक समय भारत की सैन्य सामग्री की 70 प्रतिशत तक पूर्ति रूस से होती थी, जो अब करीब आधी घटकर 36 प्रतिशत रह गई है। इस दौरान फ्रांस जैसे सामरिक सहयोगियों की हिस्सेदारी काफी बढ़ी है। निश्चित रूप से ऐतिहासिक एवं आत्मीय कारणों से भारत रूस को अनदेखा नहीं कर सकता, लेकिन वह उसकी मौजूदा स्थिति से भलीभांति अवगत है। यही कारण है कि रूस की उपयोगिता को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर नहीं आंका जा रहा है।

भूराजनीति के दृष्टिकोण से रूस एक समय भारत के लिए चीन की काट बना हुआ था। उस समय रूस वैश्विक महाशक्ति था तो चीन के विस्तारवाद और आक्रामक व्यवहार पर अंकुश लगाए रखता था। दुर्भाग्यवश आज पश्चिमी आर्थिक और कूटनीतिक दबाव से मुक्ति के लिए रूस चीन पर सर्वाधिक निर्भर हो गया है। ऐसे में भारत की अपेक्षा है कि हम रूस के साथ मित्रता को आगे बढ़ाएं, ताकि चीन पूरी तरह से रूस पर हावी न हो जाए। पुतिन स्वयं भी चाहते है कि भारत की दोस्ती के आधार पर रूस चीन के सामने पराधीन और बेबस न नजर आए।

हालांकि जिस तादाद में चीन रूस के साथ व्यापार और सैन्य सहयोग कर रहा है, उतनी क्रय शक्ति फिलहाल भारत के पास नहीं है कि वह रूस के लिए दूसरा विकल्प बन सके। भारत के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के नौसैनिक दबदबे की काट करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, किंतु इस लक्ष्य की पूर्ति में हमें शायद ही रूस का साथ मिल सके, क्योंकि चीन की तरह रूस भी हिंद-प्रशांत की अवधारणा को अमेरिकी षड्यंत्र मानता है।

रूस-भारत सैन्य सामग्री (लॉजिस्टिक) समझौते पर भी कुछ बात आगे बढ़ी है, लेकिन लगता नहीं कि रूस किसी भी स्थिति में चीन से प्रतिस्पर्धा वाले प्रत्यक्ष गठबंधन का हिस्सा बनेगा। भारत-रूस संबंधों का सार यही है कि रूस चाहता है कि भारत पश्चिम का मुकाबला करने में उसकी मदद करे, जबकि भारत चाहता है कि चीन से मुकाबले में रूस उसके साथ आगे आए।

इन विरोधाभासों के मद्देनजर भारत जानता है कि रूस के साथ उसकी ‘विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी’ की सीमाएं हैं। हमारा प्रयास रहेगा कि इन सीमाओं को स्वीकार करते हुए द्विपक्षीय व्यावहारिक सहयोग को जितना बढ़ाया जा सकता है, उतना बेहतर है। तेजी से बदलती और कठिन होती वैश्विक परिस्थितियों के बावजूद इतिहास, भूगोल और आपसी विश्वास पर आधारित रूस-भारत साझेदारी अपनी धुरी पर टिकी हुई है। यह तय है कि दोनों देश इसे कायम रखने के लिए प्रतिबद्धता दिखाते रहेंगे।

(लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं)