राजीव सचान। अमेरिका में राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर प्राणघातक हमले के बाद वहां के साथ-साथ भारत में भी लोग कह रहे हैं कि लोकतंत्र और राजनीति में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। आश्चर्यजनक रूप से इनमें वे भी हैं, जो अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति वैसी ही नफरत भरी और उकसावे वाली शब्दावली का प्रयोग करते रहते हैं, जैसी अमेरिका में की जाती है और जिसके चलते वहां का राजनीतिक वातावरण इतना

जहरीला हो गया कि उसका घातक दुष्प्रभाव राजनीति के साथ समाज में भी दिखने लगा और संभवतः इसी के चलते ट्रंप पर हमला हुआ। एक समय था, जब भारतीय राजनीति में परस्पर विरोधी दल प्रतिस्पर्धी होते थे, लेकिन अब वे शत्रु के तौर पर देखे जाते हैं और उनकी आलोचना के नाम पर उन्हें नीचा दिखाते हैं, अपमानित करते हैं और लोकतंत्र के शत्रु के रूप में पेश करते हैं।

जब नेता एक-दूसरे के प्रति बैर भाव से भरे दिखते हैं, तो उनके दल के प्रवक्ता तो टीवी चैनलों में एक-दूजे के मान-सम्मान से खुलकर खेलते ही हैं, उनके समर्थक भी सोशल नेटवर्क साइट्स पर गाली-गलौज करते हैं। इस मामले में किसी दल या उनके नेताओं और समर्थकों को अपवाद में रूप देखना कठिन है।

एक-दूसरे के प्रति ओछी, नफरत भरी और भड़काऊ टिप्पणियां करना भारतीय राजनीति का स्वभाव बनता जा रहा है। इसकी झलक विभिन्न दलों के इंटरनेट मीडिया हैंडल से पोस्ट की जाने वाली सामग्री में देखी जा सकती है। कुछ दलों की सामग्री से तो ऐसा लगता है कि इन हैंडल के संचालन का दायित्व खास तौर पर ऐसे लोगों को सौंपा गया है, जो विरोधी दलों के प्रति सबसे अधिक घृणा से भरे हैं।

राजनीतिक वातावरण में जहर घोलने का काम केवल नेता ही नहीं करते। इस काम में अमेरिकी मीडिया की तरह भारतीय मीडिया का भी एक हिस्सा शामिल रहता है। वे लोग कुछ ज्यादा ही जहर घोलते हैं, जो यूट्यूब के जरिये कथित तौर पर पत्रकारिता कर रहे हैं। कुछ तो नफरत भरा केरोसिन छिड़कते दिखते हैं। लिबरल कहे जाने वालों का एक वर्ग भी यही काम करता है।

ये सब राजनीतिक कारणों से जिस किसी को पसंद नहीं करते, उसके अपमान और यहां तक कि उसकी सुरक्षा के लिए संकट पैदा होने पर यदि खुशी नहीं मनाते तो विरोध में कुछ कहते भी नहीं। कभी-कभी वे खुशी और उसके साथ ही अपनी घृणा प्रकट करने में भी संकोच नहीं करते। अभी हाल में जब वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी के काफिले पर किसी ने चप्पल फेंक दी तो विरोधी दल के कई नेताओं और उनके समर्थकों की प्रतिक्रिया में खुशी और नफरत का भाव ही अधिक था।

इसी तरह दो वर्ष पहले जब फिरोजपुर, पंजाब में प्रधानमंत्री का काफिला रोक लिया गया था और उन्हें लौटना पड़ा था तो विरोधी दल के नेताओं ने इसे सुरक्षा में चूक मानने से इन्कार कर दिया था और प्रधानमंत्री का उपहास उड़ाया था। एक्स और फेसबुक जैसे प्लेटफार्म पर तो इस घटना पर अपनी नफरत भरी खुशी जताने वालों की गिनती ही नहीं थी।

ऐसी गिनती करना तब भी कठिन था, जब नवनिर्वाचित सांसद कंगना रनौत को चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर सीआइएसएफ की कांस्टेबल कुलविंदर कौर ने थप्पड़ मार दिया था। इस घटना के तत्काल बाद इस महिला कांस्टेबल को असली हीरोइन बताने वालों की एक उन्मादी भीड़ ‘एक्स’ पर दौड़ पड़ी थी। इस भीड़ का कुतर्क यह था कि कुलविंदर की कंगना से नाराजगी जायज थी।

यह वैसा ही है, जैसे कोई किसी गोडसे समर्थक को यह कहने की सुविधा दे कि उसकी गांधीजी से नाराजगी जायज थी। यह भी न भूलें कि पंजाब में कुलविंदर के समर्थन में किस तरह मार्च निकाले गए और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई न करने की मांग करते हुए धमकियां दी गईं।

कंगना को थप्पड़ मारे जाने पर संगीतकार विशाल डडलानी ने तो बिना किसी शर्म-संकोच नफरत की बीन बजाते हुए कुलविंदर को नौकरी देने की पेशकश कर दी थी। उन्होंने साबित किया कि गीत-संगीत जगत का भी कोई व्यक्ति किस कदर नफरत से सना हो सकता है। कंगना का थप्पड़ कांड लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद हुआ था। इसी दौरान कोयंबटूर में डीएमके कार्यकर्ताओं ने भाजपा नेता अन्नामलाई की हार का जश्न एक बकरे पर उनकी फोटो लगाने के बाद सरे आम उसे काटकर मनाया था।

इसे नफरत की राजनीति की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा, लेकिन बंगाल में जो कुछ हो रहा है, वह शायद इसके आगे कुछ भी नहीं, क्योंकि वहां तो तृणमूल कांग्रेस समर्थकों के हाथों विरोधी दलों के समर्थक मारे-काटे जा रहे हैं, लेकिन ममता बनर्जी पर सेक्युलर नेता का तमगा लगा होने के कारण अधिकतर दल, राष्ट्रीय मीडिया और खासकर अंग्रेजी मीडिया का एक हिस्सा बंगाल की नफरत भरी राजनीतिक हिंसा की चर्चा नहीं करता। शायद उसे यह लगता है कि जब तक बंगाल में ‘सेक्युलर’ ताकतें मजबूत हो रही हैं, तब तक उन्हें अपने विरोधियों को कुचलने का अवसर और साथ ही छूट भी मिलनी चाहिए।

राजनीतिक बैर भाव के कारण बंगाल में इतना जहर घुल गया है कि वहां चुनाव के पहले, चुनाव के समय और चुनाव के बाद राजनीतिक हिंसा का दुष्चक्र जारी रहता है। इस लोकसभा चुनाव के बाद केंद्रीय बलों की तैनाती के बावजूद वहां राजनीतिक हिंसा का सिलसिला कायम है।

देश में राजनीतिक बैर बढ़ने के बाद भी सब कुछ बिगड़ा नहीं, इसका उदाहरण हैं नवीन पटनायक। वह न केवल विरोधी दल के मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में जाते हैं, बल्कि खुद को पराजित करने वाले से विनम्र भाव से मिलकर बधाई भी देते हैं। भारतीय राजनीति को ऐसे भद्र नेताओं की सख्त जरूरत है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)