हृदयनारायण दीक्षित। भारत प्राचीन राष्ट्र है। सांस्कृतिक दृष्टि से विश्व का पहला राष्ट्र। ऋग्वेद विश्व मानवता का प्राचीनतम शब्द साक्ष्य है। महाभारत और रामायण दुनिया के प्रतिष्ठित महाकाव्य हैं। दर्शन, विज्ञान और गणित में भी भारत की उल्लेखनीय प्रतिष्ठा है। बावजूद इसके कथित उदारवादी और वामपंथी यहां के प्राचीन ज्ञान-ग्रंथों को भी कल्पना बताते रहे हैं। जबकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआइ के उत्खनन से प्राप्त साक्ष्य सभ्यता और संस्कृति को यथार्थ सिद्ध करते रहे हैं। ताजी सूचना भी उत्साहवर्द्धक है। अदालत ने बागपत के बरनावा में महाभारतकालीन लाक्षागृह की पहचान की है। 1953 में खोदाई के दौरान यहां लगभग 4500 वर्ष पुरानी पुरातात्विक महत्व की सामग्री मिली। 1970 में उत्तर प्रदेश वक्फ बोर्ड ने इसे मजार और कब्रिस्तान बताया।

हिंदू पक्ष का दावा था कि यह पांडवों का लाक्षागृह है। यहीं दुर्योधन ने पांडवों को जलाकर मार देने की साजिश की थी। लाक्षागृह से जुड़ी सुरंग भी प्राप्त हुई है। पांडव इसी सुरंग से बच निकले थे। यहां प्राचीन बर्तन और अन्य साक्ष्य भी मिले हैं। अब महाभारतकालीन विशिष्ट स्थान मिला है। वक्फ बोर्ड हिंदू उपासना केंद्रों और संपत्तियों पर निराधार दावों के लिए कुख्यात है। अक्सर उसने उन स्थानों पर भी दावा किया, जिनका इतिहास देश में इस्लाम के आगमन से भी पुराना है। इसीलिए सेना और रेलवे की संपत्ति के बाद देश में सबसे बड़ी भू-संपदा वक्फ के पास है। बोर्ड लगभग 10 लाख एकड़ जमीन का मालिक है।

भारतीय संस्कृति और सभ्यता विश्वविख्यात है, लेकिन स्वयंभू उदारपंथी ऋग्वेद को चरवाहों का गीत बताते रहे। यूनेस्को ने इसे काफी पहले विश्व विरासत घोषित कर दिया था। विश्व धरोहरों की सूची में अब 42 भारतीय स्थल हैं। मोदी सरकार ने 41 स्थलों को सूची में शामिल कराने का और आग्रह किया। दो स्थल सम्मिलित किए जा चुके हैं। मध्यकाल में विदेशी हमलावरों ने लाखों मंदिर ध्वस्त किए। विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले एएसआइ के उत्खनन में प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिल रहे हैं। 2018 में संस्कृति मंत्रालय से संबंधित सिंधु सभ्यता की अध्ययन समिति ने हरियाणा के भिराना और राखीगढ़ी की खोदाई के अध्ययन को महत्वपूर्ण बताया था। इस पुरातात्विक क्षेत्र में कार्बन डेटिंग के अनुसार ईसा पूर्व 7000-6000 वर्ष की सभ्यता का अनुमान लगाया गया। यह अवधि वैदिक काल की सभ्यता से जुड़ती है। कार्बन डेटिंग विश्लेषण को प्राचीन समय से जोड़कर अध्ययन होना चाहिए।

ऋग्वेद और हड़प्पा की सभ्यता में तमाम समानताएं हैं, लेकिन कुछ लोग हड़प्पा को प्राचीन और वैदिक सभ्यता को परवर्ती बताते हैं। उनके तर्क दयनीय हैं। वे हड़प्पा को नगरीय एवं ऋग्वैदिक सभ्यता को ग्रामीण बताते हैं, लेकिन ऋग्वेद में नगरीय सभ्यता के तमाम उल्लेख हैं। यहां नगर के लिए पुर शब्द आया है और नगर प्रमुख के लिए पौर। कथित उदारपंथी अपनी स्थापनाओं को लेकर लज्जित होंगे। वे सुमेरी सभ्यता को हड़प्पा से भी प्राचीन बताते हैं। हड़प्पा को सुमेरी सभ्यता की छाया मानते हैं। वे सरस्वती नदी का भौगोलिक साक्ष्य नहीं देखते। ऋग्वेद के समय सरस्वती जल भरी हैं। यह तथ्य हड़प्पा से पुराना है। सुमेरी, मिनोवन, मितन्नी और हित्ती सभ्यताएं वैदिक सभ्यता के बाद की हैं। दुनिया की किसी भी सभ्यता एवं संस्कृति का अध्ययन ऋग्वेद को अलग हटाकर नहीं किया जा सकता। ऋग्वेद में वरुण के घर को सौ खंभों वाला बताया गया है। ऋग्वेद, महाभारत एवं रामायण में सभागारों के भी उल्लेख हैं। सभागारों में बैठकें होती थीं। अयोध्या, मथुरा, काशी, पाटलिपुत्र और उज्जैन विश्व चर्चित प्राचीन नगर थे।

साम्राज्यवादी शक्तियां भारत को सदा पराजित सिद्ध करने के लिए मूल निवासी आर्यों को विदेशी हमलावर बताती रही हैं। उनका तर्क था कि हम विदेशी तो नया क्या है? इससे पहले यहां इस्लाम का शासन था। इस्लाम से पहले यहां विदेशी आर्य हमलावर थे। इस धारणा का प्रतिकार हुआ। अब वे लज्जित हैं। वे आर्यों को विदेशी हमलावर नहीं बताते, लेकिन विदेशी बताते हैं। राखीगढ़ी और सिनौली में एएसआइ ने ईसापूर्व 2000-1800 के समय का ताम्र और मूर्तियों से सज्जित रथ पाया था। हथियार और आभूषण भी मिले थे। रथ वैदिक काल से लेकर रामायण-महाभारत तक प्रतिष्ठापूर्ण वाहन रहा है। पीवी काणे ने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में वैदिक संहिताओं का काल 4000-1000 ईसा पूर्व तक बताया है। ऋग्वेद का कुछ हिस्सा 5000 साल से भी पुराना है। ऋग्वेद के रचनाकाल से पहले ही भारतीय रथारूढ़ रहे। रथों में घोड़े जोते जाते थे। घोड़े भारतीय थे। मैकडनल और कीथ ने ‘वैदिक इंडेक्स’ में बताया है, ‘सिंधु और सरस्वती तट के घोड़े मूल्यवान थे।’ ऋग्वेद के इंद्र अश्वपति कहे गए हैं। घोड़ा और रथ समृद्धि के प्रतीक थे। उपनिषदों में इंद्रियों को घोड़ा बताया गया है। सूर्यदेव को भी रथारूढ़ बताया गया है। काल देवता भी रथ पर चलते हैं। अथर्ववेद के कालसूक्त में ज्ञानी ही कालरथ पर बैठ सकते हैं। रथ सुमेरी सभ्यता में भी थे, पर उनके पहियों में आरे नहीं थे। बागपत में उत्खनन से प्राप्त 2000 साल पुराना रथ प्राचीन वैदिक सभ्यता का साक्ष्य है।

साक्ष्य और भी हैं। राखीगढ़ी के 5000 वर्ष पुराने नरकंकाल के कुछ वर्ष पूर्व हुए डीएनए परीक्षण ने आश्चर्यचकित किया था। डेक्कन कालेज पुणे के कुलपति वसंत शिंदे एवं बीरबल साहनी प्रयोगशाला के प्रमुख नीरज के नेतृत्व में हुए डीएनए परीक्षण के अनुसार शव संस्कार की शैली ऋग्वैदिक समाज से मिलती है। कंकाल परीक्षण में उच्चतर स्वास्थ्य और वैदिक कालीन ज्ञान तंत्र पाया गया है। ऐसे अध्ययन आर्यों को भारत का मूल निवासी सिद्ध करते हैं। डा. भगवान सिंह, डा. आंबेडकर और डा. रामविलास शर्मा जैसे विद्वानों ने तमाम तर्क देकर आर्यों को भारत का मूल निवासी बताया है, लेकिन भारतीय संस्कृति को हेय सिद्ध करने वाले तत्व अपने पूर्वज आर्यों को भी विदेशी बताते आए हैं। आर्यों के हमले और कहीं बाहर से यहां आने का कोई साक्ष्य नहीं। भारत के समस्त प्राचीन आख्यानों में आर्यों के विदेशी होने का कोई उल्लेख नहीं। इसी प्रकार, श्रीराम और श्रीकृष्ण भी कोरी कल्पना नहीं हैं। यथार्थ हैं। अयोध्या, मथुरा एवं काशी भी सत्य तथ्य हैं। भारतीय अपनी सांस्कृतिक मान्यता और आस्था-आस्तिकता को लेकर सजग हैं। वैज्ञानिक विवेचन ने हमारी सभ्यता और संस्कृति को सही सिद्ध किया है। राष्ट्रजीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से आने वाली सूचनाएं राष्ट्रीय पौरुष और स्वाभिमान को बढ़ा रही हैं। वास्तविक इतिहास बोध पर गर्व समय का आह्वान है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)