धर्मकीर्ति जोशी: भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति यानी एमपीसी की दो दिन तक चली बैठक के बाद गुरुवार को केंद्रीय बैंक ने नीतिगत ब्याज दरों को 6.5 प्रतिशत पर कायम रखने का फैसला किया है। इससे ईएमआइ घटने की उम्मीदें फिलहाल भले ही टूट गई हों, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में लोगों के लिए यही बहुत बड़ी राहत कही जा सकती है कि मासिक किस्तें अभी और नहीं बढ़ने वालीं। पिछले कुछ समय के दौरान महंगाई के मोर्चे पर मिली राहत से आरबीआइ ने ब्याज दरों में बढ़ोतरी न करना ही उचित समझा। इस लिहाज से उसका यह रुख अपेक्षा के अनुरूप ही रहा। हालांकि, महंगाई को लेकर जोखिम अभी भी बने हुए हैं और रिजर्व बैंक भी इनसे भलीभांति वाकिफ है। फिर भी, इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता कि जहां दुनिया भर में ब्याज दरों में बढ़ोतरी का सिलसिला जारी है, वहीं भारत में इस रुझान में कुछ स्थायित्व आया है।

हाल के दौर में आर्थिक परिदृश्य पर और भी कई सकारात्मक संकेत सुकून देने वाले रहे। वित्त वर्ष 2022-23 में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के आंकड़ों ने उम्मीद से कहीं बेहतर तस्वीर दिखाई। इस दौरान जीडीपी वृद्धि दर 7.2 प्रतिशत रही। जबकि एनएसओ ने इस अवधि में सात प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान लगाया था। तिमाही आधार पर भी जीडीपी के आंकड़े तेजी दर्शाते हैं। आर्थिक गतिविधियों के एक प्रमुख मापक परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स यानी पीएमआइ का पैमाना भी तेज वृद्धि के रुझान दिखाता है। सेवा क्षेत्र में पीएमआइ का अद्यतन आंकड़ा 60 से ऊपर तो विनिर्माण में 58 का रहा। पीएमआइ का 50 से ऊपर का आंकड़ा बहुत अच्छा माना जाता है। इन सभी पहलुओं के आधार पर ही भारत विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज वृद्धि दर्ज करने में सफल रहा है।

चालू वित्त वर्ष की शुरुआत भी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अपेक्षाकृत बेहतर रही है। इस बीच कई कठिनाइयां दूर होती दिखी हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में कुछ आवश्यक वस्तुओं के दाम बहुत ज्यादा बढ़ गए थे। युद्ध के अनिश्चित दौर में दाखिल होने से इन वस्तुओं के संदर्भ में आर्थिक समीकरण बिगड़ते दिख रहे थे, लेकिन अच्छी बात है कि विश्व ने इस परिस्थिति से तालमेल बिठा लिया है। ऊर्जा संसाधनों से लेकर खाद्य वस्तुओं की कीमतों में आया स्थायित्व इसका संकेत कर रहा है।

भारत के लिए भी आयात बिल पर इसके सकारात्मक परिणाम होंगे, जिससे चालू खाता घाटे की समस्या का कुछ हद तक समाधान निकलेगा। बीते वित्त वर्ष में कोविड के बाद पहली बार कई क्षेत्रों में सुधार भी देखने को मिला। कोविड प्रतिबंध हटने के बाद विशेष रूप से होटल, रेस्टोरेंट और विमानन क्षेत्र में जबरदस्त तेजी देखने को मिली। कृषि से लेकर कंस्ट्रक्शन जैसे बड़े रोजगार प्रदाता क्षेत्रों का भी बढ़िया प्रदर्शन देखने को मिला। घरेलू मांग विशेषकर शहरी क्षेत्र में उपभोग का स्तर सुधरा है।

ऐसी अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद कुछ कड़ी चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं, जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। अमेरिका और यूरोप में इस समय आर्थिकी भले ही ठीकठाक प्रदर्शन कर रही हो, लेकिन आने वाले समय में वहां आर्थिक मंदी की स्थिति को नकारा नहीं जा सकता। यदि इन बाजारों में मंदी ने दस्तक दी तो देश से होने वाले निर्यात पर भी उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि भारत में विनिर्मित वस्तु निर्यात का करीब 35 प्रतिशत इन्हीं देशों को होता है। पश्चिमी देशों में मंदी का केवल निर्यात ही नहीं, बल्कि देश में होने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा।

पिछले वित्त वर्ष में एफडीआइ में कमी इसका संकेत करती है और यदि यह कमी चालू वित्त वर्ष में भी जारी रहती है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अंकटाड से लेकर ओईसीडी की रिपोर्ट इस दिशा में काफी कुछ कहती हैं। इसके बावजूद भारत जी-20 अर्थव्यवस्थाओं में ठीकठाक एफडीआइ प्राप्त करने वाले देशों में ऊपरी पायदान पर बना रहेगा। इस समय विश्व की दिग्गज कंपनियां चीन से इतर अन्य किसी देश में अपनी वैकल्पिक विनिर्माण गतिविधियों को संचालित करने की रणनीति पर काम कर रही हैं। इसमें भारत भी एक प्रमुख दावेदार है, लेकिन इस मामले में एक आकर्षक निवेश गंतव्य बनने के लिए भारत को कई पहलुओं को दुरुस्त करना होगा। इससे न केवल देश में विदेशी निवेश की राह खुलेगी, बल्कि विनिर्माण गतिविधियों को बढ़ावा मिलने के साथ ही रोजगार सृजन एवं निर्यात में भी तेजी आएगी।

मोबाइल हैंडसेट विनिर्माण इसका एक बड़ा उदाहरण है, जहां बड़े पैमाने पर देश से निर्यात होना शुरू हुआ है। हालांकि, इसमें मुख्य रूप से अभी तक असेंबलिंग ही होती है, जिसके लिए भारी संख्या में कलपुर्जे कई देशों से आयात किए जाते हैं तो निर्यात का लाभ लगभग बराबर हो जाता है। इसलिए ‘चीन प्लस वन’ की वैश्विक रणनीति में भारत को एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में उभारने की राह में आने वाले अवरोधों को अविलंब दूर करना आवश्यक है।

पिछले दो महीनों के दौरान महंगाई से कुछ राहत जरूर मिली है, लेकिन उससे जुड़े हुए जोखिम अभी भी कायम है। मानसून सामान्य रहने के पूर्वानुमान के बावजूद अल नीनो की आशंका बनी हुई है, जिससे वर्षा की प्रकृति एवं वितरण के प्रभावित होने की आशंका है। चिंता केवल मानसून तक ही सीमित नहीं है, बल्कि जलवायु परिवर्तन से उपजने वाली प्रतिकूल मौसमी परिघटनाओं से भी मौसम के बारे में आकलन लगाना बहुत कठिन एवं अनिश्चित हो गया है। ऐसे में यदि अल नीनो और अन्य मौसमी परिघटनाओं का असर कुछ ज्यादा ही दिखा तो कृषि उत्पादन पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।

पिछले कुछ समय से लगातार मेहरबान रहे मानसून और कृषि क्षेत्र के बेहतर प्रदर्शन के बावजूद अनाज भंडारों पर दबाव पहले से ही चिंता की घंटी बजा रहा है। यदि इन सभी पहलुओ का ध्यान रखते हुए इस समय निवेश और उपभोग बढ़ाने की दिशा में कुछ प्रयास किए जाएं तो तेज आर्थिक वृद्धि की संभावनाएं और मजबूत हो सकती हैं।

(लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं)