विकास सारस्वत: नववर्ष के उत्साह में डूबे अधिकांश देशों के उलट अफगानिस्तान और ईरान में इस समय हिंसा और रोष का माहौल है। जहां अफगानिस्तान में शिक्षा के अधिकार और हिजाब से मुक्ति की मांग कर रही युवतियों पर तालिबान शासन गोलियां दाग रहा है, वहीं ईरान में इस्लामी निजाम के विरुद्ध प्रदर्शन जारी है। सितंबर में हिजाब न पहनने को लेकर हुई महसा अमिनी की हत्या के बाद से ईरान में शुरू हुए विरोध-प्रदर्शनों को सौ से ज्यादा दिन हो गए हैं। ईरान स्थित ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट न्यूज एजेंसी एचआरएएनए के अनुसार इन प्रदर्शनों में अब तक 516 प्रदर्शनकारियों की जान जा चुकी है और 19,200 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। मरने वालों में महिलाओं और नाबालिगों की संख्या 70 है और 689 लोगों को कारावास से लेकर मृत्युदंड की सजा सुनाई गई है।

प्रदर्शनकारियों का समर्थन करने के कारण ईरान की जानी-मानी अभिनेत्री हेंगमेह गाजियानी और केतोयून रिआही के बाद विश्वविख्यात अभिनेत्री तरानेह अलीदूस्ती को भी गिरफ्तार कर लिया गया है। अभिनेता अश्कान खतीबी को रिहाई के बाद भी सादी वर्दी वाले सुरक्षाकर्मियों ने सड़कों पर कई बार पीटा है। तमाम फुटबाल खिलाड़ियों और गायकों को भी मौजूदा शासन की बर्बरता का सामना करना पड़ा है। फुटबाल खिलाड़ी अमिर नस्र आजादानी को भी हाल में मृत्युदंड की सजा सुनाई गई है। कुल मिलाकर अब तक करीब सौ लोगों को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई है, जिनमें से 11 लोगों को फांसी पर लटकाया जा चुका है। 23 वर्षीय माजीदरेजा रेहनवर्द के मृत शरीर को तो बाकी लोगों को चेतावनी देने के लिए क्रेन से लटका दिया गया।

इतने क्रूर दमन के बावजूद विरोध-प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है। यूं तो ईरान में पिछले 24 वर्षों से छोटे-बड़े सरकार विरोधी प्रदर्शन होते रहे हैं और पिछली बार 2019 के ‘खूनी अबान’ में मरने वालों की संख्या 1,500 को पार कर गई थी, परंतु इस बार का विरोध पहले के सभी आंदोलनों से बहुत व्यापक है। ईरान के सभी 31 राज्यों में इस आंदोलन की आग फैल चुकी है। अब तक 160 शहरों और 144 विद्यालयों में विरोध-प्रदर्शन हुआ है। विरोध-प्रदर्शन का यह दौर 1979 में ईरानी क्रांति के बाद सबसे लंबे समय तक चलने वाला विरोध अभियान बन गया है। यह कई अन्य कारणों से भी खास है। जैसे महसा अमिनी कुर्द मूल की सुन्नी मुस्लिम होने के नाते ईरान के अल्पसंख्यक समुदाय से आती थीं, परंतु उनकी मौत का विरोध समाज का हर वर्ग कर रहा है।

पिछले विरोध-प्रदर्शनों में उदासीन रहा मध्यम वर्ग इस बार पूरे जोश के साथ सड़कों पर उतरा है। कला, अभिनय एवं खेल जगत से जुड़े लोगों का इन प्रदर्शनों को पुरजोर समर्थन मिल रहा है। यह भी कहा जा सकता है कि राजनीतिक विपक्ष के अभाव में समाज के इन नायक-नायिकाओं पर जनभावनाओं के नेतृत्व का नैतिक दायित्व आ गया है। इन सितारों से जन अपेक्षा भी इतनी प्रबल है कि कतर विश्व कप में पहुंची फुटबाल टीम से सरकारी दमन का अपेक्षाकृत विरोध न देखे जाने पर नाराज ईरानियों ने इंग्लैंड और अमेरिका से अपनी ही टीम की हार का जश्न सड़कों पर मनाया।

ईरान में जारी विरोध-प्रदर्शनों को महज राजनीतिक विरोध समझना गलत होगा। यह तानाशाही, मानव मूल्यों के दमन और मजहबी कट्टरता के विरुद्ध जन-जन के सामूहिक नैतिक बल का वह प्रतिकार है, जो महान क्रांतियों का विशिष्ट लक्षण बनता है। कम उम्र के युवा इस क्रांति के नायक बन रहे हैं। कालेज और विश्वविद्यालयों में ही नहीं, बल्कि स्कूलों में भी लड़कियां हिजाब उतार कर फेंक रही हैं और सर्वोच्च नेता खामेनेई के पोस्टर फाड़ रही हैं। जिस साहस के साथ ईरानी युवा हथियारबंद अर्धसैनिक बल बासिज के सामने आकर खड़े हो रहे हैं, उससे यही लगता है कि उन्हें मौत का कोई डर नहीं रह गया है। जहां 1999, 2009 और 2019 के प्रदर्शन राजनीतिक कारणों या कमरतोड़ महंगाई के विरोध से शुरू हुए, वहीं वर्तमान आंदोलन महिला अधिकार और मूलभूत जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए है।

महिलाओं और युवाओं के नेतृत्व में छिड़ी इस क्रांति का नारा ही ‘जिन, जियान, आजादी’ यानी महिला, जीवन और स्वतंत्रता है। पूर्ववर्ती आंदोलनों के उलट इस बार का विरोध कुछ खास मांगें मनवाने के लिए नहीं, बल्कि ईरान के मजहबी तंत्र को पूरी तरह उखाड़ फेंकने के लिए है। देश के बुद्धिजीवी वर्ग, कलाकार, साहित्यकार, खिलाड़ियों, शिक्षाविदों, पूर्व नौकरशाहों और यहां तक कि न्यायाधीशों द्वारा विरोध को समर्थन के बाद खामेनेई शीर्ष पर बने रहने का आधार गंवा चुके हैं। इतने प्रचंड और व्यापक विरोध के बाद भी यदि खामेनेई की सत्ता कायम रहती है तो यह किसी अजूबे से कम न होगा।

कई मायनों में 2022 की यह क्रांति 1979 की क्रांति का पुनरारंभ है। पूर्व में पश्चिमपरस्त पहलवी राजशाही और बुर्जुआ नेशनल फ्रंट के खिलाफ जन आक्रोश को खोमैनी और मुल्लाओं ने चालाकी से सत्ता प्राप्ति के लिए हथिया लिया था। इस तरह देखें तो ईरानी क्रांति सही मायने में एक थमी हुई प्रक्रिया थी। यह बात महत्वपूर्ण है कि 1979 में नई व्यवस्था के महीने भर में ही सबसे पहला विरोध हिजाब की अनिवार्यता के खिलाफ हुआ था। अब 2019 और 2022 में फिर एक बार इस्लामी शासन के विरुद्ध प्रदर्शनों में हिजाब ही सबसे बड़ा मुद्दा है। चार दशकों में यह फर्क अवश्य आया है कि पहले ईरान में इस्लाम का विरोध नहीं था, परंतु अब ईरान में कट्टरता के अलावा इस्लाम का विरोध भी मुखर हो चला है।

अपनी मौत से पहले माजीदरेजा रेहनवर्द की बेखौफ अपील कि उसकी फांसी के बाद न तो कोई शोक मनाया जाए और न ही उसकी कब्र पर फातिहा पढ़ा जाए, इसी बात का उदाहरण है। बढ़ता इस्लाम विरोध इस्लामी निजाम की कुंठा और भड़ास का एक बड़ा कारण है। जिस तेजी से ईरान में नास्तिकों या जोरोआस्टर धर्म में रुचि बढ़ी है, वह भी किसी से छिपा नहीं है। ईरान में चल रहा आंदोलन इस्लामी देशों के लिए बड़ा सबक है कि मजहबी कट्टरता को शासकीय आधार बनाना न सिर्फ सरकारों, बल्कि मजहब के प्रति भी विरोध का भाव उत्पन्न कर सकता है।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)