सुरेंद्र किशोर। मित्रों का चयन सदैव सोच-समझकर और अपने हितों को ध्यान में रखकर करना चाहिए। यह बात अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में भी लागू होती है। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि जवाहरलाल नेहरू की ओर से अनुपयुक्त मित्र का चयन करने के कारण ही हमने चीन के हाथों पराजय झेली थी। मित्र सोवियत संघ ने उस कठिन दौर में भारत की मदद नहीं की थी। आखिरकार भारत को अमेरिका के सामने मदद के लिए हाथ पसारना पड़ा। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इजरायल से दोस्ती करके पाकिस्तान के खिलाफ कारगिल की कठिन लड़ाई जीती।

1962 के आसपास हमें ‘साम्यवादी अंतरराष्ट्रीयतावाद’ से लड़ना पड़ा था। 1962 में चीन से युद्ध के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआइ दो हिस्सों में बंट गई। वैसे सीपीआइ से निकल कर 1964 में गठित सीपीएम अर्थात मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए नेताओं ने भी तब चीन का ही साथ दिया था। आज हमें ‘इस्लामिक अंतरराष्ट्रीयतावाद’ से जूझना पड़ रहा है। यह किसी से छिपा नहीं कि इस मामले में देश के कुछ लोग, दल एवं संगठन राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग राय रखते हैं।

कठिन दौर में इजरायल ही हमारी मदद कर सकता है, इसे ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने इजरायल-हमास युद्ध में इजरायल के साथ खड़े होने का निर्णय किया। यह निर्णय देशहित में है। कारगिल युद्ध के समय हमारी मदद करके इजरायल ने यह साबित किया था कि गाढ़े वक्त में वही हमारी मदद कर सकता है। 1971 के युद्ध के समय भी इजरायल ने हमारी मदद की थी, जबकि तब उससे हमारा राजनयिक संबंध नहीं था। इजरायल से भारत का पूर्ण राजयनिक संबंध 1992 में कायम हो सका। तब तक संबंध न होने का कारण इस्लामी देशों की नाराजगी का भय भी था और वोट बैंक की घरेलू राजनीति भी। इजरायल से संबंधों को मजबूत बनाने में मोदी सरकार ने विशेष सक्रियता दिखाई है। इसके चलते आज दोनों देशों के संबंध कहीं अधिक प्रगाढ़ हैं।

1962 के युद्ध के समय सोवियत संघ ने कहा था, ‘हम मित्र भारत और भाई चीन के बीच के झगड़े में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।’ बाद में यह पता चला कि चीन ने भारत पर हमला करने से पहले सोवियत संघ की सहमति ले ली थी। यह बात सही है कि बांग्लादेश युद्ध के समय सोवियत संघ की मदद भारत के बहुत काम आई थी, लेकिन उसने हमेशा अपनी कम्युनिस्ट विचारधारा के हिसाब से ही कदम उठाए। अधिकतर देश राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर ही फैसले करते हैं, लेकिन आजादी के बाद भारत सरकार ने कई बार भावनाओं से काम लिया, जो अव्यावहारिक साबित हुए और हमें उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़े। आज यदि मोदी सरकार रूस-यूक्रेन युद्ध में निष्पक्ष है तो यह राष्ट्रहित में है।

कारगिल संघर्ष के समय की विषम स्थिति याद करें। पाकिस्तानी सैनिक तब ऊंची पहाड़ियों पर छितरे हुए थे। उन्हें वहां से भगाने के लिए हमारी सेना को उच्च तकनीक वाले हथियार चाहिए थे। इसके अतिरिक्त सेटेलाइट की सुविधा की जरूरत थी। गोला-बारूद की भी कमी थी। किसी अन्य देश ने हमारी मदद नहीं की। उस विकट स्थिति में इजरायल ने हमें वह सब कुछ दिया, जिसकी हमें जरूरत थी। यहां तक कि चालक रहित विमान और बराक मिसाइल सिस्टम भी। अन्य देशों ने भारत को ऐसी मदद करने से इजरायल को रोका भी, लेकिन उसने उनकी परवाह न करके हमारी मदद की। उसी मदद के कारण हम पाकिस्तानी सैनिकों को अपने भूभाग से भगा सके। दूसरी ओर यह देखें कि चीन युद्ध के समय सोवियत संघ ने क्या किया था?

1987 में मशहूर वकील और लेखक एजी नूरानी ने चीनी दस्तावेजों और सोवियत प्रकाशन का संदर्भ देते हुए अपने शोधपूर्ण लेख में लिखा था, ‘जब चीनी नेताओं ने सोवियत संघ के नेता निकिता ख्रुश्चेव को बताया कि सीमा पर भारत का रुख आक्रामक है तो उन्होंने भारत के खिलाफ चीनी कार्रवाई को मंजूरी दे दी।’ नूरानी के अनुसार, ‘2 नवंबर, 1963 को चीनी अखबार ‘द पीपुल्स डेली’ ने लिखा था कि 8 अक्टूबर, 1962 को चीनी नेता ने सोवियत राजदूत से कहा कि भारत हम पर हमला करने वाला है और यदि ऐसा हुआ तो चीन खुद अपनी रक्षा करेगा।’ 13 अक्टूबर, 1962 को ख्रुश्चेव ने चीनी राजदूत से कहा कि ‘हमें भी ऐसी जानकारी मिली है और यदि हम चीन की जगह होते तो हम भी वैसा ही कदम उठाते जैसा कदम उठाने को वह सोच रहा है।’ इसके बाद 20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने भारत पर हमला कर दिया।

सोवियत संघ की ओर से चीन का समर्थन करने का प्रमाण सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘प्रावदा’ में भी मिलता है। 25 अक्टूबर, 1962 को ‘प्रावदा’ ने अपने संपादकीय में लिखा कि चीन मैकमहोन रेखा को नहीं मानता और हम इस मामले में चीन का समर्थन करते हैं। 5 नवंबर, 1962 को इसी अखबार ने लिखा, ‘भारत को चाहिए कि वह चीन की शर्त मान ले।’ चीनी हमले के समय हमारी सेना के पास न तो गर्म कपड़े थे और न ही जूते। जब चीन ने हमला किया तो भारतीय सेना ने कैसे मुकाबला किया? एक युद्ध संवाददाता के अनुसार, ‘हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। हमारी सेना के पास अस्त्र-शस्त्र की बात तो छोड़िए, कपड़े तक नहीं थे।’ वास्तव में प्रधानमंत्री नेहरू ने कभी सोचा ही नहीं था कि चीन भारत पर हमला करेगा। चीन के हमले के दौरान अंबाला से जिन 200 सैनिकों को एयरलिफ्ट किया गया, उन्होंने सूती कमीजें और निकर पहन रखी थीं। उन्हें बोमडिला में एयरड्राप किया गया, जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था। वे इतनी भीषण ठंड का सामना नहीं कर सके। 14 नवंबर, 1962 को रक्षा मंत्री वाइबी चव्हाण ने पुणे में कहा था, ‘हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि चीन के खिलाफ सोवियत संघ हमारा साथ देगा।’

कुल मिलाकर अतीत में जब हमने सही दोस्त का चयन नहीं किया तो हमारे साथ धोखा हुआ। बाद में जब हम सावधान हुए तो स्थिति सकरात्मक दिशा में बदली। इसी कारण इजरायल से मित्रता घनिष्ठ हुई। इस घनिष्ठता को और बढ़ाने की जरूरत है, क्योंकि वह हमारा सच्चा मित्र है और संकट में हमारा साथ देता है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)