राहुल के अमेठी छोड़ने का मतलब; इंडी गठबंधन का सर्वोच्च नेता ही मुकाबला नहीं कर सका तो दूसरे दल कितनी चुनौती देंगे?
अमेठी और रायबरेली से नेहरू-गांधी परिवार के रिश्ते की अहमियत और राजनीतिक संकेतों को अखिलेश यादव शायद ठीक से समझ रहे थे। इसी वजह से वह कांग्रेस को लगातार सुझाव दे रहे थे कि वहां से राहुल या नेहरू-गांधी परिवार का ही कोई सदस्य उतरे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे चुनाव में भाजपा के लिए राह आसान नजर आने लगी है।
उमेश चतुर्वेदी। राहुल गांधी को अधिकार है कि वह देश में जहां से चाहें, वहां से चुनाव लड़ें। वह केरल के चुनावी अखाड़े में ताल ठोंके या फिर रायबरेली से, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए, लेकिन राहुल सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। वह सबसे पुरानी पार्टी के एक प्रकार से सर्वेसर्वा हैं। कांग्रेस उनके ही इशारे पर चलती है। ऐसे में अगर राहुल अपनी पारंपरिक लोकसभा सीट अमेठी छोड़ अपने दादा, दादी और मां की रायबरेली सीट पर राजनीतिक दांव आजमाते हैं तो सवाल उठेगा, चर्चाएं भी होंगी। 2004 में अमेठी से ही राहुल ने संसदीय राजनीति का ककहरा सीखना शुरू किया था। उसके पहले यानी 1999 के आम चुनाव में वहां से उनकी मां सोनिया गांधी ने संसदीय पारी की शुरुआत की थी, लेकिन बेटे के लिए उन्होंने अगली बार इसे छोड़ बगल की रायबरेली सीट को चुन लिया। रायबरेली से सोनिया के श्वसुर फिरोज गांधी और सास इंदिरा गांधी लगातार चुने जाते रहे। अपवाद 1977 का चुनाव रहा, तब जनता पार्टी के नेता राजनारायण ने इंदिरा को हरा दिया था। राहुल 2004 से 2019 तक संसद में अमेठी का प्रतिनिधित्व करते रहे। 2019 के आम चुनाव में स्मृति इरानी के हाथों मात खाने के बाद भी राहुल को वायनाड के बजाय अमेठी के प्रतिनिधि के तौर पर ही ज्यादा जाना जाता रहा।
हमने जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार किया है, उसमें संसद या विधानसभा की सीटों की पहचान लंबे समय तक उनका प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों और परिवारों की सियासी जागीर के रूप में होती रही है। अमेठी और रायबरेली की लोकसभा सीटें एक तरह से नेहरू-गांधी परिवार की राजनीतिक जागीर रही हैं। इसी वजह से राहुल गांधी के अमेठी छोड़ने को सामान्य राजनीतिक घटना की तरह नहीं देखा जा रहा। अमेठी सीट का गठन 1967 में हुआ था, लेकिन पहली बार यहां नेहरू-गांधी परिवार का कब्जा 1980 के लोकसभा चुनाव में संजय गांधी के जीतने के बाद हुआ। 1998 के चुनाव को छोड़ दें तो तब से लेकर 2019 तक यह सीट या तो कांग्रेस के प्रथम परिवार के पास रही या फिर परिवार के वफादार के पास। 1998 का चुनाव अपवाद रहा, जब भाजपा के संजय सिंह को जीत मिली। हालांकि संजय सिंह की पहचान भी नेहरू-गांधी परिवार के ही नजदीकी की रही। संजय गांधी के निधन के बाद अमेठी से राजीव गांधी 1991 तक लगातार जीतते रहे। उनके निधन के बाद उनके नजदीकी कैप्टन सतीश शर्मा जीतते रहे। 1999 में जब सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति शुरू की तो उन्होंने भी इसी सीट को अपने लिए उपयुक्त पाया। हालांकि अगले चुनाव में इसे अपने बेटे के लिए खाली कर दिया। जाहिर है अमेठी एक लोकसभा सीट भर नहीं है, बल्कि कांग्रेस के लिए इसका प्रतीकात्मक महत्व भी है। इस वजह से इस सीट से नेहरू-गांधी परिवार के किसी सदस्य का लड़ना पार्टी के उत्साह का सबब बनता है। उसी अमेठी सीट से अब नेहरू-गांधी परिवार अलग हो गया।
राहुल के अमेठी छोड़ने का संदेश दूर तक महसूस किया जाएगा। एक संदेश यह है कि उन्होंने न सिर्फ स्मृति इरानी, बल्कि भाजपा से कम से कम उत्तर प्रदेश में हार मान ली है। दूसरा संदेश यह है कि कांग्रेस के जिस नेतृत्व पर प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती देने का दारोमदार है, वह खुद ही उनके सहयोगी को वाकओवर दे रहा है। इससे नेतृत्व की मजबूती पर प्रश्न उठ रहे हैं। अब स्मृति इरानी राहुल के खिलाफ और आक्रामक होंगी। अगर अमेठी से लड़ने वाला नेहरू-गांधी परिवार का सदस्य पराजित भी हो जाता तो कांग्रेस के कार्यकर्ता दुखी तो होते, लेकिन हताश नहीं होते, लेकिन अब इसकी आशंका है। केरल के मौजूदा राजनीतिक हालात कांग्रेस के लिहाज से बेहतर माने जा रहे हैं। माना जा रहा है कि अगले विधानसभा चुनाव में वामपंथी गठबंधन के मुकाबले कांग्रेसी गठबंधन को समर्थन मिल सकता है। राहुल अभी वहीं यानी वायनाड से सांसद हैं और वहां से लड़ भी रहे हैं।
यदि यह मान लिया जाए कि राहुल वायनाड और रायबरेली, दोनों से ही जीत जाते हैं तो उन्हें एक सीट खाली करनी होगी। अगर राहुल रायबरेली छोड़ेंगे तो गारंटी नहीं कि उपचुनाव में कांग्रेस को जीत ही मिले। अगर उन्होंने वायनाड सीट छोड़ी तो केरल में यह संदेश जाएगा कि कांग्रेस का आलाकमान राज्य को लेकर गंभीर नहीं है। इससे विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की संभावनाओं पर भी चोट पहुंचने का खतरा हो सकता है। रायबरेली से राहुल की उम्मीदवारी ने कांग्रेस के प्रथम परिवार की अंदरूनी खींचतान को लेकर जारी चर्चाओं को भी हवा दी है। अगर यह चर्चा तेज हुई तो तब कांग्रेसी कार्यकर्ता और ज्यादा उदासीन होंगे। इससे उत्तर प्रदेश में पहले से ही पस्त पड़ी कांग्रेस की परेशानी बढ़ेगी। अमेठी से राहुल के अलग हो जाने के बाद सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, उत्तर प्रदेश में आइएनडीआइए की उम्मीदों पर भी पानी फिरने की आशंका बढ़ गई है। इसका यह संदेश जा रहा है कि जब आइएनडीआइए का सर्वोच्च नेता ही अपनी पारंपरिक सीट पर मुकाबला नहीं कर सकता तो दूसरे दल मोदी को कितनी चुनौती दे पाएंगे।
अमेठी और रायबरेली से नेहरू-गांधी परिवार के रिश्ते की अहमियत और राजनीतिक संकेतों को अखिलेश यादव शायद ठीक से समझ रहे थे। इसी वजह से वह कांग्रेस को लगातार सुझाव दे रहे थे कि वहां से राहुल या नेहरू-गांधी परिवार का ही कोई सदस्य उतरे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे चुनाव में भाजपा के लिए राह आसान नजर आने लगी है। ऐसे में पार्टी राहुल और नेहरू-गांधी परिवार पर और ज्यादा हमलावर तो होगी ही, इसके जरिये उत्तर भारत में कांग्रेस को शिकस्त देने की कोशिश भी करेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)