सूर्यकुमार पांडेय। चुनावी गर्मी ठंडी पड़ चुकी है। जीतने वालों की बल्ले-बल्ले और हारने वालों की गल्ले-गल्ले हो चुकी है। सत्य यह है कि जो बहुमत पा गया, उसने सरकार बना ली, मगर पराजित हो चुके दलों के थर्मामीटरों का पारा अब भी ऊपर-नीचे हो रहा है। उनकी राजनीति के शेयर बाजार में गिरावट पूर्ववत जारी है। एक पुरानी पार्टी तो सत्ता को अपनी जागीर समझती थी। अब उसका हाल उस मिलावटी मिल्क की तरह हो गया है, जिसमें जरा-सी आंच लगते ही भयंकर उबाल आने लगता है। किसी जमाने में यह पार्टी लकदक सफेद दूध की तरह हुआ करती थी। धीरे-धीरे गर्म होती थी। हौले-हौले उफान आता था, लेकिन ज्यों ही आलाकमान की बाल्टी के पानी की दो-चार छींटें पड़ती थीं, उफनना बंद हो जाता था। उसके नेताओं के कपड़े भी तब शुद्ध दूध जैसे सफेद होते थे। मलाई की चिकनाई उन पर दूर से ही झलका करती थी।

तब राजनीति में इतना प्रदूषण नहीं था। हर दूध की अपनी पहचान हुआ करती थी। गाय और भैंस के दूध अलग-अलग हुआ करते थे। गायों पर सबका समान अधिकार था। एक पार्टी उसे अपना चुनाव चिह्न बनाती थी, दूसरी गोरक्षा का सवाल खड़ा करती थी। उस समय बछड़ों के पीने के बावजूद भी इतना दूध बच जाता था कि दूध-दही पीने और पिलाने वाले, दोनों प्रसन्न रहते थे। तब लोगों के पास आय से अधिक संपत्ति नहीं हुआ करती थी। तब दुहने वाले कम थे, पीने वाले ज्यादा थे। आज दोहन-कर्म करने वाले ही सारा दूध गटक जाते हैं। वह भी ऐसा खुलेआम थन में मुंह लगाकर करते हैं।

विकास की बाल्टियों तक इस दूध की दो-चार बूंदें ही आ पाती हैं। पानी का रंग भी तब साफ था। अगर दूध में गलती से थोड़ी-बहुत मिलावट भी हो जाया करती थी तो किसी को संदेह नहीं होता था और किसी तरह की पहचान नहीं हो पाती थी। दूध का दूध और पानी का पानी करने की नौबत नहीं आती थी। अब घालमेल का जमाना है। दूध में पड़ी हुई मक्खी को बाहर निकाल कर पूजने का युग है।

यह कठिन समय है। गंदले पानी में भी दूध मिलाकर बेचा जाए, तब भी उसे शुद्ध दूध समझ कर पी लेने में किसी को कोई एतराज नहीं है। हमारा लोकतंत्र सिंथेटिक दूध का पचैया है। उसे पता है कि शुद्धता के जमाने गए। संकर प्रजातियां उगाने की होड़ है। जैसा अन्न, वैसा मन। यह विशुद्ध गठबंधन की राजनीति का समय है।

एक ही बरतन में कई तरह के दूध-पानी रखे जाते हैं। गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊंटनी इनके दूध ही नहीं, कद तक एक जैसे दिखने लगे हैं। यह विसंगतियों का दौर है। पहले चारे के समर्थन से शुद्ध दूध तैयार होता था, अब दूध के सहयोग से चारा तैयार किया जाता है और सामने वाले के आगे डाला जाता है।

अब जेलें भी हमारे राजनेताओं के लिए तीर्थ स्थलों की तरह होती जा रही हैं। कुछ जा चुके हैं। कुछ जाने वाले हैं। कुछ जाते-जाते रह गए हैं। पहले के नेता देश के लिए जेल जाते थे, अब परिवारवादी प्रतिष्ठा के नाम पर जाते हैं। यह परिवार प्रेम हमारे देश की सियासत की समृद्ध परंपरा का अभिन्न अंग है।

हां, तो बात राजनीति के तापमान की चल रही थी। कुछ दलों का पारा हाई हो गया है और कुछ पार्टियों का पूरा शरीर ठंडा पड़ता जा रहा है। मगर ऊपर की गर्मी बरकरार है। पहले हथेली गर्म थी, अब मत्था गर्म है। कई चोट खाए हुए दलों के नेताओं को अब भी इस बात का इंतजार है कि शायद कोई असंतुष्ट चिकित्सक आकर उनके घावों पर मरहम लगा देगा और वे चलने-फिरने के लायक हो जाएंगे। चुनाव के नतीजे आने के बाद जिन दलों का बाहर का जोश ठंडा पड़ चुका था, अब उनके भीतर की गर्मी बढ़ रही है। ऐसे लोग सत्ता का कोल्ड ड्रिंक पीने की जुगाड़ में लग गए हैं। सत्ता का एयर कंडीशनर सिद्धांतों और विचारधाराओं के तापमान को पल भर में कूल-कूल बना देने की क्षमता रखता है।