Gandhi Jayanti 2022: आशा की किरण हैं गांधीजी के विचार, उनके चिंतन में विद्यमान हैं विश्व की समस्याओं का समाधान
मोहनदास करमचंद गांधी का लिखा गया ‘हिंद स्वराज’ अपने प्रकाशन के समय कुछ ही लोगों का ध्यान आकर्षित कर पाया और उसमें से भी अधिकांश ने उसे अव्यावहारिक माना परंतु आज विश्व जिन समस्याओं से जूझ रहा है वही हिंद स्वराज आशा बनकर वैश्विक पटल पर उभर रहा है।
[जगमोहन सिंह राजपूत]। सांप्रदायिक सद्भावना की स्थापना के लिए अपना जीवन समर्पण करने वाले महात्मा गांधी को दुनिया ने सराहा, स्वीकारा और विश्व शांति का अद्वितीय दूत माना। उन्होंने जीवन जीने का जो अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया, उसके लिए अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि आगे आने वाली पीढ़ियां मुश्किल से विश्वास कर पाएंगी कि कोई हाड़-मांस का ऐसा व्यक्ति भी इस पृथ्वी पर पैदा हुआ था। आज उसी भारत में न केवल उनके जीवन मूल्य और सिद्धांत भुलाए जा रहे हैं, बल्कि पंथिक विभेद बढ़ाने के लिए एक ऐसा वर्ग उभरा है, जो अपने स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।
क्या आज से सात दशक पहले इस बात की कल्पना की जा सकती थी कि गांधीजी का सर्वप्रिय भजन-‘रघुपति राघव राजाराम, पतित पवन सीताराम, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार का आक्षेप झेलेगा? विचारणीय प्रश्न यह है कि गांधीजी के जीवन काल में उनकी दैनंदिन सभाओं में नियमपूर्वक गाए जानेवाले किसी भजन का किसी धर्म के आधार पर विरोध कभी नहीं किया गया, जो अब हो रहा है। इस भजन को हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के रूप में देखने वाली पीढ़ी कैसे और किन तत्वों द्वारा तैयार की गई है? इस बदलाव के क्या कारण हैं कि देश के राष्ट्रगान के रूप में संविधान सम्मत ‘वंदे मातरम्’ के अंश गाने पर भी कुछ लोगों को एतराज है।
1909 में 40 वर्षीय युवा मोहनदास करमचंद गांधी का लिखा गया ‘हिंद स्वराज’ अपने प्रकाशन के समय कुछ ही लोगों का ध्यान आकर्षित कर पाया और उसमें से भी अधिकांश ने उसे अव्यावहारिक माना, परंतु आज विश्व जिन समस्याओं से जूझ रहा है, उन सबका समाधान ढूंढ़ पाने के लिए वही हिंद स्वराज आशा की किरण बनकर वैश्विक पटल पर उभर रहा है। जिस सभ्यता को उन्होंने राक्षसी कहा था, आज उसका विकराल रूप जलवायु संकट, जल संकट, गरीबी, भुखमरी, बीमारी, हथियारों के निर्माण, संग्रहण एवं विक्रय की अंधी दौड़, हिंसा, अविश्वास, युद्ध इत्यादि के लगातार बढ़ते परिमाण पृथ्वी पर मानवता के बने रहने पर ही प्रश्न चिह्न लगा रहे हैं। गांधीजी के जाने के बाद उनके ही प्रशिक्षित किए गए लोग सत्ता में आए, मगर उन सभी ने जैसा अंग्रेज चला रहे थे, उसे ही निरंतरता प्रदान करना अपना कर्तव्य मान लिया।
गांधीजी की विकास और प्रगति की अवधारणा को नकार दिया। भारत ने विज्ञान, तकनीकी, प्रबंधन, अंतरिक्ष, कृषि इत्यादि अनेक क्षेत्रों में बड़ी सफलताएं प्राप्त कीं, लेकिन जो मानवीय गरिमा गांधीजी हर व्यक्ति को देना चाहते थे, विशेषकर उन्हें जो सैकड़ों वर्षों से सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दुराव और पीड़ा झेल रहे थे, वह उनको मिल नहीं सकी। पश्चिम की सभ्यता का अंधानुकरण और विदेशी शासकों के प्रति भक्ति-भाव के रहते यह संभव था ही नहीं। ‘गांव, गरीब और गांधी’ के प्रति न तो कभी गहराई से विमर्श हुआ और न ही उनके नाम पर बनी योजनाओं के ईमानदार क्रियान्वयन पर विशेष ध्यान दिया गया। इस सबका परिणाम यह हुआ कि भारत में गांधी और उनके विचार नेपथ्य में चले गए।
गांधी ने जिस स्वतंत्र भारत की संकल्पना की थी, उसमें उनके द्वारा प्रतिपादित और उनके स्वयं तथा अनगिनत अनुयायियों द्वारा व्यवहार में लाए गए मूल्य अब कहां हैं? कुछ राज्य सरकारों ने तो गांधीजी का चित्र अपने सरकारी दफ्तरों और संस्थानों से भी हटा दिया है। यह भी कैसी विडंबना है कि सारी राजनीति ‘गांधी जी के पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति’ के हित के नाम पर ही की जाती रही, लेकिन वही सबसे ज्यादा उपेक्षित भी रहा। इसीलिए अब वह ऐसा विकल्प ढूंढ़ रहा है जिस पर विश्वास कर सके, जो व्यक्तिगत स्वार्थ से परे हो, जिसके मन-मस्तिष्क में पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की ही प्राथमिकता हो, जो उनके घर, शौचालय, स्वास्थ्य, फसल, आमदनी की न केवल बात कर सके, वरन व्यावहारिक रूप से वहां तक पहुंचा भी सके।
झूठे वायदों से ऊबा हुआ मतदाता उन सबको पहचान चुका है, जो सेब-दूध बेचकर और न जाने क्या-क्या करके सत्ता में आकर कुछ वर्षों में ही अरबपति-खरबपति बन गए, जिनकी संतानें जन्म से ही न केवल करोड़ों-अरबों की संपत्ति की उत्तराधिकारी बन गईं, बल्कि उन्हें सत्ता तक विरासत में मिल गई। यही नहीं, अपने को प्रबुद्ध वर्ग कहने वाले, सिविल सोसायटी के नाम से समय-समय पर पुरस्कार लौटनेवाले या पत्र लिखकर एक विचारधारा-विशेष का संपोषण करने वाले विशिष्ट जन यह सब देखते रहे, मगर बोले कुछ नहीं। क्या यह अप्रत्याशित था? नहीं, क्योंकि गांधी की दूरदृष्टि इस संभावना को देख चुकी थी।
स्वतंत्रता के पहले एक बार गांधी जी से पूछा गया कि उनके अनुसार भारत की सबसे बड़ी समस्या क्या है? गांधी जी का उत्तर था, बुद्धिजीवियों की उदासीनता। उनके समक्ष केवल उनकी अपनी समस्याएं ही सदा महत्वपूर्ण बनी रहती हैं। जैसे-मैं कुलपति कैसे बनूं? वह बन गया, मैं क्यों नहीं। मेरी पुस्तक पर ही पुरस्कार कैसे मिले? इत्यादि। यह उदासीनता देश को बहुत महंगी पड़ी है। चुनौती यह है कि नई पीढ़ी को सही मानवीय मूल्य देने का उत्तरदायित्व तो विद्वानों और आचार्यों का ही होता है। यदि यह वर्ग भी गांधी की प्रासंगिकता को समझ ले तो भारत नई दिशा में अधिक तेजी से अग्रसर हो सकेगा, जिसमें हर व्यक्ति ‘सर्व भूत हिते रता:’ को जीवन में उतरने की दिशा में आगे बढ़ेगा। यह असंभव नहीं है। गांधीजी भी यही चाहते थे।
(लेखक शिक्षा और सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)