राघवेंद्र प्रसाद तिवारी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर उनके महनीय कार्यों को स्मरण करते हुए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वह पिछली सदी के प्रमुख राजनीतिक एवं सामाजिक नेताओं में से एक थे। जब मानवता गृहयुद्ध, उपनिवेशवाद, बर्बरता एवं विश्वयुद्धों से त्रस्त थी, तब गांधी जी ने शांति, प्रेम, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, नैतिकता, शुचिता एवं करुणा की ज्योति प्रज्वलित की। प्रयोगधर्मी व्यक्तित्व के कारण उन्होंने इन मूल्यों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में रोपित किया। उनका दृढ़ विश्वास था कि सत्य एवं अहिंसा के सहारे बड़े से बड़ा युद्ध जीता जा सकता है।

प्रश्न है कि गांधी जी को सत्य एवं अहिंसा की प्रेरणा कहां से मिली? वास्तव में गांधी के प्रेरणास्रोत मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम थे। डा. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि राम का चरित्र कुछ ऐसा है कि उनके पीछे चलने को जी चाहता है, किंतु अब यह कहने का मानो फैशन ही चल पड़ा है कि राम का राजनीतिक उपयोग नहीं होना चाहिए। जब कभी यह कहा जाता है कि इस या उस मामले में राजनीति न की जाए या फिर राजनीति नहीं होनी चाहिए, तब उसका मतलब होता है कि संकीर्ण राजनीति नहीं होनी चाहिए।

संकीर्ण राजनीति को राजनीति का पर्याय बना देना ठीक नहीं। यदि राजनीति का उद्देश्य समाज को दिशा देना और उसका कल्याण करना है तो फिर हर क्षेत्र में उसका समावेश क्यों नहीं होना चाहिए? वास्तव में राम ही देश की राजनीति के केंद्रीय व्यक्तित्व होने चाहिए। आदर्श जीवन, राज्य एवं प्रजा-राजा का संबंध कैसा हो, इसके सूत्र रामकथा में मिलते हैं। गांधी रामराज्य की बात इसीलिए करते थे, क्योंकि उनके लिए राम मानव जीवन के उच्चतम आदर्श थे।

गोस्वामी तुलसीदास राम नाम को ‘घर’ मानते थे। अनुलोम-विलोम की तरह ही ‘राम’ शब्द का जाप नाड़ी शोधन करता है और दोनों नाड़ियों में प्रवाहित ऊर्जा में तारतम्य बैठाता है। अर्थात ‘राम’ नाम के उच्चारण से न केवल आध्यात्मिक, अपितु भौतिक उन्नति भी सुनिश्चित होती है। इस प्रकार राम नाम तारक है तो उनकी राजव्यवस्था प्रजा हितकारी। ऐसे में राम से जुड़कर विश्वास प्रबल होता है कि जीवन मंगलकारी होगा। इसीलिए गांधी ने राम के आदर्शों को आंदोलनों में समाहित कर स्वतंत्रता के लिए लोगों को प्रेरित किया।

स्वतंत्रता को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि उनके लिए स्वतंत्रता के सपने का अर्थ है रामराज्य की स्थापना यानी आदर्श राज्य का तत्व रामराज्य है। राम ने जैसा राज किया, वैसा ही उन्हें संपूर्ण मानवता के लिए अभिप्रेत था। जनमानस के बीच हजारों साल से चली आ रही रामकथा में आखिर ऐसा क्या है कि स्वतंत्रता आंदोलन का महानायक उसका सहारा लेता है? एक आधुनिक सामाजिक-राजनीतिक चिंतक को पौराणिक-आध्यात्मिक चरित्र की आवश्यकता क्यों पड़ी?

देखा जाए तो गांधी द्वारा चलाए गए आंदोलनों की विशिष्टता एक पौराणिक आख्यान को स्वाधीनता आंदोलन एवं मानव जीवन से जोड़ देने में थी। परतंत्रता के दौर में देश अंग्रेजों की मानव विरोधी नीतियों और अमानुषिक कृत्यों से पीड़ित था। नमक कानून, रालेट एक्ट, जलियांवाला बाग हत्याकांड, नील की खेती आदि ऐसे कुकृत्य थे जिनसे जनसामान्य में रोष था। वह विकल्प की तलाश में थे और उन्हें यह विकल्प रामराज्य में दिखा था। तुलसीदास द्वारा वर्णित रामराज्य के स्वीकृत मूल्यों को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से जोड़कर गांधी जी ने अध्यात्म एवं सामाजिकता की युति बनाने का अभूतपूर्व प्रयत्न किया।

गांधी ने यंग इंडिया में लिखा, ‘मैं जितने धर्मों को जानता हूं, उनमें हिंदू धर्म सर्वाधिक सहिष्णु है। मेरा हिंदू धर्म मुझे सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाता है। यह न केवल मनुष्य, बल्कि प्राणिमात्र की एकता एवं पवित्रता में विश्वास रखता है।’ गांधी के अनुसार, ‘रामराज्य अर्थात जहां अंत्योदय की प्रकृति राज करती हो। रामराज्य ही वास्तविक लोकतंत्र है। न्याय व्यवस्था में राजा और रंक का भेद नहीं होता।’

राम ने प्रजा को निर्भय करते हुए कहा था, ‘यदि राजा होते हुए भी मैं कुछ अनीति करूं तो निर्भय होकर आलोचना करें।’ जब गांधी जी राजनीतिक-सामाजिक जीवन में शुचिता की बात करते हैं, तब स्पष्ट ही राम द्वारा की गई यह घोषणा उनके स्मरण में रही होगी, ‘निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।’ यानी राम को छल कपट नहीं भाता। निर्मल मन से जो पास आता है, राम उसे अपना लेते हैं। गांधी को इसीलिए बुराई से नफरत थी और मनुष्य के भीतर छिपी आध्यात्मिक शक्तियों को जगाने में वह विश्वास रखते थे।

यद्यपि हमारा देश उपनिवेशवादी शक्तियों से स्वतंत्र हो गया, किंतु अनेक चुनौतियां रूप बदलकर हमारे समक्ष विद्यमान हैं। पश्चिमी अपसंस्कृति का प्रसार बढ़ रहा है। आतंकवाद एवं मजहबी उन्माद भी नए-नए रूप धारण कर रहे हैं। एक बड़ी समस्या देश में जातिगत विद्वेष की भी है। स्मरण रहे कि लगभग 500 वर्षों बाद गांधी सहित हम सब के आराध्य प्रभु राम का अपनी अयोध्या में लौटना कोई सामान्य घटना नहीं है।

विचारणीय है कि यदि हम स्वतंत्रता की कठिन लड़ाई जीत सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि राम के आदर्शों को जीवन में अंगीकार कर गांधी के सपनों के रामराज्य की स्थापना के लिए अपनी भागीदारी सुनिश्चित न कर सकें। आज ज्ञान-विज्ञान से युक्त, युवा-ऊर्जा से ओतप्रोत, कुछ कर गुजरने की दृढ़ इच्छाशक्ति से संपन्न हम सभी के समक्ष यह अवसर है कि नवीन राहों का अन्वेषण करते हुए वे अपने पुरखों के सपनों का स्वर्णिम भारत बनाएं एवं समूची धरा को राममय कर दें।

(लेखक पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा के कुलपति हैं)