डॉ. एके वर्मा। संविधान के संरक्षक होने का दावा-दिखावा करने वाले विपक्षी दलों के सदस्यों का लोकसभा की कार्यवाही के दौरान व्यवहार भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा के अनुरूप नहीं रहा। संविधान की प्रति लेकर संसद में प्रवेश, प्रोटेम स्पीकर के चयन से लेकर स्पीकर के चुनाव को लेकर गतिरोध, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु के अभिभाषण पर बहस का निम्न स्तर, नियम विरुद्ध स्थगन प्रस्ताव की मांग और सदन से बहिर्गमन ऐसा ही आचरण रहा। इतना ही नहीं, नेता-प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी की हिंदू समाज पर अवांछित टिप्पणियां भी उचित नहीं कही जा सकतीं।

ऐसे वाकयों ने संकेत दे दिया कि आगामी संसद सत्र सामान्य नहीं रहने वाला। राजनीतिक संस्कृति में पतन के चलते न तो विपक्ष रचनात्मक विरोध और स्वस्थ आलोचना कर रहा है और न ही सत्तारूढ़ दल विपक्ष का सहयोग ले रहा है। इससे देश की वर्तमान युवा पीढ़ी लोकतंत्र के बारे में क्या धारणा बना रही है? गांधी जी ने कहा था ‘प्रबुद्ध और अनुशासित लोकतंत्र विश्व में सर्वोत्तम चीज है।’ क्या सत्ता पक्ष और विपक्ष से अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपने कार्य, कथन और चिंतन में बौद्धिकता एवं अनुशासन का प्रदर्शन कर युवा पीढ़ी की लोकतंत्र में आस्था को दृढ़ कर सकेंगे?

यदि युवा पीढ़ी की लोकतंत्र में आस्था नहीं रही तो संविधान का कोई अर्थ नहीं। इसमें सत्ता पक्ष को पहल करनी होगी, लेकिन तीसरे कार्यकाल में मोदी सरकार के समक्ष चुनौतियों को कमी नहीं है। मोदी सरकार की पहली चुनौती संसदीय विपक्ष है, जिसका लक्ष्य होगा कि घटक दलों पर निर्भर मोदी सरकार को अस्थिर करना। इसके लिए वे तेदेपा और जदयू को ढाल बनाकर मोदी सरकार पर प्रहार करते रहेंगे। वहीं, प्रधानमंत्री मोदी के सामने सहयोगी दलों को साथ रखने और नए सहयोगी तलाशने की चुनौती रहेगी।

चुनाव परिणामों के बाद से विपक्ष विशेषकर कांग्रेसी ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, जैसे असली विजेता वही हों और मोदी पराजित हुए हों। विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह का बहिष्कार कर और तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर इतिहास रचने पर उन्हें बधाई न देकर सामान्य शिष्टाचार का भी उल्लंघन किया।

ऐसे विपक्ष से सरकार क्या संसदीय कार्यों में सहयोग की अपेक्षा कर सकती है? बजट सत्र में यदि विपक्ष केवल शोर-शराबे, धरना-प्रदर्शन और नारेबाजी में ही व्यस्त रहा तो नीतिगत वाद-विवाद एवं निर्णय कैसे होंगे? सरकार से भी हठधर्मिता छोड़ विपक्ष को विश्वास में लेने और उनसे नियमित संवाद करने की अपेक्षा रहेगी, जिससे विपक्ष को भी लगे कि नीति निर्णयन प्रक्रिया में उसकी भी सहभागिता है।

दूसरी चुनौती भाजपा को सहयोगी दलों से तालमेल बनाए रखने की होगी। खासतौर से जदयू और तेदेपा से, क्योंकि उनके बिना सरकार के बहुमत की स्थिति प्रभावित होगी। भाजपा ने बिहार में नीतीश, चिराग पासवान और जीतनराम मांझी को मिलाकर एक बड़े सामाजिक वर्ग को साधा। आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व में तेदेपा-जनसेना-भाजपा गठबंधन द्वारा मुद्दों पर चुनाव लड़ ‘कामा, कापू और रेड्डी’ समाज के सही समीकरण बनाए।

इसके आसार अधिक हैं कि विशेष राज्य का दर्जा और विकास हेतु वित्तीय सहयोग आदि मांगों पर तेदेपा, जदयू तथा भाजपा के संबंधों में कोई समस्या नहीं आएगी। इसमें प्रधानमंत्री मोदी का सकारात्मक दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। वह स्वयं गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हैं और राज्यों के प्रति संवेदनशील हैं। नीतीश और नायडू की विकासोन्मुख मांगें मोदी के विकसित भारत की परिकल्पना का अभिन्न अंग हैं। इसलिए उन मांगों पर प्रधानमंत्री को समस्या नहीं होगी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मधुर संबंध बनाए रखना मोदी भी मोदी सरकार की एक चुनौती होगी। भाजपा और संघ भले ही कहें कि उनके बीच सब कुछ सहज है, लेकिन ऐसा लगता नहीं। यदि सब कुछ सहज होता तो चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को क्यों कहना पड़ता कि अब भाजपा को आरएसएस की जरूरत नहीं। इससे स्वयंसेवकों में गलत संदेश गया।

संघ के कार्यकर्ता निष्ठापूर्वक भाजपा के पक्ष में जनमत तैयार करते हैं और मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक ले जाते रहे हैं। नड्डा के बयान से उत्तर प्रदेश, बंगाल और महाराष्ट्र आदि राज्यों में वे उदासीन हो गए, जिससे भाजपा को नुकसान हुआ। जल्द ही कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव होंने हैं और बिना संघ के सक्रिय सहयोग के भाजपा के प्रदर्शन पर एक प्रश्न चिह्न बना रहेगा।

मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल की चुनौती स्वयं भाजपा से है। समावेशी राजनीति के कारण मोदी ने समाज के सभी वर्गों और जातियों को पार्टी की ओर आकृष्ट किया। इससे अस्मिता की राजनीति करने वाले भी आज भाजपा में हैं। इसके चलते न केवल कुछ पुराने भाजपाई नाराज हैं, बल्कि पार्टी में गुटबाजी भी बढ़ी है। भाजपा में नव-प्रवेशार्थियों का भाजपा की विचारधारा से जुड़ाव हो भी सकता है और नहीं भी, लेकिन पुराने भाजपाई यही समझते हैं कि वे अपने निहित स्वार्थों के लिए ही पार्टी से जुड़े हैं।

विचारधारा के इतर अन्य आधारों पर भी लोग आज भाजपा से जुड़े हैं और स्वार्थ-सिद्धि न होने पर वे पार्टी छोड़ सकते हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री अपने दायित्वों के निर्वहन में इतने तल्लीन नहीं हो सकते कि अपने सांसदों और विधायकों की अकर्मण्यता और गुटबाजी से लेकर जनता से विमुखता और भ्रष्टाचार में लिप्तता का संज्ञान न लें।

गैर-भाजपा, गैर-राजग शासित राज्यों से मधुर संबंध बनाना सरकार की पांचवीं चुनौती है। जिस आक्रामक-संघवाद की शुरुआत बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की, उसकी बेल पंजाब, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक आदि राज्यों में पहुंच चुकी है। केंद्र सरकार को आतंरिक और बाह्य तमाम समस्याओं से जूझना पड़ता है। विकास के लक्ष्यों को पाना होता है।

कानून-व्यवस्था, आतंकवाद और सुरक्षा जैसी संवेदनशील समस्याओं से निपटना पड़ता है। दैवीय और प्राकृतिक आपदाओं से निपटना पड़ता है। तकनीक जनित नए प्रकार के अपराधों की काट खोजनी पड़ती है। अतः मोदी सरकार को सभी राज्यों से तालमेल बैठाकर ही अपनी सरकार चलानी होगी। यदि इन पांचों राजनीतिक चुनौतियों से मोदी सरकार निपट सकी तो न केवल आगामी पांच वर्षों तक सरकार सुचारु रूप से चलेगी, बल्कि इससे जनमानस में लोकतंत्र के प्रति आस्था और दृढ होगी।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)