राहुल वर्मा। शुक्रवार को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने जानी-मानी लेखिका एवं समाजसेविका सुधा मूर्ति को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया। प्रधानमंत्री मोदी ने सुधा मूर्ति के मनोनयन को ‘नारी शक्ति और देश की नियति को आकार देने में आधी-आबादी की भूमिका से जोड़कर’ बधाई संदेश लिखा। महिला दिवस पर यह मनोनयन और प्रधानमंत्री का संदेश भले ही एक सांकेतिक कदम हो, लेकिन इसके बड़े गहरे मायने हैं। यह भारतीय राजनीति में महिलाओं की बढ़ती सक्रियता एवं शक्ति को मिल रही मान्यता का प्रमाण है। यह अकारण भी नहीं है। वह समय बहुत दूर नहीं जब देश में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों को पीछे छोड़ देगी।

2009 में कुल मतदाताओं में महिलाएं लगभग 46 प्रतिशत थीं। यह आंकड़ा 2019 में बढ़कर 48 प्रतिशत से कुछ अधिक हो गया। केवल संख्या ही नहीं, बल्कि सक्रियता और मतदान का रुझान भी महिलाओं को महत्वपूर्ण बनाता जा रहा है। पिछली सदी के छठे से आठवें दशक के बीच पुरुषों का मतदान महिलाओं से लगभग 12 प्रतिशत अधिक रहता था। आठवें दशक से पिछली सदी के अंतिम दशक तक यह अंतर आठ प्रतिशत रह गया। 2014 के चुनाव में तो पुरुष मतदान महिलाओं की तुलना में मात्र एक प्रतिशत अधिक रहा, जबकि 2019 के चुनाव में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के मतदान ने मामूली ही सही, लेकिन बढ़ोतरी दर्ज की। मतदान और राजनीतिक रुझान को लेकर महिलाओं की बदलती मनोवृत्ति के पीछे शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन, जागरूकता और चुनाव आयोग के अभियान प्रमुख कारक हैं।

महिलाओं के बढ़ते मतदान की स्थिति में यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि राजनीति में उनकी पसंद कैसे निर्धारित होती है? इसकी कसौटियां देखी जाएं तो सबसे पहले कल्याणकारी योजनाओं का पैमाना आता है। दस वर्षों से केंद्र की सत्ता और कई राज्यों में सरकार चला रही भाजपा की चुनावी सफलता के पीछे महिला मतदाताओं की अहम भूमिका मानी जाती है। भाजपा ने शौचालय निर्माण से लेकर उज्ज्वला योजना और आवास में महिलाओं के स्वामित्व को प्राथमिकता देने जैसी उन योजनाओं पर दांव चला, जो सीधे महिलाओं और समग्रता में समूचे परिवार को लाभान्वित करने वाली हैं।

कई राज्यों में भाजपा सरकारों ने महिलाओं को नकद प्रोत्साहन राशि प्रदान करना भी शुरू किया है। मिसाल के तौर पर मध्य प्रदेश में लाड़ली बहना योजना भाजपा के लिए बाजी पलटने वाली सिद्ध हुई। अब अन्य दल भी इस प्रकार की योजनाओं का आश्रय ले रहे हैं। महिला मतदाताओं को लुभाने में अन्य दल भी पीछे नहीं हैं। बिहार में शराबबंदी और साइकिल वितरण जैसी योजनाएं नीतीश कुमार के लिए महिला मतदाताओं को साधने में सहायक बनी हैं। 2016 के विधानसभा चुनाव में जयललिता ने महिला मतदाताओं को साधकर चुनाव की पूरी कहानी ही बदल दी थी। केरल में भी ऐसी ही कुछ परंपरा रही है। यहां तक कि बंगाल में भी ममता बनर्जी सरकार महिला मतदाताओं को केंद्र में रखकर कई योजनाएं चला रही है।

केवल कल्याणकारी योजनाएं ही नहीं, कानून एवं व्यवस्था का मुद्दा भी महिला मतदाताओं की प्राथमिकता सूची में दिखता है। हाल के चुनावों में यदि भाजपा के पक्ष में महिला मतदाताओं का झुकाव बढ़ा है तो उसमें कानून एवं व्यवस्था जैसे पहलू की भी अहम भूमिका रही। भले ही भाजपा सरकारों में कानून एवं व्यवस्था पूरी तरह चाकचौबंद न भी हो, लेकिन पार्टी का इस मुद्दे पर सख्त रवैया उसे लेकर एक सकारात्मक धारणा अवश्य बनाता है। उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें, जहां योगी आदित्यनाथ ने कानून एवं व्यवस्था को लेकर अपना एक माडल अपनाया है, जिसकी कुछ पैमानों पर आलोचना भले ही की जा सकती हो, लेकिन जनता में उसकी स्वीकार्यता दिखती है।

खासतौर से कालेज जाने वाली लड़कियों या कामकाजी महिलाएं कानून एवं व्यवस्था को लेकर बहुत संजीदा होती हैं। यह उनके मतदान रुझान में भी दिखता है। 2022 में सीएसडीएस और एक्सिस के सर्वे के अनुसार सपा की तुलना में भाजपा को महिलाओं का समर्थन करीब 10 प्रतिशत अधिक रहा। भाजपा के रुख का लाभ उसके सहयोगी दलों को भी मिलता दिखाई देता है। बिहार में नीतीश कुमार ने जब राजद के साथ चुनाव लड़ा तो उन्हें महिलाओं का उतना समर्थन नहीं मिला, जितना उन्हें भाजपा के साथ चुनाव लड़कर मिलता रहा। प्रतीत होता है कि भाजपा महिला मतदाताओं की आकांक्षाओं और उनके मानस को अन्य दलों की तुलना में कहीं बेहतर पढ़ रही है। इसलिए प्रतीकात्मक कदम हो या कोई नीतिगत पहल, भाजपा आधी-आबादी का पूरा ध्यान रखने का प्रयास करती है।

जब नितिन गडकरी भाजपा के अध्यक्ष बने थे, तब उन्होंने सांगठनिक पदों पर एक तिहाई महिलाओं को स्थान देने की बात कही थी। समय के साथ भाजपा में महिला कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ी है तो महिलाओं से जुड़ी इकाइयों को और समृद्ध बनाया गया है। संसद के नए भवन के उद्घाटन सत्र में पहला एजेंडा भी विधायी संस्थाओं में महिलाओं को एक तिहाई प्रतिनिधित्व देने से जुड़ी पहल का रहा। इससे महिलाओं को भले ही लोकसभा एवं विधानसभाओं में तत्काल उतना प्रतिनिधित्व न मिले, पर संदेश अवश्य गया कि भाजपा इस वादे को लेकर ठोस इरादा रखती है।

महिला मतदाताओं को लामबंद करने के भाजपा के तौर-तरीकों में नवाचार दिखता है। इसके तहत तरह-तरह के कार्यक्रमों के जरिये महिलाओं को जोड़ने की मुहिम जारी है। स्वयं सहायता समूहों में बड़े पैमाने पर महिलाओं को जोड़ा जा रहा है। उनसे प्राप्त डाटा का पार्टी अपनी लक्षित योजनाएं बनाने में उपयोग कर रही है। मुद्रा योजना के माध्यम से महिलाओं को सुगम ऋण मिल रहे हैं और उनमें उद्यमिता की आकांक्षाओं को परवान चढ़ाया जा रहा है। ड्रोन दीदी जैसी पहल से भी महिलाओं में पैठ बनाने का प्रयास है। यही कारण है कि पिछली सदी के अंतिम दशक में भाजपा को जहां महिलाओं के कम वोट प्राप्त होते थे, वहीं अब अधिक वोट मिल रहे हैं। साफ है कि दूसरे दलों को भी भाजपा की इस रणनीति की काट के लिए प्रभावी योजनाएं बनानी होंगी, क्योंकि आगामी आम चुनाव का जनादेश निर्धारित करने में महिलाओं की भूमिका अहम होगी।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)