कपिल सिब्बल। संयुक्त राष्ट्र की पांच एजेंसियों के आंकड़ों से भारत को लेकर विचलित करने वाली तस्वीर उभरी है। इन आंकड़ों के अनुसार 140 करोड़ की आबादी में करीब सौ करोड़ लोग यानी 74 प्रतिशत आबादी पोषक आहार का व्यय करने में सक्षम नहीं। वहीं देश की 16.6 प्रतिशत आबादी कुपोषण की शिकार है यानी करीब 20 करोड़ लोगों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा। यह संख्या यूरोप की कुल जनसंख्या के एक तिहाई के बराबर है।

देश पोषण की इतनी विकराल समस्या से जूझ रहा है। यह बात तब और कचोटती है, जब प्रधानमंत्री बार-बार अमृतकाल की दुहाई देते रहते हैं। इन आंकड़ों का यही निहितार्थ है कि एक बड़ी संख्या में लोगों के पास सम्मानजनक आजीविका का अभाव है और इस कारण पोषक आहार पर खर्च करने में समर्थ नहीं। इससे मौजूदा सरकार के दौर में तरक्की और आर्थिक समृद्धि को लेकर किए जाने वाले बड़े-बड़े दावों की भी पोल खुल रही है। ऐसी स्थिति के बावजूद कोई इस पर चर्चा नहीं कर रहा। हमारे प्रधानमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री तो कतई नहीं।

चिंता का एक और पहलू वे सरकारी नीतियां एवं सुधार भी हैं, जिनसे अमीर और अमीर होते जा रहे हैं। आर्थिक विषमता की स्थिति ऐसी है कि 76 प्रतिशत संपदा केवल 10 प्रतिशत लोगों के पास है और सबसे गरीब 20 प्रतिशत लोगों के हिस्से में मात्र 13 प्रतिशत संपदा है। यह रुझान दर्शाता है कि प्रधानमंत्री बार-बार जिस आर्थिक समृद्धि की बात करते हैं उसका सरोकार शायद शीर्ष 10 प्रतिशत अमीरों से ही हो। इन 10 प्रतिशत अमीरों में से भी शीर्ष एक प्रतिशत की झोली में राष्ट्रीय आय का 20 प्रतिशत हिस्सा जाता है। ऐसे में यह बखूबी समझ आता है कि मौजूदा सरकार इन 10 प्रतिशत लोगों के दायरे से परे देख ही नहीं पाती।

भारत में एक बालिग की प्रति व्यक्ति आय 2,04,200 रुपये सालाना है। जबकि आर्थिक तलहटी के 50 प्रतिशत हिस्से में प्रति व्यक्ति 53,610 रुपये वार्षिक आते हैं। जबकि शीर्ष पर 10 प्रतिशत के हिस्से में प्रति व्यक्ति 11,66,520 रुपये सालना, जो तलहटी वाले 50 प्रतिशत से बीस गुना अधिक है। यह विषमता दर्शाती है कि सरकार जिन आर्थिक सुधारों का खूब ढिंढोरा पीटती है, उनसे एक छोटे से वर्ग को ही लाभ पहुंच रहा है। इन नीतियों से केवल संपदा सृजक ही फायदे में हैं।

जहां देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई चौड़ी हो रही है, वहीं भुखमरी, बेरोजगारी, कुपोषण और लचर स्वास्थ्य ढांचे से जुड़ी चुनौतियां बढ़ रही हैं। जहां अरबपतियों के पास और समृद्ध होने के अवसर बढ़ रहे हैं, वहीं गरीब केवल अपना अस्तित्व बचाए रखने की उम्मीद से जूझ रहा है कि किसी प्रकार बुनियादी जरूरतों की पूर्ति होती रहे। वर्ष 2020 में भारत में अरबपतियों की संख्या 102 थी। यह आंकड़ा 2022 में बढ़कर 126 पर पहुंच गया।

ओक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार इन अरबपतियों के पास 54.12 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति है, जो केंद्र सरकार के डेढ़ साल के बजट की पूर्ति करने में सक्षम है। दूसरी ओर वर्ष 2018 में देश में करीब 19 करोड़ लोग भूखे पेट सोते थे, जो संख्या 2022 में बढ़कर 35 करोड़ हो गई। सितंबर, 2002 में सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार ने स्वीकार किया कि देश में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मौत के 65 प्रतिशत मामलों के लिए व्यापक भुखमरी जिम्मेदार रही। भुखमरी बेलगाम होती गई और प्रधानमंत्री लगातार अमृतकाल का राग अलापते रहे।

मोदी सरकार ने कारपोरेट कर को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत किया और चरणबद्ध रूप में उसे 15 प्रतिशत करने की तैयारी है। यह कदम इस मंशा से उठाया गया कि इससे आर्थिक वृद्धि को गति मिलेगी। हालांकि इससे केवल अमीरों को लाभ हुआ और कोई ट्रिकल-डाउन इफेक्ट यानी समृद्धि में साझा लाभ नहीं पहुंचा। इसके उलट गरीबों से बिना किसी खास रियायतों के कर वसूलना जारी है। चाहे भुखमरी हो या लैंगिक समानता, विधि का शासन, सामाजिक प्रगति और लोकतांत्रिक सूचकांक, सभी पैमानों पर देश की स्थिति में मोदी सरकार के दौरान भारी गिरावट देखने को मिली है। वी-डैम ने भारतीय लोकतंत्र को जहां ‘चुनावी अधिनायकवाद’ बताया तो द इकोनमिस्ट ने ‘खामियों से भरा लोकतंत्र’ कहा।

इतिहास राजीव गांधी की दूरदर्शिता को सराहेगा कि उन्होंने कंप्यूटर और नई तकनीक के महत्व को पहचाना था। इतिहास में यह भी दर्ज होगा कि नरसिंह राव सरकार के दौरान कैसे भारतीय अर्थव्यवस्था को उदारीकरण की राह पर आगे बढ़ाया गया और दूरसंचार जैसे कई क्षेत्रों का उभार आरंभ हुआ। हमें यह स्वीकार करना होगा कि सुधारों की यह प्रक्रिया वाजपेयी सरकार के दौरान भी जारी रही और उसमें बुनियादी ढांचे जैसे क्षेत्रों पर विशेष जोर दिया गया। इसके बाद डा. मनमोहन सिंह के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था ने तेज रफ्तार से विस्तार करना शुरू किया। इस तेजी की बराबरी मोदी सरकार अपने कार्यकाल में कभी नहीं कर पाई।

वैसे भी यह सरकार जिन योजनाओं का सबसे ज्यादा श्रेय लेती है, उनमें से अधिकांश संप्रग सरकार में शुरू हुई थीं। संप्रग शासन में ही डिजिटल इकोनमी ने गति पकड़ना आरंभ किया था। वहीं इस सरकार में केवल अर्थव्यवस्था के समृद्ध क्षेत्रों को ही लाभ पहुंचाने पर ध्यान केंद्रित किया गया। समानता लाने से जुड़े सामाजिक सुधारों की दशा-दिशा खराब है। यही कारण है कि हाशिये पर मौजूद सूमहों, वंचित वर्गों और अल्पसंख्यकों की स्थिति दयनीय है और सरकारी दावों के उलट समृद्धि में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं।

गरीब लोग जीवन के लिए अपने संघर्ष से जूझ रहे हैं। वहीं, सरकार का पूरा जोर अपनी उपलब्धियों के बखान पर है। नि:संदेह, एक छोटे से वर्ग ने काफी कुछ हासिल किया है और सरकार को इस पर गर्व भी करना चाहिए, मगर 140 करोड़ के देश में सौ करोड़ लोगों को असहाय नहीं देखा जा सकता। यह हमारे लिए जागने का समय है कि हम एक समतापूर्ण एवं प्रगतिशील भारत बनाने के राष्ट्र निर्माताओं के स्वप्न को साकार करने में जुटें। हम किसी जंगल में नहीं रह रहे, जहां केवल वही ताकतवर खुद को बचाए रख सकता है, जो ऐसा करने में सक्षम हो। समता तो न्याय का आधार है और विषमता अन्याय का परिणाम। अभी हम ऐसे भारत में रह रहे हैं जहां अन्याय का बोलबाला है।

(लेखक राज्यसभा सदस्य एवं वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)