विवेक देवराय और आदित्य सिन्हा : चीन एक बार फिर ताइवान को धमकाने की मुद्रा में है। उसकी ताजा बौखलाहट ताइवानी उपराष्ट्रपति विलियम लाई को लेकर बढ़ी है। अपनी पराग्वे यात्रा के दौरान लाई ने अमेरिका में भी कुछ समय के लिए पड़ाव डाला और इससे चीन चिढ़ गया। लाई ताइवान में अगले राष्ट्रपति के प्रमुख दावेदार के रूप में उभरे हैं।

चीनी सेना ने लाई के अमेरिकी दौरे को ‘ताइवान की स्वतंत्रता के समर्थकों’ द्वारा विदेशी सहायता मांगना करार देते हुए इस पर कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी है। चीनी सेना ने युद्ध की तैयारियों से जुड़ी धमकियां भी दी हैं। ताइवान की सीमा के इर्दगिर्द चीन की ओर से सैन्य गतिविधियां चलाना बहुत आम है। ‘वन चाइना पालिसी’ के अंतर्गत चीन ताइवान को अपना अभिन्न अंग मानता है, जबकि वास्तविकता यही है कि 1949 से ताइवान स्वतंत्र रूप से शासित रहा है। इसके बावजूद चीन अपनी आदत से बाज नहीं आता और ताइवान के आसपास सामरिक चढ़ाई की मुद्रा में रहता है और उसके समर्थन में सुर मिलाने वाले देशों को भी धमकाता है।

चीन और ताइवान के रिश्तों की तस्वीर बड़ी जटिल और बहुआयामी प्रकृति की है, जिसमें राजनीतिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पहलू भी जुड़े हैं। छिटपुट सैन्य गतिविधियां तो इस टकराव में एक उदाहरण मात्र है, लेकिन दोनों के बीच यह भू-राजनीतिक टकराव बहुत लंबे समय से चला आ रहा है। ताइवान पर नियंत्रण की चीन की चाह के पीछे कई कारण हैं। सबसे बड़ा पहलू तो रणनीतिक महत्व का है।

चीन का मानना है कि ताइवान पर कब्जे के साथ वह अमेरिका की ‘द्वीप शृंखला रणनीति’ को निष्प्रभावी कर देगा, क्योंकि ताइवान चीन और पश्चिमी प्रशांत महासागर के बीच एक दीवार का काम करता है। यदि चीन ताइवान पर काबिज हो जाता है तो एशिया के प्रमुख सामुद्रिक मार्गों पर उसे बढ़त हासिल हो जाएगी, जिसका वह लाभ उठाएगा। एक पहलू आर्थिक हितों का भी है। ताइवान विश्व की सेमीकंडक्टर महाशक्ति है। ऐसे में उस पर नियंत्रण के साथ चीन का विश्व के कई प्रमुख उद्योगों पर वर्चस्व और अधिक बढ़ जाएगा।

ताइवान की प्रति व्यक्ति जीडीपी चीन की तुलना में तीन गुना अधिक है, जो उसकी समृद्धि को दर्शाती है। जाहिर है कि चीनी कंपनियों के लिए वहां अपार संभावनाएं होंगी। ताइवान को लेकर चीन की जिद का एक कारण ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक भी है। एक समय चीनी गणतंत्र का हिस्सा रहा ताइवान 1949 में चीनी गृहयुद्ध के बाद स्वतंत्र हो गया था। चीन आज तक उसके स्वतंत्र अस्तित्व को पचा नहीं पाया है। यही कारण है कि उसे चीन का हिस्सा बनाना चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रपति शी चिनफिंग की रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा है। स्वाभाविक है कि चीन में आंतरिक राजनीतिक दृष्टिकोण से भी इसके गहरे निहितार्थ हैं।

ताइवान पर चीन रह-रहकर जिस प्रकार आंखें तरेरता रहता है उससे एक प्रश्न यही खड़ा होता है कि चीनी हमले की स्थिति में क्या ताइवान अपनी सुरक्षा करने में सक्षम है? इसमें कोई संदेह नहीं कि ताइवान ने अपनी सामरिक तैयारियां की हैं, लेकिन बाहरी मदद के बिना चीन का मुकाबला करने की उसकी क्षमता बहस का विषय है। चीनी मिसाइल, हवाई हमले और साइबर आक्रमण जैसे तात्कालिक खतरों से निपटने के लिए ताइवानी सेना ने मोर्चा तैयार किया है। वहीं,

ताइवान रिलेशंस एक्ट के जरिये अमेरिका ने ताइवान के सामूहिक आत्मरक्षा अधिकार को मान्यता दी हुई है।

हालांकि, अमेरिका ने ताइवान के साथ कोई परस्पर सामरिक समझौता तो नहीं किया, लेकिन किसी बाहरी हमले की स्थिति में उसकी सहायता का प्रविधान किया हुआ है। अमेरिकी अधिकारियों ने अपने कुछ हालिया बयानों में भी ताइवान की रक्षा को लेकर सामूहिक हितों को ध्वनित किया है। ताइवान पर किसी हमले की स्थिति में भारत को भी विशेष रूप से चौकस रहना होगा और एक व्यापक रणनीति तैयार करनी होगी। विशेष रूप से दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते हुए दखल को देखते हुए भौगोलिक एवं सामुद्रिक दोनों स्तरों पर निगाह रखना जरूरी होगा। इसके साथ ही कूटनीतिक मोर्चे पर भारत प्रमुख देशों के साथ मिलकर शांति एवं स्थिरता के लिए प्रयास करे ताकि किसी एकतरफा चीनी आक्रामकता की आशंका को कमजोर किया जा सके।

भारत के लिए यह भी आवश्यक होगा कि वह ताइवान पर चीनी हमले की स्थिति में आर्थिक मोर्चे पर उभरने वाले परिदृश्य से निपटने की तैयारी करे। ताइवान वैश्विक सेमीकंडक्टर आपूर्ति शृंखला का प्रमुख खिलाड़ी है। खासतौर से उन्नत किस्म की चिप निर्माण का महारथी है। विश्व की सबसे बड़ी चिप निर्माता कंपनी टीएसएमसी इस प्रमुख तकनीक के मामले में ताइवान को निर्णायक बढ़त दिलाती है।

यदि ताइवान पर कोई चीनी हमला हुआ तो विश्व में सेमीकंडक्टर आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित होगी। इससे कई क्षेत्रों की तमाम कंपनियां और विभिन्न उत्पादों का निर्माण प्रभावित होगा, क्योंकि आज विनिर्मित होने वाली वस्तुओं में व्यापक रूप से चिप का इस्तेमाल होता है। सेमीकंडक्टर आपूर्ति बिगड़ने के गहन आर्थिक दुष्प्रभाव होंगे और इसका खामियाजा भारत को भी भुगतना पड़ेगा।

ऐसे में यह आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है कि विश्व के प्रमुख देश ताइवान में चीन के किसी भी राजनीतिक एवं सैन्य दुस्साहस से निपटने के लिए एक सुविचारित रणनीति तैयार करें। इससे ताइवान पर एकतरफा कार्रवाई की चीनी हसरत पर अंकुश लगेगा। भारत भले ही मलक्का स्ट्रेट के पूर्व में व्यापक सैन्य प्रभाव न बढ़ाए, लेकिन वह चीन की किसी सामुद्रिक सैन्य आक्रामकता को रोकने में अपनी भू-रणनीतिक स्थिति का लाभ अवश्य ले सकता है। जब विश्व में लोकतांत्रिक मूल्यों को चुनौती दी जा रही है तब यह दुनिया भर के लोकतंत्रों का दायित्व हो जाता है कि वे ताइवान की स्वायत्तता के समर्थन में एकजुट हों। ताइवान में समय के साथ जो लोकतंत्र सशक्त एवं परिपक्व हुआ है, उसकी सुरक्षा आवश्यक है।

(देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी (अनुसंधान) हैं। ये लेखकों के निजी विचार हैं।)