राज कुमार सिंह : पटना में मंथन के बाद बेंगलुरु में बने विपक्षी गठबंधन की दिशा अब मुंबई बताएगी। 26 दलों के विपक्षी गठबंधन ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस’ (आइएनडीआइए) की मुंबई में 31 अगस्त और एक सितंबर को होने वाली तीसरी बैठक कई कारणों से महत्वपूर्ण है। बेंगलुरु बैठक के बाद कुछ घटनाक्रमों का असर आइएनडीआइए की राजनीति-रणनीति पर पड़े बिना नहीं रह सकेगा।

इस बीच राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता बहाल हो चुकी है, तो दिल्ली से लेकर राजस्थान-छत्तीसगढ़ तक कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अलग-अलग चुनावी तेवर दिखा रही हैं। बेंगलुरु बैठक में गठबंधन के नामकरण से लेकर संयोजक के नाम तक पर मतभेद की खबरें आई थीं। फिर भी विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए नामकरण में सफल रहा। यह अलग बात है कि उसे अदालत में चुनौती दी जा चुकी है।

अब मुंबई में विपक्षी क्षत्रपों को न सिर्फ संयोजक के चयन की चुनौती से जूझना होगा, बल्कि बेंगलुरु की घोषणा के मुताबिक 11 सदस्यीय समन्वय समिति भी बनानी होगी। बेंगलुरु बैठक में विपक्ष के मंच पर 26 दलों के नेता नजर आए थे। मुंबई में यह संख्या बढ़ेगी या घटेगी, यह देखना दिलचस्प होगा, क्योंकि कुछ और दलों के जुड़ने की चर्चा जोरों पर है।

राजनीतिक दलों-नेताओं के पालाबदल का खेल तो चुनाव तक चल सकता है, लेकिन इस बीच एनसीपी प्रमुख शरद पवार की अपने बागी भतीजे अजीत पवार के साथ मुलाकात से विपक्षी खेमे में संदेह और सवाल उभरे हैं। अजब स्थिति है कि मुंबई बैठक के तीन में से एक मेजबान की निष्ठा ही संदेह और सवालों के घेरे में है। मराठा क्षत्रप से सीधा सवाल पूछने की हैसियत न होते हुए भी अन्य विपक्षी दल उनके साथ को लेकर आश्वस्त अवश्य होना चाहेंगे, पर पवार की ‘पावर पालिटिक्स’ को समझ पाना कभी आसान नहीं रहा।

शिवसेना में बगावत के चलते मुख्यमंत्री पद से बेदखल उद्धव ठाकरे और शरद पवार के बीच समझदारी पर ज्यादा संदेह नहीं, पर महाराष्ट्र कांग्रेस में पवार विरोधियों की संख्या कम नहीं है। सच यह भी है कि विपक्षी खेमे में शरद पवार और उद्धव ठाकरे ही हैं, जिनके नाम पर महाराष्ट्र में वोट मिल सकते हैं। दिखावा और दावे जो भी किए जाएं, सच यही है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच अविश्वास की खाई जस-की-तस है।

बेंगलुरु बैठक में शामिल होने के लिए आम आदमी पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने शर्त रखी थी कि पहले कांग्रेस उस अध्यादेश का राज्यसभा में विरोध करने की घोषणा करे, जिसके जरिये दिल्ली सरकार को अफसरों के तबादले-तैनाती के अधिकार से वंचित कर दिया गया है। शायद व्यापक विपक्षी एकता की खातिर कांग्रेस मान भी गई। हालांकि राजनीति की समझ रखने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि बिना ऐसी शर्त के कांग्रेस अध्यादेश का समर्थन कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारने वाली थी। बाद में अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस के इस समर्थन के लिए पत्र लिख कर आभार जताया।

अपने निलंबन के विरुद्ध मानसून सत्र में संसद भवन परिसर में ही धरने पर बैठ गए आम आदमी पार्टी सांसद संजय सिंह को शेष विपक्ष के साथ खुद सोनिया गांधी ने पहुंचकर समर्थन दिया। आम आदमी पार्टी ने भी संसद सदस्यता बहाली के बाद संसद पहुंचे राहुल गांधी का एकजुट विपक्ष के साथ स्वागत किया, पर एकजुटता के इस प्रदर्शन के बावजूद वास्तव में इन दोनों दलों के बीच कुछ नहीं बदला। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी ने दिल्ली के कांग्रेसियों से चुनावी रणनीति पर चर्चा की तो इस बीच आम आदमी पार्टी में रह आईं अलका लांबा ने कहा कि कांग्रेस सभी सात लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी। तीन बार से सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की इस पर तल्ख प्रतिक्रिया आनी ही थी। कांग्रेस ने उसे निजी राय बता कर पल्ला झाड़ना चाहा, पर अब पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई कांग्रेस कार्यसमिति में अलका लांबा का नाम बहुत कुछ कह देता है।

राजनीतिक दांवपेच में अरविंद केजरीवाल को कम आंकने की गलती किसी को भी नहीं करनी चाहिए। कांग्रेस ने दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर लड़ने को अलका लांबा की निजी राय बता कर पल्ला झाड़ना चाहा, पर उसी भाषा में जवाब देते हुए आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस शासित राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनावी ताल ठोक दी है।

इसी साल मध्य प्रदेश और तेलंगाना में भी विधानसभा चुनाव होने हैं, पर वहां आम आदमी पार्टी की वैसी सक्रियता नजर नहीं आती। केजरीवाल मुंबई बैठक में शामिल तो होंगे, मगर पटना और बेंगलुरु की विपक्षी बैठकें भी कांग्रेस-आम आदमी पार्टी के बीच अविश्वास मिटा पाने में नाकाम रहीं। सीट बंटवारे पर तो टकराव अन्य दलों के बीच भी तय है, लेकिन कांग्रेस-आम आदमी पार्टी के बीच शह-मात का खेल ज्यादा बड़ी समस्या है।

शरद पवार और अरविंद केजरीवाल को लेकर विपक्षी खेमे में संदेह और सवालों के रहते हुए मुंबई बैठक में आइएनडीआइए का लोगो जारी करना भले ही कोई समस्या न हो, लेकिन संयोजक और 11 सदस्यीय समन्वय समिति की घोषणा बड़ी चुनौती साबित होने वाली है। इसलिए भी, क्योंकि संयोजक पद के लिए नीतीश कुमार और ममता बनर्जी के नाम अर्से से चर्चा में हैं, मगर सांसदी बहाली के बाद राहुल गांधी को लेकर कांग्रेसी महत्वाकांक्षाएं फिर से हिलोरे मारने लगी हैं। फिलहाल गठबंधन राजनीति में सोनिया गांधी के अनुभव के आधार पर कांग्रेस अपना दावा आगे बढ़ा रही है। उसका एकसूत्रीय लक्ष्य 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध राहुल गांधी को संयुक्त विपक्ष का चेहरा बनाना ही है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)