नई दिल्ली [अनंत विजय]। गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी को उनकी एक कविता के लिए जेल भेज दिया गया था। तब देश में कांग्रेस का शासन था और नेहरू जी प्रधानमंत्री थे। संविधान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान ये बातें कहीं। कुछ बुद्धिजीवियों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर तथ्यों को तोड़ मरोड़कर पेश कर करने का आरोप लगाया। नरेन्द्र मोदी को बेहतरीन गल्पकार तक बता दिया गया। विद्वान माने जाने वाले कुछ स्तंभकारों ने प्रधानमंत्री को लेकर अनर्गल टिप्पणियां कीं।

प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में दिए अपने वक्तव्य में लता मंगेशकर के भाई ह्रदयनाथ मंगेशकर को वीर सावरकर की कविता को लेकर आकाशवाणी से निकाले जाने का उदाहरण दिया। विवाद मजरुह सुल्तानपुरी पर कही उनकी बातों को लेकर आरंभ हुआ। आरोप लगाने वालों ने जो प्रसंग बताया उसके मुताबिक मजरुह वामपंथी थे। स्वाधीनता को झूठी आजादी बताकर वामपंथियों ने उस समय की सरकार के खिलाफ आंदोलन और षडयंत्र रचा था, उसमें मजरुह की गिरफ्तारी की बात की गई।

तथ्यों को जान लेते हैं कि मजरुह की गिरफ्तारी किस वजह से हुई थी। आजादी के बाद वामपंथियों का सरकार के खिलाफ विद्रोह चल रहा था। अलग-अलग क्षेत्र में काम करने वाले कम्युनिस्ट उस विद्रोह में शामिल हो रहे थे। हिंदी फिल्म जगत भी उससे अछूता नहीं रहा था। सिनेमा से जुड़े कुछ लेखक, गीतकार, निर्देशक और अभिनेता भी उस आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे। मजरुह उनमें से एक थे। मजरुह जिस कवि गोष्ठी या मुशायरे में जाते थे तो एक कविता अवश्य पढ़ते थे। उस कविता की कुछ पंक्तियां थीं- ये भी है हिटलर का चेला/मार लो साथी जाने न पाए/कामनवेल्थ का दास है नेहरू/मार लो साथी जाने न पाए। इस कविता में नेहरू का नाम लेकर मजरुह ने हमला किया था और उनके पहनावे को खादी का केंचुल बताकर तंज किया था। मजरुह को मुंबई में गिरफ्तार कर लिया गया।

कांग्रेस से जुड़े कई लोगों ने उनको सलाह दी कि नेहरू से माफी मांग लें तो रिहाई हो जाएगी। मजरुह ने माफी नहीं मांगी और उनको लंबा समय जेल में बिताना पड़ा। उसी समय प्रदर्शन करते समय अभिनेता बलराज साहनी भी गिरफ्तार हुए थे। कैफी आजमी गिरफ्तारी से बचने के लिए भूमिगत हो गए थे। कई फिल्मों के संवाद लेखक अख्तर उल ईमान को सरकार के खिलाफ षडयंत्र रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। अख्तर उल ईमान मशहूर अभिनेता अमजद खान के श्वसुर थे।

ये तथ्य है और इसका उल्लेख सरकारी अभिलेखों में मिलता है। उस दौर में लिखी पुस्तकों में भी। बहुत संभव है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में कविता पर जेल भेजे जाने की ये पहली घटना हो। तो जो विद्वान लेखक प्रधानमंत्री को संसद की मर्यादा भंग करने की नसीहत दे रहे हैं या उनके भाषण को अर्धसत्य बता रहे हैं उनको अपने लेखन पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

कलाकारों के खिलाफ कार्रवाई सिर्फ नेहरू जी के जमाने में ही नहीं हुई। कालांतर में जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं तो उनके कार्यकाल में भी फिल्म से जुड़े लोगों को विरोध करने की सजा मिली। प्रख्यात अभिनेता देवानंद ने अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ में इमरजेंसी के दौर की एक घटना का उल्लेख किया है। देवानंद के मुताबिक इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी सातवें आसमान पर थीं। ‘गूंगी गुड़िया’ निरंकुश हो गई थीं और अपनी हनक स्थापित करने में लगी थी। संजय गांधी अपनी मां की वारिस के तौर पर खुद को स्थापित कर चुके थे।

कांग्रेस ने उस समय दिल्ली में एक रैली की थी जिसमें देवानंद भी शामिल हुए थे। दिलीप कुमार भी। उन्होंने रैली के दौरान के अपने अनुभव के आधार पर लिखा कि संजय गांधी या कांग्रेस की प्रोपगंडा मशीनरी फासीवादी तरीके से काम कर रही थी। रैली के बाद देवानंद और दिलीप कुमार को कांग्रेस की तरफ से संदेश दिया गया कि दूरदर्शन केंद्र जाकर इमरजेंसी के समर्थन में बयान रिकार्ड करवाएं। दिलीप कुमार हिचक रहे थे लेकिन देवानंद ने साफ मना कर दिया कि वो इमरजेंसी के समर्थन में बयान नहीं देंगे।

देवानंद ने लिखा है कि उनके मना करने के तुरंत बाद से दूरदर्शन पर उनकी फिल्मों के प्रदर्शन को बैन कर दिया गया। किसी भी सरकारी माध्यम में देवानंद के नाम लिखे जाने तक पर पाबंदी लगा दी गई। इसके पहले किशोर कुमार के साथ भी ऐसा किया जा चुका था क्योंकि उन्होंने गाने से मना कर दिया था।

इस घटना से व्यथित होकर देवानंद ने उस समनय के सूचना ओर प्रसारण मंत्री से भेंट की। मंत्री ने छूटते ही देवानंद से पूछा कि आपको दिक्कत क्या है? देवानंद ने उनको स्पष्ट किया कि वो दबाव में किसी तरह का बयान इमरजेंसी के समर्थन में नहीं दे सकते हैं। मुलाकात खत्म हो गई। कुछ दिनों बाद गांधी परिवार की करीबी अभिनेत्री नर्गिस से देवानंद की मुंबई में एक पार्टी में मुलाकात हुई। नर्गिस ने भी देवानंद से सरकार के समर्थन में बयान न देने की चर्चा की और कहा कि वो अनावश्क रूप से जिद पाले बैठे हैं। बात खत्म हो गई लेकिन जो एक पंक्ति देवानंद ने लिखी है उसका उल्लेख आवश्यक है।

देवानंद के मुताबिक इस पूरे प्रकरण के बाद संजय गांधी के दरबारियों ने उनको चिन्हित कर लिया था। उस वक्त देवानंद की फिल्म देस परदेस बन रही थी और वो उसके भविष्य को लेकर चिंतित थे। देवानंद ने भले ही मना कर दिया लेकिन उस वक्त फिल्मों के अधिकांश कलाकार इंदिरा गांधी और इमरजेंसी के समर्थन में थे। इन दिनों एक वरिष्ठ अभिनेत्री लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की बात जोर शोर से कर रही हैं, लेकिन उस वक्त आपातकाल का समर्थन किया था।

इमरजेंसी में इंदिरा गांधी की सरपरस्ती में संजय गांधी के फासीवादी कदमों की चर्चा विनोद मेहता भी अपनी पुस्तक ‘द संजय स्टोरी’ में करते हैं। ये सूची बहुत लंबी है। स्वतंत्र भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने की चार बेहद गंभीर कोशिशें हुईं जो नेहरू, इंदिरा, राजीव और मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुई। इस स्तंभ में एकाधिक बार इसकी चर्चा की जा चुकी है।

अब प्रश्न ये उठता है कि जब संसद में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात उठाकर प्रधानमंत्री ने नेहरू के दौर को याद किया तो एक विचारधारा विशेष के पोषक स्तंभकारों ने उसपर सुनियोजित तरीके से प्रतक्रिया क्यों दी। अगर आप ध्यान से प्रधानमंत्री के भाषण को सुनेंगे तो उत्तर भी उसमें ही निहित है। उन्होंने अपने भाषण में एक ईको सिस्टम की बात की। भारतीय जनता पार्टी के विरोधी कहें या कांग्रेस के समर्थकों का वो ईको सिस्टम इस तरह का है कि उसमें वैकल्पिक विचारों के लिए जगह ही नहीं है। वो सिर्फ अपने सिद्धांतों को और अपने विचारों को ही दुनिया का श्रेष्ठ विचार मानते हैं। दूसरे विचारों का उपहास करना और उनसे इतर विचारों को हेय समझना और बताना उनकी योजना का हिस्सा है।

इसी श्रेष्ठता ग्रंथि को लेकर चलनेवाले स्तंभकार और कथित इतिहासकार आजाद भारत में घटी घटनाओं का विश्लेषण करते समय वैचारिक दोष के शिकार हो जाते हैं। इस कारण उनके लेखन में समग्र दृष्टि का अभाव दिखाई देता है। इतिहास पर लिखनेवालों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो वैचारिक रूप से निरपेक्ष रहकर और समग्र दृष्टि के साथ लेखन करेंगे। अफसोस कि हमारे देश में स्वाधीनता के बाद का इतिहास लेखन वैचारिक जकड़न से मुक्त नहीं हो पाया। यह अकारण नहीं है कि स्वाधीन भारत में घटनेवाली राजनीतिक घटनाओं पर लिखते समय भी वैचारिक दासता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। स्वाधीनता के अमृत काल में वैचारिक दासता से मुक्ति भी आवश्यक है।