एक देश-एक चुनाव की है आवश्यकता, अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा बोझ हैं ये बार-बार होने वाले चुनाव
पीएम मोदी अनेक मंचों से एक देश एक चुनाव की बात कह चुके हैं। नीति आयोग विधि आयोग एवं अन्य समीक्षा समितियों ने भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की पहल का समर्थन किया है। देखा जाए तो यह विचार भारत के लिए कोई नया भी नहीं है।
[डॉ. सुरजीत सिंह गांधी]। देश के पांच राज्यों पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल और पुडुचेरी में विधानसभा चुनावों की घोषणा ने एक बार फिर से इस बात पर सोचने के लिए विवश कर दिया है कि क्या हम एक देश एक चुनाव की राह पर नहीं चल सकते? आठ चरणों में होने वाले इन चुनावों की प्रक्रिया में 62 दिन का लंबा समय लगेगा। उल्लेखनीय है कि 2020 के प्रारंभ में दिल्ली एवं अक्टूबर-नवंबर में बिहार में चुनाव हो चुके हैं। आगामी वर्ष फरवरी- मार्च में गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश एवं पंजाब तथा अक्टूबर में हिमाचल प्रदेश एवं दिसंबर में गुजरात के चुनाव प्रस्तावित हैं।
नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीस वर्षों में प्रत्येक वर्ष में किसी न किसी राज्य में चुनाव होता रहा है। इसके साथ ही प्रत्येक राज्य में नगर निकाय एवं पंचायतों के भी चुनाव होते रहते हैं। इसके चलते देश में रह-रहकर चुनाव आचार संहिता के लागू होने की नौबत आती है। इसके कारण न केवल प्रशासनिक एवं नीतिगत फैसले प्रभावित होते हैं, बल्कि देश की ऊर्जा एवं अन्य संसाधनों का अनुपयुक्त प्रयोग भी होता है।
न सिर्फ चुनावी खर्च पर लगेगी लगाम, बल्कि सार्वजनिक धन की भी होगी बचत
अच्छा हो कि यह समझा जाए कि बार-बार होने वाले चुनाव तमाम समस्याओं के जनक एवं अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा बोझ हैं। नीति आयोग ने यह सुझाव दिया था कि कुछ राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल में विस्तार एवं कुछ राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल में कटौती करके एक देश एक चुनाव की तरफ बढ़ने की पहल की जा सकती है। इससे न सिर्फ चुनावी खर्च पर लगाम लगेगी, बल्कि सार्वजनिक धन की भी बचत होगी। प्रशासनिक मशीनरी पर भार कम होने से वह नीतियों के क्रियान्वयन के लिए ज्यादा समय दे सकेगी। केंद्र सरकार का भी ध्यान नीतिगत फैसले लेने और उनके क्रियान्वयन पर अधिक रहेगा। चुनावों की अवधि को घटाने से कार्यदिवसों की बचत होगी। काले धन पर रोक लगेगी तथा राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण और भ्रष्टाचार में कमी आएगी। इससे जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर भी अंकुश लगेगा। जब चुनाव आयोग यह कह चुका है कि हम लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने में सक्षम हैं तो फिर इस दिशा में गंभीर प्रयास क्यों नहीं किए जा रहे हैं?
एक देश एक चुनाव होने से चुनावों पर होने वाले व्यय में भी आएगी कमी
इसमें दोराय नहीं कि एक देश एक चुनाव होने से चुनावों पर होने वाले व्यय में भी कमी आएगी। 1952 के चुनाव में 10.45 करोड़ रुपये का व्यय हुआ था, जो 2014 में बढ़कर 30,000 करोड़ रुपये हो गया। वहीं 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में करीब 10 हजार करोड़ रुपये ही व्यय हुए, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था की तुलना में अमेरिका की अर्थव्यवस्था कई गुना बड़ी है।
सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज के एक अनुमान के अनुसार 17वीं लोकसभा के चुनाव पर 60 हजार करोड़ रुपये से अधिक व्यय हुआ। चुनावों में होने वाले व्यय की प्रवृत्तियां बताती हैं कि प्रत्येक पांच वर्ष में यह व्यय दोगुना हो जाता है। 2015 में बिहार चुनाव पर लगभग 300 करोड़ रुपये व्यय हुए थे, जो 2020 के चुनाव में बढ़कर 625 करोड़ रुपये हो गए। 2016 में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल एवं पुडुचेरी के चुनावों पर कुल 573 करोड़ रुपये व्यय किए गए थे।
प्रति वर्ष होने वाले चुनावों पर लगभग 1000 करोड़ रुपये व्यय करता है चुनाव आयोग
एक अनुमान के अनुसार चुनाव आयोग प्रति वर्ष होने वाले चुनावों पर लगभग 1000 करोड़ रुपये व्यय करता है। उल्लेखनीय है कि विधानसभा चुनावों में उम्मीदवारों के लिए अधिकतम व्यय सीमा 28 लाख रुपये और लोकसभा में व्यय सीमा बड़े राज्यों के लिए 70 लाख रुपये और छोटे राज्यों के लिए 54 लाख रुपये है। देश में कुल 4121 विधायक एवं 543 सांसद प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। ऐसे में इनके चुनाव पर होने वाले व्यय का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। चुनावी व्यय को कम करने के लिए पार्टी के व्यय की सीमा भी निर्धारित होनी चाहिए। जब भारत में 30 करोड़ से अधिक लोग गरीब हों, समाज में असमानताएं व्याप्त हों, बेरोजगारी बढ़ रही हो तो क्या हमें इस व्यय पर अंकुश लगाने की दिशा में नहीं सोचना चाहिए?
पीएम मोदी भी कह चुके हैं एक देश एक चुनाव की बात
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अनेक मंचों से एक देश एक चुनाव की बात कह चुके हैं। नीति आयोग, विधि आयोग एवं अन्य समीक्षा समितियों ने भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की पहल का समर्थन किया है। देखा जाए तो यह विचार भारत के लिए कोई नया भी नहीं है। वर्ष 1952 से लेकर 1967 तक होने वाले चार लगातार चुनाव इसी विचारधारा पर आधारित थे। 1968-69 में कई राज्यों की विधानसभाएं अलग-अलग कारणों से निश्चित समय सीमा से पहले ही भंग होने के कारण एवं 1971 में लोकसभा के चुनाव तय समय से पूर्व होने से राज्यों एवं केंद्र के एक साथ होने वाले चुनावों की कदमता बिगड़ गई। जब पहले ऐसा हो सकता था तो अब क्यों नहीं हो सकता?
देश में ई-वोटिंग की दिशा में भी की जा सकती है पहल
आज इस क्रम को पुन: बहाल करने की दरकार है। यदि लोकसभा या विधानसभा के चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता अथवा वह अपना बहुमत खो देती है तो दोबारा चुनाव न हों, इसके लिए सभी र्पािटयों की ओर से उनके निर्वाचित सदस्यों की संख्या के आधार पर एक सर्वदलीय सरकार के गठन पर विचार किया जा सकता है। देश में ई-वोटिंग की दिशा में भी पहल की जा सकती है। इससे चुनावों में लगने वाली अवधि कम होगी और आचार संहिता का भी समय कम हो जाएगा। देशहित में एक देश एक चुनाव के लिए एक कमेटी का गठन होना चाहिए एवं लोगों की राय एवं सुझाव के लिए बड़ी बहस का आयोजन किया जाए, जिससे भारतीय राज्यों की भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषाई बहुलताओं में एक संतुलन स्थापित किया जा सके। देश में प्रतिवर्ष चलने वाली चुनाव की प्रक्रिया के चक्रव्यूह से निकलने के लिए व्यापक चुनाव सुधारों के साथ एक देश एक चुनाव के लिए आम सहमति आज की पहली आवश्यकता है।
(लेखक अर्थशास्त्री हैं)
[लेखक के निजी विचार हैं]