ए. सूर्यप्रकाश। आइएनडीआइए की पिछली बैठक में तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी यानी आप ने मल्लिकार्जुन खरगे को विपक्षी मोर्चे की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का प्रस्ताव रखा। इन दलों के इस चतुराई भरे दांव ने कांग्रेस को अजीब सी उलझन में डाल दिया। निःसंदेह खरगे देश के सबसे अनुभवी नेताओं में से एक और कांग्रेस अध्यक्ष हैं, लेकिन प्रधानमंत्री पद के लिए एकाएक उनका नाम उछाले जाने से पार्टी सकते में आ गई है।

यह सकपकाहट नेहरू-गांधी परिवार के कारण ही है, जिसका पार्टी पर नियंत्रण है। परिवार को लगता है कि उनके बीच का कोई सदस्य ही गठबंधन के केंद्र में होना चाहिए। जबकि उनमें से किसी के पास खरगे सरीखे दिग्गज जैसा राजनीतिक एवं प्रशासनिक अनुभव नहीं है। चूंकि तृणमूल-आप के इस प्रस्ताव पर परिवार के भीतर चुप्पी है तो पार्टी के अन्य नेता भी इस पर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने से हिचक रहे हैं कि कहीं इससे नेहरू-गांधी परिवार कुपित न हो जाए।

खरगे की ऐसी उपेक्षा दुखद है। राजनीति में उनका विधायी अनुभव 50 वर्षों से अधिक का है। पिछली सदी के आठवें दशक के आरंभ में देवराज उर्स ने उनकी प्रतिभा को पहचाना। 1972 में वह कर्नाटक विधानसभा के सदस्य चुने गए। वह कर्नाटक कांग्रेस में एसएम कृष्णा, गुंडुराव, वीरप्पा मोइली और धर्म सिंह की उस पांत के नेता हैं, जिन्हें देवराज उर्स ने मंत्री बनाकर या कोई और दायित्व सौंपकर निखारने का काम किया। खरगे को छोड़कर ये सभी कालांतर में कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। हालांकि खरगे ने भी कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और राजनीति के पथ पर सफलता की सीढ़ियां चढ़ते गए। राज्य से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर वह कई दायित्व संभाल चुके हैं। लगातार नौ बार विधायक बनने के अलावा उन्होंने दो बार लोकसभा चुनाव भी जीता है। राज्य सरकार में कई मंत्रालय संभाले। लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष भी बने। पार्टी संगठन में भी भिन्न-भिन्न पदों पर सक्रिय रहे।

कम से कम दो बार ऐसे अवसर आए जब मुख्यमंत्री पद के लिए वह स्वाभाविक दावेदार बनकर उभरे, लेकिन बनते-बनते रह गए, क्योंकि पार्टी आलाकमान ने किसी और को वरीयता दी। राज्य की राजनीति में इतनी लंबी पारी के बावजूद वह किसी प्रकार की गुटबाजी के लिए नहीं जाने जाते। वह हमेशा पार्टी के प्रति वफादार रहे हैं। अभी भी वह राज्यसभा में नेता-प्रतिपक्ष हैं। दलित पृष्ठभूमि वाले खरगे अपनी मेहनत के दम पर राजनीतिक परिदृश्य में इतनी ऊंचाई पर पहुंचे हैं। कांग्रेस पार्टी और आइएनडीआइए में इतने व्यापक अनुभव, वैचारिक प्रतिबद्धता, प्रदर्शन में निरंतरता और विश्वसनीयता वाला शायद ही कोई और दूसरा नेता हो।

संभव है कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की ओर से खरगे का नाम रखने के पीछे राहुल गांधी की दावेदारी को कमजोर करने की मंशा हो, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने गठबंधन की ओर से सबसे बेहतर दावेदार को तलाशकर सामने जरूर रखा है। खरगे की योग्यता के बावजूद नेहरू-गांधी परिवार की ओर इस पर उदासीनता उन्हीं आरोपों को पुष्ट करती है कि परिवार खुद के आगे देखने को तैयार नहीं। परिवार को लगता है कि यह राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने का अंतिम अवसर है, जिसे गंवाया नहीं जाना चाहिए। यह बात और है कि परिवार से बाहर लोग इससे भलीभांति परिचित हैं कि इस महत्वपूर्ण पद के लिए राहुल गांधी की क्षमताएं संदिग्ध हैं।

दूसरी ओर, अपना नाम सामने आने से उत्पन्न असहजता की स्थिति को खरगे ने बखूबी संभालते हुए कहा कि प्रधानमंत्री की दावेदारी बाद में तय होगी, पहले चुनाव जीतने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। खरगे के नाम पर नीतीश कुमार को भी कुछ निराशा हुई होगी। नीतीश खुद को गठबंधन के सर्वसम्मत उम्मीदवार के रूप में देख रहे थे। उनकी पार्टी जदयू के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया, ‘कौन खरगे- फरगे?’ इसी पार्टी के एक नेता नई दिल्ली में आयोजित गठबंधन की बैठक में कांग्रेस पर इस बात के लिए निशाना साधते दिखे कि वह बैठक में समोसा तक नहीं खिला सकती और चाय-बिस्कुट में ही टाल दिया गया।

कांग्रेस के नजरिये से दूसरी परेशानी तृणमूल, आप और सपा जैसी उन पार्टियों का वह प्रस्ताव है कि जो क्षेत्रीय दल जहां मजबूत हैं, वहां कांग्रेस बहुत ज्यादा सीटों की उम्मीद न करे। वे चाहते हैं कि कांग्रेस केरल, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे अपने ताकतवर राज्यों के अलावा गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल, उत्तराखंड और गोवा जैसे उन राज्यों तक ही सीमित रहे, जहां भाजपा से उसका सीधा मुकाबला है। वहीं, कांग्रेस को यह अपमानजनक लगता है। लगातार दो लोकसभा चुनावों में मानमर्दन के बाद कर्नाटक और फिर तेलंगाना में चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस फिर से अपने लिए संभावनाएं देखने लगी है। हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में जरूर उसे भाजपा के हाथों पटखनी खानी पड़ी, लेकिन यहां उसे मिला वोट प्रतिशत उसकी उम्मीदें बढ़ा रहा है। राजस्थान में उसे 39.50 प्रतिशत मत मिले, जो भाजपा से केवल दो प्रतिशत कम हैं। छत्तीसगढ़ में उसे 42.23 प्रतिशत मत मिले, जो भाजपा के मुकाबले चार प्रतिशत कम रहे।

मध्य प्रदेश में जरूर भाजपा ने आठ प्रतिशत का बड़ा अंतर दर्ज किया। फिर भी कांग्रेस 40 प्रतिशत से ऊपर वोट बटोरने में सफल रही। इस सबसे पार्टी को आशा बंधी है कि वह हिंदी-भाषी राज्यों में भी सीटें जीत सकती हैं। हालांकि लोकसभा चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं और वहां उसका सामना इन राज्यों के भाजपा नेताओं से नहीं, बल्कि नरेन्द्र मोदी से होगा। इस सबसे कांग्रेस को लगता है कि आइएनडीआइए में वही सबसे मजबूत कड़ी है और यह काफी हद तक सही भी है। इसलिए पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले प्रदर्शन में सुधार का उसका आत्मविश्वास बेमानी नहीं है।

विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस के अलावा कोई ऐसी पार्टी नहीं, जो उससे अधिक सीटें जीत सकती हो। अगर ये सभी दल नरेन्द्र मोदी के समक्ष कोई गंभीर चुनौती पेश करना चाहते हैं तो सीटों की दावेदारी और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार जैसे उलझन भरे मुद्दे समय रहते सुलझाने होंगे। इसके लिए भी उनके पास करीब एक-डेढ़ महीने का समय ही बचा है। क्या वे तब तक ऐसा कर पाएंगे?

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)