राज कुमार सिंह। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद विपक्षी एकता की इबारत नए सिरे से लिखी जा सकती है। महीनों की कवायद के बाद विपक्षी एकता 26 दलों के इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस यानी आइएनडीआइए के बैनर तले एकजुट होने तक पहुंची थी। दावे थे कि मोदी सरकार को बेदखल करने के लिए घटक दल त्याग करने में भी नहीं हिचकेंगे। संकेत था कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में तमाम घटक दलों के बड़े नेता प्रचार करते दिखेंगे, जिससे अगले लोकसभा चुनाव से पहले ही विपक्ष के पक्ष में कुछ हवा बनती दिखेगी, लेकिन हुआ एकदम उलट।

इन चुनावों के दौरान विपक्षी गठबंधन दिखना तो दूर, उसकी चर्चा तक सुनाई नहीं पड़ी। हर हाल में एकजुटता के वादे के विपरीत गठबंधन के कुछ घटक दल न केवल आपस में ताल ठोकते नजर आए, बल्कि एक-दूसरे को पटखनी देने के राजनीतिक दांवपेच आजमाने में भी उन्होंने कोई संकोच नहीं किया।

विपक्षी गठबंधन भाजपा को चुनावी टक्कर देने के लिए बनाया गया, लेकिन घटक दल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उस कांग्रेस की ही घेराबंदी करते नजर आए, जो पिछले विधानसभा चुनाव में वहां की सत्ता भाजपा से छीन चुकी थी। 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा से छत्तीसगढ़ की सत्ता आसानी से हासिल की तो मध्य प्रदेश में भी उतनी ही पुरानी सत्ता को बहुमत से दो सीटें कम रह जाने के बावजूद बदल दिया था। बहुमत से एक सीट कम कांग्रेस राजस्थान में भी रह गई थी, पर मध्य प्रदेश की तरह छोटे दलों और निर्दलियों के सहारे पांच साल में सरकार बदल जाने के रिवाज को जारी रखने में सफल हो गई थी।

देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अपने बुरे वक्त में भी जिन चंद राज्यों में अपने दम पर न सिर्फ चुनाव लड़ने में सक्षम है, बल्कि जीतने का दम भी रखती है, उनमें राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ प्रमुख हैं। ऐसे में सामान्य राजनीतिक समझ का तकाजा था कि विपक्षी गठबंधन के अन्य घटक इन राज्यों में कांग्रेस की जीत की संभावनाओं को बेहतर बनाने की कोशिश करते, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।

दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने वाली अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने उसे गुजरात और गोवा में भी जबरदस्त नुकसान पहुंचाया था। कभी आप परंपरागत राजनीति का विकल्प बनने की बात करती थी, लेकिन जब तमाम तरह के आरोपों में घिरी, तो उसने उन्हीं दलों से दोस्ती में संकोच नहीं किया, जिन्हें एक समय भ्रष्ट बताती थी। केजरीवाल की अपनी राजनीतिक रणनीति है।

विपक्षी गठबंधन में शामिल होने के लिए कांग्रेस द्वारा केंद्र सरकार के दिल्ली संबंधी अध्यादेश के विरोध की शर्त रखते समय राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में राह में रोड़ा न बनने के वादे के बावजूद आप ने बड़ी संख्या में उम्मीदवार उतारने में देर नहीं लगाई। कांग्रेस के बाद आप ही विपक्षी गठबंधन में दूसरा बड़ा दल है। इसी से उसे मोलभाव और दबाव की राजनीति करने की क्षमता मिलती है। अगर इन तीनों राज्यों में कांग्रेस निष्कंटक सत्ता पा गई, तब वह किसकी सुनेगी?

अपनी उच्च सत्ता महत्वाकांक्षाओं के लिए भी आप का विस्तार केजरीवाल की मजबूरी है और उसकी संभावनाएं उत्तर भारत में ही बेहतर दिखती हैं। पिछले चुनाव में ज्यादातर उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जाने के बावजूद आप ने इस बार मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बड़ी संख्या में उम्मीदवार उतारे। छत्तीसगढ़ में तो उसने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तक को बख्शने की राजनीतिक शिष्टता नहीं दिखाई।

संबंधों में उतार-चढ़ाव के बावजूद सपा पिछले लोकसभा चुनाव तक ऐसी शिष्टता सोनिया और राहुल गांधी के विरुद्ध दिखाती आई है। शायद अगली बार ऐसा न हो, क्योंकि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस-सपा के संबंधों में तल्खी कुछ ज्यादा ही बढ़ी। मध्य प्रदेश में पिछली बार एक सीट जीतने वाली सपा को उम्मीद थी कि गठबंधन धर्म के नाम पर कांग्रेस उसे कुछ सीटें दे देगी। अखिलेश यादव की मानें तो छह सीटों का आश्वासन भी दिया गया था, लेकिन एक भी सीट नहीं मिली। फिर जैसा कि दोस्ती के दुश्मनी में बदल जाने पर होता है, सपा ने दो-चार नहीं, 72 उम्मीदवार मध्य प्रदेश में उतार दिए। पता नहीं उन्हें कितने वोट मिलेंगे, पर जो भी मिलेंगे, वे होंगे तो भाजपा विरोधी ही। इसलिए नुकसान कांग्रेस को ही होगा।

दोस्तों के बीच जब दुश्मनी होती है, तो हिसाब चुकता करने के मौके ढ़ूंढ़े जाते हैं। चुनाव से बेहतर मौका क्या होगा? सपा ने राजस्थान में भी दर्जन भर उम्मीदवार उतारे। मध्य प्रदेश में जदयू ने भी उम्मीदवार उतारे। इसका कारण विपक्षी एकता के सूत्रधार रहे नीतीश कुमार को किनारे किए जाने से उपजी खिसियाहट माना जा रहा है।

आपस में ही इस जोर आजमाइश को दोस्ताना मुकाबला नहीं कहा जा सकता, क्योंकि केजरीवाल ने जहां इन राज्यों में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की तुलना दिल्ली से करते हुए वर्तमान ही नहीं, अतीत की सरकारों को भी कठघरे में खड़ा किया, वहीं अखिलेश यादव ने कांग्रेस को चालू और धोखेबाज तक करार दे दिया। ऐसे तल्ख रिश्तों के साथ अगले लोकसभा चुनाव में सीटों पर तालमेल आसान नहीं होगा। अगर कांग्रेस तीन में से दो राज्य भी जीत गई तो वह किसी को ज्यादा भाव नहीं देगी और अगर हार गई तो आप समेत क्षेत्रीय दल उसे काबू में करने का मौका हाथ से नहीं जाने देंगे। दोनों ही स्थितियों में विपक्ष के समीकरण बदलेंगे और शायद स्वरूप भी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)