राजकुमार सिंह: लगता है विपक्षी एकता की कवायद शुभ मुहूर्त में आरंभ नहीं हुई। बिहार में मुकेश सहनी और उपेंद्र कुशवाहा तो पहले ही पाला बदल गए थे। फिर 12 जून को बुलाई बैठक रद हो गई। इसके बाद 23 जून की तारीख तय हुई तो उससे पहले जीतन राम मांझी भी महागठबंधन को अलविदा कह गए। अब अगली बैठक 18-19 जुलाई को बेंगलुरु में होनी है, पर उससे पहले ही महाराष्ट्र में राकांपा दोफाड़ हो गई। कयास लगाए जा रहे हैं कि बिहार में असली उठापटक तो अभी होनी है। इशारा विपक्षी एकता के सूत्रधार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जदयू की ओर है।

जदयू इसे भ्रामक प्रचार बता रहा है, पर इस तर्क में ज्यादा दम नहीं कि सत्तारूढ़ दल में विभाजन आसान नहीं। पिछले साल महाराष्ट्र में जब शिवसेना दोफाड़ हुई थी, तब उद्धव ठाकरे महाविकास अघाड़ी सरकार का नेतृत्व कर रहे थे। बगावत के अगुआ एकनाथ शिंदे उस सरकार में मंत्री थे। उत्तर प्रदेश में भी विपक्षी खेमे में सेंधमारी की अटकलें हैं। इशारा जयंत चौधरी की ओर है।

ध्यान रहे कि जयंत 23 जून की पटना बैठक में शामिल नहीं हुए थे, पर उसका कारण उनका विदेश में होना बताया गया। ये अटकलें सही साबित होंगी या गलत, यह समय ही बताएगा, लेकिन स्पष्ट है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की भाजपा को चुनौती देने के लिए एकता की कवायद में जुटे विपक्ष के समक्ष अब बिखराव से बचना बड़ी चुनौती बन गई है।

सत्ता केंद्रित राजनीति में नेताओं की निष्ठा और विश्वसनीयता संभवत: सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। इसलिए अब दलबदल चौंकाता नहीं, फिर भी शिवसेना और राकांपा सरीखे दलों में विभाजन की उम्मीद शायद ही किसी को रही हो। कारण भी स्पष्ट है। बाल ठाकरे द्वारा बनाई गई शिवसेना व्यक्ति केंद्रित ऐसा दल रही है, जिसमें नेतृत्व या उसके परिवार के प्रति निष्ठा सबसे अहम कसौटी मानी जाती है। इसीलिए वोट उन्हीं के नाम पर मिलते रहे हैं।

सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए 1999 में शरद पवार द्वारा गठित राकांपा भी व्यक्ति और परिवार केंद्रित दल रही है। शरद पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले को राजनीतिक उत्तराधिकार के लिए पिछले कुछ साल से आगे बढ़ाना शुरू किया, पर उससे पहले भतीजे अजीत पवार को भी परिवारवाद के सोच से ही आगे किया। उन्हीं अजीत पवार ने सुप्रिया को आगे बढ़ता देख पार्टी में ही दोफाड़ कर भाजपा से हाथ मिला लिया और उप मुख्यमंत्री बन गए। ऐसे ही कभी बाल ठाकरे द्वारा बेटे उद्धव को राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाए जाने पर भतीजे राज ठाकरे ने शिवसेना से बगावत की थी।

यह सही है कि व्यक्ति केंद्रित क्षेत्रीय दल मुख्यत: नेता और उसके परिवार की लोकप्रियता या करिश्मे पर निर्भर रहते हैं, लेकिन इस सच को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उद्धव, बाल ठाकरे नहीं हैं। बाल ठाकरे भाजपा के साथ गठबंधन सरकारों में शिवसेना के दूसरे निष्ठावान नेताओं को मुख्यमंत्री बनाते रहे, पर स्वयं कभी सत्ता का हिस्सा नहीं बने। उद्धव का भाजपा से अलगाव ही मुख्यमंत्री पद को लेकर हुआ और इसके लिए उन्होंने उस कांग्रेस से भी हाथ मिला लिया, जिसके विरोध में बाल ठाकरे ने कभी शिवसेना बनाई थी।

शरद पवार निश्चय ही महाराष्ट्र के सबसे कद्दावर मराठा नेता हैं। वह देश के सबसे अनुभवी नेताओं में भी गिने जाते हैं, लेकिन अर्से से राज्य में राकांपा की राजनीति चलाते रहे भतीजे की संगठन पर पकड़ और सत्ता में दखल के मद्देनजर चाचा 83 साल की उम्र में अपना राजनीतिक दमखम साबित करने की चुनौती से जूझ रहे हैं। शिवसेना के शिंदे और उद्धव गुटों की तरह राकांपा के अजीत और शरद पवार गुटों में भी कानूनी और राजनीतिक वर्चस्व की जंग लंबी चलने वाली है।

शरद पवार और उद्धव ठाकरे को सहानुभूति की आस है, पर महाराष्ट्र में इस बिखराव से और बिहार में महागठबंधन में अलगाव से विपक्षी एकता की कवायद का आत्मविश्वास निश्चय ही गड़बड़ाएगा। भाजपा ने सवाल पूछना भी शुरू कर दिया है कि जो अपना दल नहीं संभाल पा रहे, वे विपक्षी एकता और देश क्या संभालेंगे?

एकता के बीच बिखराव के अलावा भी विपक्ष के लिए घटनाक्रम सकारात्मक नहीं है। पटना बैठक के बाद कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में दूरियां बढ़ती दिखीं। हालांकि अब आप ने बेंगलुरु बैठक में शामिल होने की हामी भर दी है, लेकिन कहना कठिन है कि उसे राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार होगा। कांग्रेस से तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर की दूरियां किसी से छिपी नहीं हैं। खम्मम में बड़ी रैली करने वाले राहुल गांधी ने उन पर जैसे तीखे प्रहार किए, उसके बाद उन्हें विपक्षी एकता के लिए तैयार कर पाना लगभग नामुमकिन हो जाएगा।

कांग्रेसी नेता ऐसे ही तेवर ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के प्रति दिखा रहे हैं। अधीर रंजन चौधरी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर कटाक्ष का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं। सभी गैर भाजपाई दलों को एक मंच पर लाने की कवायद के बीच एकता के पैरोकार दलों में ही बिखराव तब और भी बड़ी चुनौती है, जब भाजपा ने भी राजग के रजत जयंती वर्ष में नए-पुराने राजनीतिक मित्रों को 18 जुलाई की बैठक का न्योता भेज दिया है।

शिरोमणि अकाली दल ने बसपा से गठबंधन बरकरार रखने की बात कहते हुए भाजपा को नकारात्मक संकेत दिया है, पर राजनीति में न-न कहते हुए भी इकरार कर लेने के उदाहरण कम नहीं। जब सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ही कुनबा बढ़ाने में जुट गए हैं, तब 2024 की चुनावी जंग का नतीजा इस पर निर्भर करेगा कि राजनीतिक रण-क्षेत्र में किसके पाले में कौन-कौन खड़ा होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)