जागरण संपादकीय: हमारी पुरानी परंपरा है परोपकार, समाज सेवा भारतीयों के जीवन का हिस्सा
बालाजी कुनबा के सदस्यों की कारों पर हनुमानजी की तस्वीर वाला एक बैनर लगा होता है। जिस पर ‘बालाजी कुनबा-एक परिवार भूख के खिलाफ’ लिखा रहता है। भंडारे के लिए पैसों का जुगाड़ गांव के लोग ही करते हैं। स्पष्ट है कि परोपकार और समाज सेवा तो हम भारतीयों के जीवन का हिस्सा है। आपको अमेरिका या यूरोप में कहीं कोई भंडारा नहीं मिलेगा।
आरके सिन्हा। रतन टाटा के निधन के पश्चात उनके परोपकारी कार्यों की खूब चर्चा हो रही है। न केवल टाटा समूह, बल्कि भारत के अनेक छोटे-बड़े लाखों कारोबारी अपने स्तर पर कुछ न कुछ परोपकार से जुड़े कामों में लगे हुए मिल जाएंगे। यह कहना गलत होगा कि हमारे कारोबारियों, धनिकों आदि ने परोपकार की भावना पश्चिमी कारोबारियों से सीखी।
यह कुछ अज्ञानियों का प्रचार भर है कि बारेन बफे, बिल गेट्स आदि कारोबारी परोपकार के प्रणेता है। ऐसा होता तो जमशेदजी टाटा पिछली सदी के सबसे बड़े दानवीर के तौर पर नहीं जाने जाते। भारत में परोपकार की परंपरा प्राचीन काल से ही गहरी जड़ें जमाए हुए है। हम ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया’ में विश्वास करने वाले हैं।
आज भी आपको पहली रोटी गौ माता को.. में विश्वास करने वाले अनेक लोग मिल जाएंगे। धर्म, संस्कृति और समाज के हरेक पहलू में दान, सेवा और परोपकार का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथों में परोपकार को दान और सेवा के रूप में वर्णित किया गया है। सनातन धर्म में दान और सेवा का बहुत महत्व है।
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास में से वानप्रस्थ और संन्यास में परोपकार को ही जीवन का मुख्य लक्ष्य माना गया है। जैन धर्म में दान को अहिंसा के सिद्धांत के साथ जोड़ा गया है। बौद्ध धर्म में भी दान का खासा महत्व है, जो सभी प्राणियों के कल्याण के लिए होता है। भगवान बुद्ध ने अपने जीवनकाल में दान, सेवा और अहिंसा का मार्ग दिखाया।
गुरु नानकदेवजी और अन्य संतों ने भी परोपकार पर जोर दिया। गांधी जी ने ‘सर्वोदय’ के सिद्धांत पर बल दिया और ग्रामीणों की सेवा और विकास के लिए जीवन भर काम किया। रतन टाटा की तरह बिड़ला, अजीम प्रेमजी, नंदन नीलेकणी, शिव नादर जैसे सैकड़ों उद्योगपति परोपकार से जुड़े कार्यों के लिए हर साल हजारों करोड़ रुपया दान देते हैं। समाज सेवा हमारे कारोबारियों के डीएनए में है।
टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा की दूरदृष्टि से स्थापित इस समूह ने शुरू से ही समाज सेवा को अपने कार्यों का अभिन्न अंग बनाया, जिसे अब उनकी तीसरी पीढ़ी भी निभा रही है। जमशेदजी के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद थे। स्वामी विवेकानंद ने दीन दुखी जन के लिए सेवा को सर्वोच्च धर्म बताया। उनका मानना था कि सामाजिक सेवा ही सच्चा धर्म है।
उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जो आज भी भारत में विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक सेवाएं प्रदान करता है। शिकागो के सर्व धर्म सम्मेलन में जाने के पूर्व जब विवेकानंद भारत का भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें यह बात अखरी कि दक्षिण भारत में विज्ञान की उच्चतर शिक्षा प्रदान करने वाला कोई संस्थान नहीं है। उन्होंने विचार किया कि इस काम में जमशेदजी टाटा उपयुक्त होंगे।
उन्होंने शिकागो जाने के पूर्व उन्हें पत्र लिखा, ‘आप बिहार के जमशेदपुर से अच्छा पैसा कमा रहे हो। मेरी शुभकामना है कि और अधिक धन अर्जित करो और अधिक लोगों को रोजगार दो, लेकिन विज्ञान की उच्चतर शिक्षा से वंचित दक्षिण भारत की भी थोड़ी चिंता करो और विज्ञान की पढ़ाई और शोध का कोई बढ़िया संस्थान स्थापित करो।
आप यह कर सकते हो और विश्वास है कि ऐसा ही करोगे।’ स्वामी विवेकानंद जी का यह प्रेरक पत्र पढ़ने के बाद जमशेदजी ने बेंगलुरु में विज्ञान संस्थान शुरू किया, जो आज इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस के नाम से विख्यात है। एक फक्कड़ संन्यासी के आशीर्वाद से घनश्याम दास बिड़ला ने अपना उद्योग जमाया। उसी संन्यासी के आशीर्वाद से ‘करनी और बरनी’ का काम आज भी बिड़ला समूह कर रहा है।
यह अपने धर्मार्थ कार्यों के माध्यम से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सकारात्मक प्रभाव डालता है, जो देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। मध्ययुगीन भारत में राजाओं और धनिकों द्वारा अनेक धर्मार्थ संस्थानों की स्थापना की गई, जो स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और गरीबों की सहायता के लिए समर्पित थे।
आपको गांव, कस्बे, शहर में गैर-सरकारी प्रयासों से चल रहे प्याऊ, स्कूल, कालेज, क्लीनिक और धर्मशालाएं आदि मिल जाते हैं। हम इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि कोविड महामारी के दौरान आम और खास व्यक्तियों ने किस तरह खुलकर दान दिया और लोगों की मदद की।
अभी कुछ दिन पहले शारदीय नवरात्र संपन्न हुए।
इस दौरान देश के तमाम शहरों में भंडारे चलते रहे। भंडारों में समाजवादी व्यवस्था वास्तव में बहुत प्रभावशाली होती है। भंडारों में प्रसाद बंटता है। देश की राजधानी दिल्ली भंडारों की भी राजधानी है। कहते हैं कि कैसेट किंग गुलशन कुमार ने भंडारा संस्कृति का पुनर्जागरण किया। उन्होंने वैष्णो देवी में भंडारे का आयोजन शुरू किया था।
भंडारा अपने आप में जात-पात और वर्ग की दीवारों को तोड़ता है। भंडारों की एक खास बात यह भी है कि इनसे प्रसाद हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई सब ग्रहण करते हैं। दक्षिण दिल्ली के पिलंजी गांव में कुछ युवकों ने कुछ साल पहले ‘बालाजी कुनबा’ नाम से एक संगठन स्थापित किया। इसका मकसद है भूखों की भूख मिटाना।
ये हर रोज एम्स, सफदरजंग अस्पताल, राममनोहर लोहिया अस्पताल के आगे तीमारदारों को भरपेट भोजन कराते हैं। बालाजी कुनबा के सदस्यों की कारों पर हनुमानजी की तस्वीर वाला एक बैनर लगा होता है। जिस पर ‘बालाजी कुनबा-एक परिवार भूख के खिलाफ’ लिखा रहता है। भंडारे के लिए पैसों का जुगाड़ गांव के लोग ही करते हैं। देश भर में ऐसे न जाने कितने संगठन हैं। स्पष्ट है कि परोपकार और समाज सेवा तो हम भारतीयों के जीवन का हिस्सा है। आपको अमेरिका या यूरोप में कहीं कोई भंडारा नहीं मिलेगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं पूर्व सांसद हैं)