विवेक काटजू : पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआइ) के प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान पर गुरुवार को वजीराबाद में हमला हो गया। हमले के समय इमरान उस कंटेनर में थे, जो इस्लामाबाद की ओर बढ़ रहे उनके लांग मार्च के काफिले का हिस्सा है। इमरान के हजारों समर्थक भी उनके साथ चल रहे हैं। गोली उनके पैर में लगी थी। अब उनकी हालत स्थिर बताई जा रही है। पीटीआइ के कुछ और नेता भी घायल हुए हैं। एक कथित हमलावर को गिरफ्तार कर लिया गया है। पीटीआइ महासचिव असद उमर के अनुसार इमरान ने हमले के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ, आंतरिक मामलों के मंत्री राणा सनाउल्ला और मेजर जनरल फैसल नसीर को जिम्मेदार बताया है, जिनके बारे में उनका मानना है कि इमरान की हत्या के लिए आइएसआइ से उनकी मिलीभगत है।

पाकिस्तान अब एक भारी राजनीतिक संकट में फंस गया है। पीटीआइ का सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा और उनके समर्थक जनरलों के साथ ही पीपुल्स डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) गठबंधन सरकार से तकरार चरम पर पहुंच गई है। देश अब ज्यादा गहरी अनिश्चितता में घिर गया है। पीटीआइ समर्थकों ने देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं। यहां तक कि उन्होंने पेशावर में सेना कार्प कमांडर के आवास के बाहर भी प्रदर्शन किया, जो खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत में सेना के सबसे वरिष्ठ जनरल हैं। यह कोई सामान्य घटना नहीं है।

अब बड़ा सवाल यही है कि बाजवा और पाकिस्तान सरकार इस संकट से कैसे निपटते हैं। इमरान जल्द चुनाव की मांग पर अड़े हुए हैं। उनका लक्ष्य चुनाव जीतना है और वर्तमान परिस्थितियों में उनकी जीत के आसार दिखते भी हैं। उनकी लोकप्रियता बढ़ी है और हमले के बाद उन्हें सहानुभूति का सहारा भी मिलेगा। इमरान बाजवा के उत्तराधिकारी की नियुक्ति की भी मांग कर रहे हैं। बाजवा ने कुछ दिन पहले ही दोहराया था कि 29 नवंबर को अपने कार्यकाल समाप्ति के बाद वह सेवानिवृत्त हो जाएंगे।

सरकार और बाजवा इमरान की मांगों को नकारने की हरसंभव कोशिश करेंगे। यदि ऐसा होता है तो बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन शुरू हो सकते हैं। ऐसे प्रदर्शनों से न केवल राजनीतिक दलों में एक दूसरे के विरुद्ध तलवारें खिंचेंगी, बल्कि सेना की दुविधा भी बढ़ेगी, जो खुले तौर पर कोई राजनीतिक रुख लेने से बचना चाहेगी। बाजवा के नेतृत्व में सेना खुद के ‘अराजनीतिक’ होने का दावा करती आई है। अगर व्यापक हिंसा भड़कती है तो हालात संभालने के लिए सरकार को सेना बुलानी पड़ेगी। कुछ इलाकों में स्थिति काबू से बाहर हुई तो मार्शल ला के आसार भी नकारे नहीं जा सकते। न तो सरकार और न ही सेना चाहेगी कि स्थिति उस स्तर तक बिगड़ जाए।

28 अक्टूबर को जब इमरान खान ने लाहौर से लांग मार्च शुरू किया था तो पाकिस्तान में एक अप्रत्याशित प्रेस कांफ्रेंस हुई। इसे पाकिस्तानी सेना की जनसंपर्क इकाई आइएसपीआर के महानिदेशक बाबर इफ्तिखार और आइएसआइ के मुखिया नदीम अंजुम ने आयोजित किया। अंजुम ने कहा कि वह इसलिए मीडिया में आए, क्योंकि पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार अरशद शरीफ की केन्या में हत्या के मामले में परोक्ष रूप से उनकी एजेंसी का नाम लिया जा रहा है। अंजुम ने संकेत दिए कि इमरान ने सेना प्रमुख को कार्यकाल विस्तार देने की बात कही थी, यदि वह उन्हें विपक्षी दलों के खिलाफ मदद पहुंचाते। बाजवा ने यह कहते हुए इस पेशकश को अस्वीकार कर दिया कि सेना राजनीति नहीं करेगी। ऐसे आरोपों ने सेना और इमरान के बीच कड़वाहट और बढ़ा दी।

इस समय यह सवाल उभर रहा है कि इमरान पर हमले के बाद उथलपुथल की स्थिति में क्या प्रधानमंत्री सेना प्रमुख बाजवा से कुछ समय और पद पर बने रहने के लिए कहेंगे? जो भी हो, यह तय है कि शीर्ष जनरल मौजूदा राजनीतिक हालात पर अपने बीच भी परामर्श करेंगे। वे सुनिश्चित करना चाहेंगे कि लोगों का सेना से विश्वास न उठे। सैन्य नेतृत्व इस कारण असहज स्थिति में है, क्योंकि खान ने केवल नेताओं पर ही नहीं, बल्कि मेजर-जनरल रैंक के एक महत्वपूर्ण अधिकारी पर भी आरोप लगाए हैं। ऐसी स्थिति में बाजवा के कुछ समय और पद पर बने रहने की संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता। वह और उनके समर्थक जनरल कतई नहीं चाहेंगे कि अगले सैन्य प्रमुख की नियुक्ति में इमरान की कोई भूमिका हो। चुनावों को टालकर ही इसे रोका जा सकता है। वहीं शहबाज भी सेना प्रमुख की नियुक्ति का विशेषाधिकार नहीं छोड़ना चाहेंगे।

किसी भी पाकिस्तानी सेना प्रमुख के के दो ही एजेंडे होते हैं। सेना के हितों की रक्षा और दूसरा अपने आतंकियों के साथ ही पाकिस्तान के उस नजरिये को संरक्षित रखना, जिसकी जड़ें द्विराष्ट्र सिद्धांत से जुड़ी हैं। सेना भले दावा करे कि वह स्वयं को संवैधानिक भूमिका में ही सीमित रखेगी, पर वह अपनी राजनीतिक पकड़ नहीं छोड़ना चाहेगी। वह रणनीतिक और सुरक्षा नीतियों पर नेताओं को अंतिम निर्णय करने की गुंजाइश नहीं देगी।

पाकिस्तान के लिए यह बड़ी विकट स्थिति है, क्योंकि इस राजनीतिक संकट ने तब दस्तक दी है, जब उसकी अर्थव्यवस्था नाजुक दौर से गुजर रही है। आइएमएफ और अन्य दाताओं की मदद से तात्कालिक स्थिति संभली है, मगर शरीफ सरकार को इस मदद की बड़ी राजनीतिक कीमत अदा करनी पड़ रही है, क्योंकि उसे बिजली और पेट्रोलियम उत्पादों की दरें बढ़ानी पड़ी हैं। इसमें इमरान को राजनीतिक लाभ की स्थिति दिख रही है, जिसका स्वाद उन्होंने उपचुनाव में जीत से चख भी लिया है। लोगों ने बढ़ी हुई कीमतों के लिए मौजूदा सरकार को दोष देना शुरू कर दिया है, जबकि ऐसे हालात इमरान की ही कुछ नीतियों के कारण बने थे। खुद पर हमले के बावजूद इमरान भलीभांति जानते हैं कि यदि उनका राजनीतिक अभियान निस्तेज हुआ और वह सरकार को जल्द चुनाव के लिए मजबूर नहीं कर पाए तो पीडीएम को अपनी गंवाई जमीन हासिल करने का समय मिल जाएगा। इमरान ऐसा नहीं चाहेंगे। ऐसे में अगले कुछ दिन अस्थिर रहने वाले हैं और पाकिस्तान का भविष्य कुछ अधर में लटका दिखाई देता है।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)