जागरण संपादकीय: निरंतर टकराव वाली राजनीति, सत्ता पक्ष और विपक्ष है कि मानता नहीं
लोकसभा चुनाव संपन्न हुए महीनों गुजर जाने के बाद भी विपक्षी नेताओं के हाथ से संविधान की वह प्रति छूट नहीं रही जिसे लहराकर उन्होंने चुनाव में फर्जी नैरेटिव बनाया था कि भाजपा संविधान बदल देगी। विपक्षी नेताओं द्वारा जाति आधारित जनगणना का नारा भी बुलंद किया जा रहा है। कुल मिलाकर राजनीतिक दल चुनाव से आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं है।
आशुतोष झा। लोकसभा चुनाव खत्म हुए दो महीने बीत चुके हैं, लेकिन राजनीतिक परिदृश्य पर अभी तक वही माहौल बरकरार है। चुनाव के बाद बहुमत की सरकार बन चुकी है। दो संसदीय सत्र निपट चुके हैं। नई सरकार का पहला बजट भी पारित हो गया, लेकिन सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप की शब्दावली बिल्कुल वैसी ही है, जैसी चुनाव के समय इस्तेमाल की जा रही थी। सत्तापक्ष का आरोप है कि विपक्ष देश में अराजकता फैलाना चाहता है। कुछ विपक्षी नेताओं ने बांग्लादेश के मौजूदा घटनाक्रम की भारत में पुनरावृत्ति की भी बात की।
लोकसभा चुनाव संपन्न हुए महीनों गुजर जाने के बाद भी विपक्षी नेताओं के हाथ से संविधान की वह प्रति छूट नहीं रही, जिसे लहराकर उन्होंने चुनाव में फर्जी नैरेटिव बनाया था कि भाजपा संविधान बदल देगी। विपक्षी नेताओं द्वारा जाति आधारित जनगणना का नारा भी बुलंद किया जा रहा है। कुल मिलाकर, राजनीतिक दल चुनाव से आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं है। मानसून सत्र में यह स्पष्ट दिखा, जो एक खतरनाक चलन है। खतरनाक इसलिए, क्योंकि जनमत ने अगले पांच साल के लिए राजग को काम करने के लिए चुना है और विपक्ष को मजबूती से अपनी सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए। फिलहाल विपक्ष उस भूमिका का निर्वाह करने के बजाय अभी तक चुनावी मुद्रा में है।
वैसे तो मौजूदा राजनीतिक माहौल के लिए चुनावी राजनीति भी जिम्मेदार है, क्योंकि व्यावहारिक रूप से चुनावी मंच ऐसा होता है जहां आजादी का दुरुपयोग अधिक हो रहा है। वहां नेता आरोप लगाकर चलते बन रहे हैं। वहां किसी से कोई सवाल नहीं पूछा जा सकता। इसके उलट संसद जिम्मेदारी और जवाबदेही का मंच होता है। संसद में वही टिकता है, जो तथ्यात्मक और वैचारिक स्तर पर मजबूत हो। सरकार के पास तो अपना एजेंडा होता है, लेकिन विपक्ष की यहां कड़ी परीक्षा होती है कि वह तर्कों और तथ्यों से कितना सबल है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब संसद में संख्याबल के मोर्चे पर कमजोर होने के बावजूद विपक्ष सरकार को झुकने के लिए मजबूर करता रहा है, लेकिन अब दृश्य बदलने लगे हैं।
सरकार गठन के बाद से दो महीने के भीतर जो दो सत्र हुए, उन्हें लेकर कहा जा सकता है कि तीन बड़े अवसर थे जहां विपक्ष अपना लोहा मनवा सकता था। पहला अवसर था-राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा का, दूसरा अवसर था बजट पर चर्चा का और तीसरा अवसर वक्फ संशोधन विधेयक। यह वह वक्त था जब नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी समेत विपक्ष के दूसरे बड़े चेहरे अभिभाषण और बजट के लिखित दस्तावेज सामने रखकर यह गिनाते कि चुनावी मंच से उन्होंने जो आरोप लगाए थे, वे पुष्ट हो रहे हैं या नहीं। अगर ऐसा संभव नहीं था तो आंकड़ों के साथ बताते कि सरकार ने अब तक विकास का जो दावा किया है, वह कितना सही है या गलत और वे एक रोडमैप भी दिखाते। बजट को तो कांग्रेस अपने मेनिफेस्टो की कापी बता रही थी। वह यह भी बताती कि इसके लिए राजस्व कैसे ज्यादा अच्छे तरीके से अर्जित किया जा सकता है। राहुल गांधी यह भी बताते कि एमएसपी की संपूर्ण गारंटी के लिए उनके पास कैसा रोडमैप है और संभव था तो सरकार को इस मोर्चे पर मजबूर करते। दरअसल इसके जरिये राहुल यह साबित कर सकते थे कि वह अपनी क्षमता के आधार पर सरकार में आने के लिए तैयार हो चुके हैं न कि सिर्फ परिवार के आधार पर जैसा कि भाजपा की ओर से आरोप लगता है। वास्तविकता में उन्होंने किया क्या-प्रधानमंत्री समेत कई उद्योगपतियों के खिलाफ वही चुनावी आरोप मढ़े, जिन्हें जनता ने फिर से खारिज कर दिया।
यह एक सच्चाई है कि समूचा विपक्ष मिलकर उतनी सीटें नहीं जीत पाया जितनी अकेले भाजपा ने जीतीं। प्रधानमंत्री ने चुनाव में जाने से पहले ‘एक अकेला सब पर भारी’ की जो बात कही थी, वह एक हद तक सच हो गई। व्यक्तिगत आरोप के मामले में प्रत्यारोप होगा ही, लेकिन प्रधानमंत्री ने आगे का सोच भी रखा। बजट सत्र की चर्चा अभिभाषण की चर्चा से आगे नहीं बढ़ पाई। जिस जनता ने वोट दिया है, वह जानना चाहती है कि किसी मुद्दे पर उसके नेता का सोच क्या है। वक्फ संशोधन विधेयक पेश होने के दौरान विपक्ष के कई नेताओं ने विरोध किया। यह वह अवसर था, जब खासकर कांग्रेस को आगे बढ़कर मानना चाहिए था कि 2013 में जो हुआ, उसमें सुधार की जरूरत आ गई है। राहुल गांधी तो पहले भी मनमोहन सिंह कैबिनेट के निर्णय को फाड़कर यह बता चुके थे उनकी सरकार ने गलत फैसला लिया था। अपनी सरकार की पुरानी गलती को मानकर राहुल अपनी छवि को विस्तार दे सकते थे। यह सकारात्मक भूमिका होती। अच्छी बात यह रही कि बहुत लंबे समय बाद बीते सत्र में कोई सदन पूरे दिन के लिए स्थगित नहीं रहा। हालांकि सदन की कार्यवाही केवल घंटो में नहीं, बल्कि गुणवत्ता में भी आंकनी चाहिए।
अफसोस की बात है कि सदन के अंदर परिपक्वता कम होती जा रही है। जिस तरह दोनों सदनों में सीधे तौर पर आसन पर सवाल खड़े किए गए, वह पहले कभी नहीं हुआ। सदन अखाड़ा बन गया है। सदन चला तो सही, लेकिन बांग्लादेश की अराजक स्थिति से भारत को जोड़ने के कुछ विपक्षी नेताओं के बयान, विनेश फोगाट के तकनीकी आधार पर अयोग्य ठहराए जाने के मुद्दे को राजनीतिक मोहरे की तरह उपयोग करने की कोशिश यही सोचने को मजबूर करती है कि विपक्षी दल अभी भी यह मानने को तैयार नहीं कि बहुमत के गठबंधन की सरकार बन चुकी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्हें अभी भी ऐसा लग रहा है कि सरकार के अंदर कुछ ऐसा घटित होगा कि उन्हें सरकार गठन का अवसर मिलेगा। इस तरह की राजनीति का असर इंटरनेट मीडिया पर भी दिख रहा है, जहां बड़ी संख्या में युवाओं की हिस्सेदारी है। वहां भी एक विषाक्त माहौल तैयार हो रहा है।
विपक्ष को इसका गुस्सा है कि सत्तापक्ष यह क्यों नहीं मान रहा है कि वह चुनाव हार गया और सत्तापक्ष उनके आरोपों पर मुस्कुराने के बजाय हमलावर क्यों हो रहा है? दूसरी तरफ सत्तापक्ष यह तो देख रहा है कि विपक्ष मजबूत होकर आया है, लेकिन इसे स्वीकारने को तैयार नहीं। जो भी हो, लगातार टकराव वाली राजनीति देश के लिए ठीक नहीं।
(लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)