अपने आचरण से निराश करते जनप्रतिनिधि, क्या संसद के विशेष सत्र में प्रस्तुत होगा कोई अनुकरणीय उदाहरण?
वाजपेयी जब जनता सरकार में विदेश मंत्री बने थे तब पाकिस्तान में अनेक आशंकाएं उभरी थीं लेकिन कुछ ही महीनों में वे निर्मूल सिद्ध हुईं। वाजपेयी वहां के लोगों के दिल में उतर गए। उस समय भी उन्होंने वही किया जिसकी पाकिस्तान में किसी को अपेक्षा नहीं थी। प्रधानमंत्री रहते हुए भी उन्होंने दोस्ती का हाथ पाकिस्तान की ओर बढ़ाया।
जगमोहन सिंह राजपूत: पिछले पांच दशकों में मुझे विज्ञान, तकनीकी, संचार तकनीकी और शिक्षा जैसे विषयों पर गहन अध्ययन और शोध तथा शिक्षण-प्रशिक्षण करने वाले देश-विदेश के वरिष्ठ व्यक्तियों से संवाद स्थापित करने के अवसर मिलते रहे हैं। इस दौरान विदेश में मुझे कई ऐसे लोग मिले जिनमें से अधिकांश की भारत में विशेष रुचि रही। वे यहां की संस्कृति की जानकारी लेना चाहते थे। अधिकांश की गीता में रुचि देखी गई।
संवाद परंपरा की समसामयिक उपयोगिता पर ही नहीं, अपितु उसकी बढ़ती हुई वैश्विक आवश्यकता पर भी लोगों ने प्रश्न पूछे और अपने सकारात्मक विचार रखे। विभिन्न पंथों के लोगों के हजारों साल से साथ रह सकने और विविधता की व्यावहारिक स्वीकार्यता को सराहा गया और सभी की उसके संबंध में बढ़ती जिज्ञासा का भी अनुभव मैंने किया। अधिकांश अवसरों पर चर्चा के पश्चात विद्वानों ने प्राप्त जानकारी को सराहनीय माना।
लगभग हर अवसर पर भारत में बिना किसी व्यवधान के स्वतंत्रता के पश्चात लोकतंत्र की स्थापना, उसका अपनी जड़ें जमा लेना और उसकी निरंतरता विदेश में लोगों को प्रभावित करती रही है। यह सब अकारण नहीं रहा। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार का एक मत की पराजय के पश्चात सत्ता से अत्यंत शालीन ढंग से विदा हो जाना, ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग के मतदान पर भी कोई आपत्ति न करना, उच्चतम न्यायालय तक न जाना लोकतंत्र के प्रति अगाध आस्था और समर्पण का अद्भुत उदाहरण था।
भारत के लोकतंत्र की इस अनोखी घटना के संबंध में विदेश में संभवतः भारत से अधिक रुचि ली गई। पाकिस्तान में तो शायद इसे सबसे बड़ा आश्चर्य माना गया। वहां के लोगों की अनेक जिज्ञासाओं का मैंने समाधान किया। मैं यह कह सकता हूं कि पाकिस्तानी विद्वत वर्ग में भारत तथा यहां के सफल लोकतंत्र पर राजनीतिक चर्चा में वाजपेयी के व्यक्तित्व का अक्सर जिक्र होता है। यह जानकारी मुझे वहां के लोगों से ही मिली।
वाजपेयी जब जनता सरकार में विदेश मंत्री बने थे तब पाकिस्तान में अनेक आशंकाएं उभरी थीं, लेकिन कुछ ही महीनों में वे निर्मूल सिद्ध हुईं। वाजपेयी वहां के लोगों के दिल में उतर गए। उस समय भी उन्होंने वही किया, जिसकी पाकिस्तान में किसी को अपेक्षा नहीं थी। प्रधानमंत्री रहते हुए भी उन्होंने दोस्ती का हाथ पाकिस्तान की ओर बढ़ाया। लाहौर बस यात्रा के बाद कारगिल आक्रमण के विश्वासघात का बीज बोने वाले परवेज मुशर्रफ को 2002 में भारत में बुलाना और सम्मानपूर्ण तरह से चर्चा करना कोई बड़े दिल वाला भारतीय ही कर सकता था।
उसी कड़ी में नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के यहां एकाएक लाहौर चले जाना राजनीतिक समझ और भाईचारे का अभूतपूर्व उदाहरण ही माना जाएगा। चिंताजनक स्थिति यह है कि आज भारत में ही संसद के प्रति सम्मान, संसद में शालीन आचरण और पक्ष-विपक्ष के बीच स्वस्थ परंपराएं अब धूमिल हो रही हैं। संसद की कार्यवाही तो इसी ह्रास का संकेत करती है। देखना है कि संसद के आगामी विशेष सत्र में संविधान सभा से शुरू होने वाली 75 साल की संसदीय यात्रा पर चर्चा के समय कोई अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत हो पाता है या नहीं?
मैंने अधिकारियों के लिए निर्धारित गैलरी में बैठकर संसद की कार्यवाही देखी है। तब और अब के बीच अंतर देखकर बहुत कष्ट होता है। यह देखकर सोचता हूं कि संसद में सांसदों के व्यवहार का नई पीढ़ी पर क्या प्रभाव पड़ रहा होगा? क्या यही वह लोकतंत्र है जिसके संबंध में उन्हें कक्षाओं में पढ़ाया जाता है? कहां गई वह प्रतिष्ठित संवाद परंपरा और उसका गुणगान। क्या देश के कानून बनाने वाले ऐसे होते हैं जो अध्यक्ष के आसन के समक्ष मेज पर चढ़कर उनके ऊपर कागज फाड़कर फेंकें? फिर उस युवा को गलत कैसे कहा जाएगा, जो अपने कुलपति या प्राचार्य के कक्ष में घुसकर तोड़-फोड़ करता है।
आमजन को आश्चर्य तब होता है जब सदन में पीठासीन अधिकारी का निरंतर अपमान करने वाले सांसदों को निलंबित किया जाता है और इस निलंबन के विरोध में संसद परिसर में धरना दिया जाता है। यह सब भी अक्सर गांधीजी की प्रतिमा के आसपास होता है। क्या बापू उनके अमर्यादित आचरण को सही ठहरा देते? ऐसे अवसरों पर यह स्पष्ट हो जाता है कि या तो गांधीजी को समझना जरूरी नहीं माना गया या उस स्थान का दुरुपयोग करते समय भी उन्हें भुला दिया जाता है।
दिल्ली और पंजाब के सरकारी भवनों से तो गांधीजी का चित्र ही हटा दिया गया है और ऐसा करने वाले उन्हीं के नाम की दुहाई देते हैं कि देखिए हमारे साथ घोर अन्याय किया जा रहा है। संस्कार रहित आचरण के कष्टदायी उदाहरण उन प्रतिनिधियों से आते हैं जिनसे जनता सदाचरण, समर्पण और निःस्वार्थ जनसेवा की आशा करती है। अभी हाल में हरियाणा में एक कांग्रेस नेता ने भाजपा को वोट देना वालों को राक्षस तक कह दिया।
यह आशा रखने का अधिकार तो अभी भी है कि सम्मानित संस्थाएं गांधीजी के प्रतीक का दुरुपयोग करने और उनके सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाने वालों के प्रतिकार में विचार रखेंगी। हालांकि, यह उम्मीद भी धराशायी हो जाती है, क्योंकि इस स्तर पर भी आक्रोश और विद्वेष चरम पर दिखता है। उसके पीछे पूर्वाग्रह, वैचारिक बंधन और अपने खेमे का सत्ता में न होना ही मुख्य कारक दिखते हैं।
नई दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका ‘गांधी मार्ग’ का मैं कई दशकों से नियमित पाठक रहा हूं। इस पत्रिका में गांधीजी और उनके समकालीन मनीषियों का लिखा पढ़ता रहता हूं, लेकिन लगता है कि व्यवस्था-विरोध ने इस संस्थान को असीम सीमा तक आक्रोशित बना दिया है। जुलाई-अगस्त अंक में उसमें एक पत्रकार के हवाले से लिखा गया है, ‘आपको इस राजनीति ने हैवान बना दिया है।
गोदी मीडिया ने अपने दर्शकों-पाठकों को आदमखोर बना दिया है, जनता को भीड़ में बदल दिया है।’ क्या यह गांधी की भाषा है? मैं इस विचार से सहमत हूं कि संस्थानों का तब पराभव होना आरंभ हो जाता है जब वे अपने से इतर विचार वालों के साथ चर्चा का कोई प्रयास नहीं करते और स्वयं तक सीमित हो जाते हैं। ऐसे लोगों और संस्थाओं का गांधीजी से कोई सरोकार नहीं हो सकता।
(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और पंथक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं)