संवैधानिक संस्थाओं की साख का सवाल, संसद को सुचारू रूप से चलाने का मूल दायित्व सत्तापक्ष का
कई मामलों में राज्यपाल राज्य की चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करते हुए भी नजर आए हैं। ऐसे में हैरानी होती है कि राज्यपाल जैसी संस्था को आखिर कौन बदनाम कर रहा है? केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार द्वारा चुनाव आयोग जैसी संस्था का भी अवमूल्यन किया जा रहा है। हाल के समय में चुनाव आयोग अपने संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन की पूर्ति करता नहीं दिखा।
कपिल सिब्बल। बीते दिनों नोएडा में एक दीक्षा समारोह के दौरान राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने एक महत्वपूर्ण मुद्दा छेड़ा। इसकी पड़ताल आवश्यक है। उनका संकेत था कि विपक्षी दलों द्वारा संवैधानिक संस्थानों की प्रतिष्ठा धूमिल की जा रही है। उनका इशारा तृणमूल कांग्रेस सांसद कल्याण बनर्जी की ओर था, जिन्होंने संसद परिसर में उनकी नकल उतारी थी। किसी की नकल उतारने में आखिर क्या हर्ज है?
इस सवाल पर मंथन करने से पहले इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि देश में संवैधानिक संस्थानों को कौन नुकसान पहुंचा रहा है? हाल के दौर में राज्यपालों से जुड़े कई मामले चर्चित रहे हैं। राज्यपाल केंद्र सरकार और राज्य के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। संविधान के अनुसार राज्यपाल राज्य की विधानसभा का अंग होता है। जब राज्य की विधानसभा कोई विधेयक पारित कर उसे राज्यपाल के समक्ष विचार के लिए भेजती है, तब राज्यपाल के पास तीन विकल्प होते हैं।
पहला यह कि वह विधेयक को मंजूरी प्रदान करें, ताकि संबंधित विधेयक कानून बन जाए। दूसरा यह कि यदि कानूनी स्तर पर उन्हें कोई खामी नजर आए तो वह उसे राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज सकते हैं। तीसरा विकल्प यह होता है कि वह अपनी टिप्पणी के साथ विधेयक वापस विधानसभा को भेज दें। यदि विधानसभा उसे पुन: पारित कर उन्हें दोबारा भेज दे, तब राज्यपाल के पास उसे मंजूरी देने के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता।
समय-समय पर यह देखने में आया है कि विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में राज्यपाल महीनों तक विधेयकों को लटकाए रखते हैं। वे संवैधानिक मूल्यों से इतर केंद्र के ऐसे दूत के रूप में काम करते हैं, जिसका परिणाम अक्सर राज्य के हितों के विपरीत निकलता है। पिछले कुछ समय में तमिलनाडु, बंगाल, केरल, पंजाब के राज्यपालों और दिल्ली के उपराज्यपाल की कार्यप्रणाली से यही प्रकट होता है। ऐसा उन्हीं राज्यों में दिखता है, जहां विपक्षी दल सत्ता में हैं।
कई मामलों में राज्यपाल राज्य की चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करते हुए भी नजर आए हैं। ऐसे में हैरानी होती है कि राज्यपाल जैसी संस्था को आखिर कौन बदनाम कर रहा है? केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार द्वारा चुनाव आयोग जैसी संस्था का भी अवमूल्यन किया जा रहा है। हाल के समय में चुनाव आयोग अपने संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन की पूर्ति करता नहीं दिखा।
चुनावी प्रक्रिया के दौरान सत्तारूढ़ दल के किसी नेता पर शायद ही कोई कार्रवाई की जाती हो, जबकि विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता। कम से कम 2014 के बाद यह सिलसिला और तेज हुआ है। ऐसे में विचार किया जाए कि आखिर संस्थानों की प्रतिष्ठा को कौन धूमिल कर रहा है? संवैधानिक संस्थाओं से इतर अन्य संस्थानों की आभा भी कमजोर पड़ रही है। विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से लेकर जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही। राष्ट्रीय जांच एजेंसियां विपक्षी नेताओं को तो चुन-चुनकर निशाना बनाने में लगी हैं, जबकि पाला बदलकर भाजपा का दामन थामने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई पर विराम लगा दिया जाता है। इन संस्थानों की साख को तार-तार कौन कर रहा है?
जहां तक उपराष्ट्रपति द्वारा मिमिक्री का मुद्दा उठाने की बात है तो मैं यह स्मरण करा सकता हूं कि कई बार भाजपा नेता ही ऐसा कर चुके हैं। यहां तक कि उनके द्वारा लोकसभा में ऐसा किया गया। मुझे यह भी याद है कि कई बार दूसरों ने लोकसभा अध्यक्ष की भी नकल उतारी। मैं मिमिक्री के मामले के गुण-दोष की चर्चा नहीं करना चाहता, लेकिन इसमें जातीय अस्मिता का कोण जोड़ने का कोई तुक नहीं था, जिसका प्रयास सभापति महोदय ने किया। इसे जातीय दृष्टि से तूल देना नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है।
सभापति महोदय एक जाने-माने अधिवक्ता भी हैं और मैं पूरे सम्मान के साथ उन्हें यह भी स्मरण कराना चाहता हूं कि संसद के पीठासीन अधिकारियों को निष्पक्षता का परिचय देना चाहिए। सरकारिया आयोग ने तो यहां तक सुझाया था कि ऐसे पदों पर गैर-राजनीतिक व्यक्तियों की नियुक्ति होनी चाहिए। इस संस्था के स्तर पर भी 2014 के बाद से पराभव की स्थिति दिखी है। विपक्ष की आवाज को दबाया जा रहा है। उन्हें स्कूली छात्रों की तरह डांटा-फटकारा जा रहा है। ऐसे दर्शाया जा रहा है कि संसद को सुचारु रूप से चलाना केवल विपक्ष की जिम्मेदारी है, जबकि इसका मूल दायित्व तो सत्तापक्ष का है।
संसद के शीतकालीन सत्र में लोकसभा के 100 और राज्यसभा के 46 सदस्यों का जिस प्रकार निलंबन किया गया, वह भारत के संसदीय इतिहास में एक रिकार्ड है। निलंबन की कड़ियां संसद की सुरक्षा में सेंध के सवाल से जुड़ी हुई हैं। संसद की सुरक्षा में सेंध हमारे जनप्रतिनिधियों के जीवन के लिए खतरा तक हो सकती थी। मेरा मानना है कि यह विपक्ष का दायित्व था कि वह इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या गृहमंत्री अमित शाह के जवाब की मांग करे। ऐसा न करना संसद सदस्य के रूप में उनके दायित्व से विमुख होना होता।
वास्तव में प्रधानमंत्री या गृहमंत्री को स्वैच्छिक रूप से इस मामले में आकर बयान देना चाहिए था। विपक्ष को तो इसके लिए मांग करने की आवश्यकता ही नहीं पड़नी चाहिए थी। ऐसा न करके उलटे विपक्ष के सवालों की इस प्रकार अनदेखी कर सरकार ने यही दर्शाया कि संसद के प्रति उसके सम्मान का स्तर क्या है। सरकार के ऐसे रवैये से ही विपक्षी दलों को प्रदर्शन के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी परिणति अंतत: उनके निलंबन के रूप में हुई। ऐसी स्थिति में मैं फिर से पूछना चाहूंगा कि संस्थानो की छवि धूमिल करने का जिम्मेदार कौन है?
अब चूंकि हम इन सभी बातों को पीछे छोड़कर नए वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं तो न केवल विपक्ष, बल्कि सरकार में बैठे लोगों को भी यह विचार करना चाहिए कि नववर्ष में हमें संसद को उन मूल्यों के अनुरूप संचालित करने के लिए प्रयास करना होगा, जिनके आधार पर इस संस्थान की स्थापना हुई थी। मुझे विश्वास है कि राज्यसभा के सभापति महोदय अपनी भूमिका और उत्तरदायित्व से भलीभांति अवगत होने के साथ ही उनसे भी परिचित होंगे, जो मौजूदा गतिरोध और गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदार हैं।
(लेखक राज्यसभा सदस्य एवं वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)