केसी त्यागी। सरसों की बोआई का समय लगभग समाप्त हो चला है। आमतौर पर 15-25 नवंबर तक इस फसल की सीमा रेखा मानी जाती है। ऐसे में जीएम सरसों की किस्म डीएमएच-11 के फील्ड ट्रायल के टलने की प्रबल संभावना है। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई लंबित होने के कारण इस पर अभी कोई सकारात्मक संदेश प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं। पर्यावरण और हरित संगठनों के अलावा विभिन्न किसान संगठनों ने भी इसका विरोध करना शुरू कर दिया है। सबसे ताजा विरोध के स्वर आरएसएस के अनुषंगी संगठन ‘भारतीय किसान संघ’ की ओर से सुनने में आए हैं।

वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, जीएम प्रक्रिया के अंतर्गत पौधे में कीटनाशक गुण सम्मिलित हो जाते हैं, जिससे फसलों की गुणवत्ता का प्रभावित होना स्वाभाविक है। प्रसिद्ध कृषि विज्ञानी एमएस स्वामीनाथन जीएम फसलों के प्रयोग से पहले भूमि परीक्षण अनिवार्य करने की सिफारिश कर चुके हैं। नीति आयोग और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जीएम फसलों से जुड़ी टेक्निकल कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक करने के बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है।

रिपोर्ट में दावा किया गया था कि इससे जैव विविधता एवं पर्यावरण को किसी प्रकार का खतरा नहीं है। केंद्र सरकार जीएम फसलों के उपयोग की पक्षधर है। नीति आयोग भी जीएम फसलों के इस्तेमाल के लिए अड़ा हुआ है। जीएम फसलों के समर्थकों का दावा है कि इनके प्रयोग से फसलों का उत्पादन बढ़ेगा और देश की खाद्यान्न समस्या का समाधान हो जाएगा।

भारत की पहली आनुवंशिक रूप से संशोधित सरसों की फसल धारा सरसों हाइब्रिड (डीएमएच-11) बीज के रूप में व्यावसायिक रिलीज के आवश्यक न्यूनतम मापदंड को पूरा करने में विफल रही। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा पिछले रबी सीजन में छह अलग-अलग स्थानों पर किए गए क्षेत्रीय परीक्षणों के परिणामों के अनुसार डीएमएच-11 की उपज लगभग 26 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और तेल की मात्रा 40 प्रतिशत है। कहा जा रहा है कि इसका वजन 1000 बीजों पर लगभग 3.5 ग्राम है, जो कि बीज किस्म के रूप में अधिसूचना के लिए पात्र होने के लिए 4.5 ग्राम के मानक से कम है। वैसे प्रति हजार बीज 5-5.5 ग्राम कम वजन वाले बीज सरसों की फसल की मशीनीकृत कटाई को मुश्किल बनाते हैं। मशीनीकृत कटाई के दौरान कम वजन वाले सरसों के बीज उड़ जाते हैं, इसलिए उत्तरी क्षेत्र के किसानों द्वारा इसे पसंद नहीं किया जाता है, जहां यह व्यापक रूप से उगाया जाता है।

किसान संगठनों के विरोध का एक कारण मधुमक्खी पालन में आने वाली परेशानी भी है। कन्फेडेरेशन आफ एपीकल्चर (सीएआइ) के अनुसार जीएम सरसों की खेती की शुरुआत होने पर शहद उत्पादन के बर्बाद होने की आशंका है। इससे 10 लाख मधुमक्खी पालकों की आजीविका पर संकट आएगा। मधुमक्खियों के परागण में सरसों की खेती का अहम योगदान होता है। ज्यादातर जगहों पर चिकित्सकीय गुणों की वजह से जीएम मुक्त सरसों के शहद की मांग है। ऐसे में विदेश में भारी मात्रा में होने वाला शहद निर्यात ठप हो सकता है। सरकार एक तरफ आर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही है तो दूसरी तरफ इस प्रकार की नीतियां लाकर खेती में रसायनों के प्रभाव को बढ़ा रही है।

विश्व के अन्य भागों में भी जीएम फसलों के प्रभाव अच्छे साबित नहीं हुए हैं। अमेरिका में एक प्रतिशत भू-भाग में जीएम मक्के की खेती की गई, जिसने 50 प्रतिशत गैर जीएम खेती को संक्रमित कर दिया। उत्पादन बढ़ाने की होड़ में चीन ने भी अपनी जमीन पर जीएम धान एवं मक्के की खेती की, मगर पांच-छह वर्षों में ही वहां के किसानों को नुकसान उठाना पड़ा। वर्ष 2014 के बाद से वहां जीएम खेती बंद हो गई है।

जीएम फसलों के पैरोकार तीसरी दुनिया के मुल्कों को डरा रहे हैं कि वर्तमान में करोड़ों लोग भूखे सोते हैं इसलिए जीएम फसलों के जरिये अतिरिक्त उत्पादन कर इसका मुकाबला संभव है। भारत खाद्यान्न उत्पादन में न सिर्फ आत्मनिर्भर हो चला है, बल्कि गेहूं, धान, सब्जी और फलों आदि का ऊंचे पैमाने पर निर्यात भी कर रहा है। यह एक दुष्प्रचार अधिक है कि जीएम फसलों से ही कृषि उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। 1951-52 के दौरान देश में मात्र 5.2 करोड़ टन अनाज का उत्पादन होता था, लेकिन आज बिना जीएम तकनीक के ही 27 करोड़ टन अनाज का उत्पादन हो रहा है। इसी वर्ष केंद्र सरकार के अनुमान के मुताबिक यह आंकड़ा 27.5 करोड़ टन रहने की उम्मीद है।

सरकार का मत है कि जीएम सरसों से खाद्य तेलों के उत्पादन में आत्मनिर्भरता आएगी। अभी भारत खाद्य तेल की 50-60 प्रतिशत मांग आयात से पूरी करता है। भारत में सरसों की खेती 80-90 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में होती है। बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों में पैदावार पहले से ही अधिक है। अगर आज देश खाद्य तेल का आयात करने को विवश है तो इसकी वजह सरकार के फैसले ही हैं।

वर्ष 1985-86 में केंद्र की राजीव गांधी सरकार द्वारा आयात पर निर्भरता घटाने के उद्देश्य से तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन की शुरुआत की गई। विश्व व्यापार संगठन के नियमों के तहत भारत के पास आयात शुल्क को अधिकतम 300 प्रतिशत रखने का विकल्प था। 1993-95 में तिलहन का उत्पादन दोगुना हो गया और भारत इस मामले में आत्मनिर्भर हो गया। वह अपनी जरूरत का 97 प्रतिशत उत्पादन करने लगा। फिर धीरे-धीरे खाद्य तेल आयात शुल्क शून्य पर पहुंच गया, जिससे खाद्य तेल का आयात बढ़ गया। जितना अधिक आयात बढ़ा उतना ही किसानों ने तिलहन की खेती छोड़ दी और पीली क्रांति के दावे खोखले हो गए। सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर किसानों को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। इससे किसान भी आत्मनिर्भर होंगे और पीली क्रांति भी संभव है।

(लेखक पूर्व सांसद हैं)