जीएन वाजपेयी। गणेश चतुर्थी के पावन अवसर पर देश में नई संसद का श्रीगणेश हुआ। अंग्रेज शासकों का बनाया पुराना संसद भवन व्यापक स्तर पर मरम्मत की मांग कर रहा था। सरकार ने पुराने संसद भवन की मरम्मत और रंग-रोगन करने के बजाय एक ऐसी आधुनिक इमारत बनाने का फैसला किया, जो भारतीय मूल्यों से ओतप्रोत है। मोदी सरकार की तमाम विशिष्टताओं में से एक किसी भी काम को सही तरह से अंजाम देना भी है। यह बात राम मंदिर के निर्माण से लेकर, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, तत्काल तीन तलाक से मुक्ति, महिला आरक्षण विधेयक और भारत के लिए संसद का ऐतिहासिक भवन बनाने तक नजर आती है।

पुराने संसद भवन को उचित ही ‘संविधान भवन’ का नाम दिया गया है। भारत के संविधान पर बहस, उसका निर्माण और अपनाने की प्रक्रिया वहीं पूरी हुई। ऐसे में उन वादों को दोहराना और उनकी प्रगति की समीक्षा आवश्यक है, जो संविधान बनाने के दौरान हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने किए। जैसे कि संविधान में सभी नागरिकों तक न्याय सुनिश्चित करने का वादा किया गया था, लेकिन क्या वह वादा पूरा हो पाया या किसी प्रकार होता दिख रहा है?

इस वर्ष अप्रैल में आई तृतीय भारतीय न्याय रिपोर्ट के अनुसार दिसंबर, 2020 तक उच्च न्यायालयों और जिला न्यायालयों में कुल 4.9 करोड़ मामले लंबित थे। इनमें 1.9 लाख मामले तो 30 वर्षों से अटके हुए थे, जबकि 56 लाख ऐसे थे जो 10 वर्षों से लंबित थे। जेलों में बंद 77 प्रतिशत लोग ऐसे थे जिनका मामला विचाराधीन है। उच्चतम न्यायालय के समक्ष भी मामलों का अंबार लगा हुआ है। दो अगस्त, 2022 तक शीर्ष अदालत में 71,441 मामले लंबित थे, जिनमें से 56,365 दीवानी और 15,076 फौजदारी के थे। वर्ष 1948 में अपनाए गए मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा पत्र में न्याय के अधिकार की गारंटी दी गई है। एक लोकप्रिय कहावत भी है कि न्याय में देरी अन्याय के समान है। न्याय में देरी के दीर्घकालिक दुष्प्रभाव होते हैं। धीरे-धीरे लोगों का अपनी न्यायिक प्रणाली में भरोसा खत्म होने लगता है।

न्यायिक प्रणाली पर बोझ घटाने और उसकी गति बढ़ाने के लिए एक के बाद एक सरकारों ने फास्ट ट्रैक कोर्ट, विशेष न्यायाधिकरण, उपभोक्ता अदालतों और लोक अदालतों आदि का गठन किया। न्याय में देरी के कुछ कारण भी सामने आए हैं। एक तो सरकार ही सबसे बड़ी मुकदमेबाज है। न्यायिक तंत्र के लिए बजट अपर्याप्त है। जनसंख्या के अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या बेहद कम है। क्षमताएं और प्रतिबद्धता भी सवालों के घेरे में रहती हैं। तारीख के बाद तारीख का सिलसिला कायम रहता है। न्यायिक प्रक्रिया बेहद लंबी है तो कार्यसंस्कृति पर भी प्रश्न उठते हैं। इनके निदान के लिए कुछ समाधान भी सुझाए जाते रहते हैं। जैसे कि विशेष ढांचे का निर्माण और समन्वय को बेहतर बनाना।

न्यायिक प्रशासन की निगरानी के लिए विशेष प्राधिकरण का गठन। प्रशासनिक सुधारों के साथ ही प्रशासनिक एवं न्यायिक कार्य का पृथक्करण और सरकारों एवं अन्य संबंधित पक्षों के साथ बेहतर समन्वय और सहयोग आदि। इन सभी सुझावों और समय-समय पर होने वाली पहल के बावजूद न्याय आम आदमी की पहुंच में आसानी से नहीं दिखता। सुनवाई के लिए पांच साल की प्रतीक्षा कर रहे किसी विचाराधीन कैदी के चेहरे पर हताशा की लकीरें देखकर आप उसके दर्द का अनुमान सहज ही लगा सकते हैं। न्यायिक प्रणाली में एक तबके के लिए इस देरी के आर्थिक निहितार्थ भी हैं। इस मामले में तत्काल नए सिरे से विचार की दरकार है।

सरकार ने अपनी कई प्राथमिकताओं को मिशन मोड में हासिल किया है। ‘नल से जल’ योजना इसका एक उदाहरण है। इसी प्रकार ‘डिलिवरी आफ जस्टिस’ यानी न्याय प्रदान करने की कवायद भी मिशन मोड में संचालित की जानी चाहिए। इस मिशन की शुरुआत कुछ पहलुओं को चिह्नित करके की जा सकती है कि मामलों के निपटारे में क्या, कैसे और कौन देरी करता है। इसका समाधान निकालने के लिए गैर-पारंपरिक तौर-तरीकों पर भी विचार किया जाए। उसके लिए कानून या किसी भी स्तर पर जो उपाय किए जाने चाहिए, उन्हें बिल्कुल वैसे ही अविलंब किया जाए जैसा महिला आरक्षण के मामले में देखने को मिला।

मामलों के त्वरित निपटान के लिए उन्हें विभिन्न श्रेणियों में विभाजित करना भी उपयोगी होगा। ऐसे वर्गीकरण के उपरांत मामलों को निपटाने की एक समय सीमा तय करनी चाहिए। विलंब में देरी के कारणों की पहचान कर उनका प्रभावी निवारण किया जाए। जवाबदेही तय करने के साथ ही आवश्यक कार्रवाई भी हो। गड़बड़ियों और दुर्व्यवहार पर निगरानी के लिए विशेष कैडर वाली एजेंसी बने। इस पूरी प्रक्रिया का एक ही लक्ष्य होना चाहिए कि न्याय मिलने की गति में तेजी आए। इसके लिए आवश्यक होगा कि प्रत्येक जिले में कम से कम एक दर्जन मानिटर नियुक्त किए जाने चाहिए।

मामलों की सुनवाई से लेकर उनके वर्गीकरण, साक्ष्य जुटाने और उनके प्रस्तुतीकरण और आदेश की प्रति आदि के स्तर पर सहयोग के लिए उन्हें न्यूनतम प्रशासनिक सहयोगी दिए जाएं। इस प्रक्रिया की उच्चस्तरीय निगरानी हो और प्रत्येक छह महीने में उसकी प्रगति संसद के पटल पर रखी जाए। एक साल से पुराने सभी मामलों की सुनवाई अलग अदालतों द्वारा की जाए और एक साल से कम एवं नए मामले अलग से सुने जाएं। साथ ही साथ सरकार विभिन्न पक्षों में समझौते के लिए वैकल्पिक तंत्र भी बनाए, ताकि न्यायिक प्रणाली पर मुकदमों का बोझ न बढ़े।

समय पर न्याय प्रदान करने के लिए न्यायिक तंत्र में बड़े पैमाने पर भर्तियां करनी होंगी, व्यापक प्रशिक्षण प्रदान करना होगा और समग्र ढांचा समुन्नत बनाना होगा। यह सही है कि प्रत्येक सुधार का विरोध करने वाले कुछ वर्ग उभर ही आते हैं तो उनकी पहचान कर उनसे निपटना भी आवश्यक होगा। समय आ गया है कि न्यायिक प्रणाली को सक्षम बनाने की दिशा में आवश्यक सुधारों को अब और नहीं टालना चाहिए। इसमें आधे-अधूरे प्रयास पूर्व की तरह ही अप्रभावी सिद्ध होंगे। यदि न्यायिक प्रणाली प्रभावी नहीं बन पाई तो राजनीतिक वर्ग से जुड़ी पीढ़ियां संविधान में किए गए वादे को पूरा किए बिना ही चलती बनेंगी।

(लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं)