संकुचित दृष्टिकोण वाले क्षेत्रीय दल, राष्ट्रीय राजनीति को मजबूती नहीं प्रदान कर सकते
भाजपा और कांग्रेस से गठबंधन के बाद क्षेत्रीय दलों के संकुचित दृष्टिकोण पर कुछ लगाम तो लगेगी पर इसके लिए भाजपा और कांग्रेस को मजबूती से उभरना होगा लेकिन वर्तमान में कांग्रेस डूबते जहाज वाली हालत में है। अपने सहयोगी दलों तृणमूल कांग्रेस माकपा आप आदि से उसके संबंध भी तनावपूर्ण हैं। कुछ ही क्षेत्रीय दल हैं जो राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हैं।
प्रो. निरंजन कुमार। लोकसभा चुनाव के बीच एक बिंदु पर राजनीतिक पार्टियां सीधे कुछ नहीं कह रहीं, लेकिन जनता इस पर इन दलों के रुख को ध्यान से परख रही है। यह बिंदु है अखिल भारतीय भाव, राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को लेकर विभिन्न पार्टियों का मत। विभिन्न वर्ण-जाति, पंथ-संप्रदाय, भौगोलिक क्षेत्र, भाषा इत्यादि के आधार पर विविधता के बावजूद भारत में आदिकाल से एक सांस्कृतिक एकता रही है। संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित है कि ‘हम भारत के लोग’ ‘राष्ट्र की एकता तथा अखंडता’ सुनिश्चित करने के लिए दृढ़ संकल्पित रहेंगे।
कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो देश के नेतृत्व, सेना, नौकरशाही और जनता ने भारत की एकता तथा अखंडता की रक्षा के लिए सदा राष्ट्रीय भाव और दृष्टि से कार्य किया है। लोकसभा अर्थात राष्ट्रीय चुनावों में भी कमोबेश जनता ने एक अखिल भारतीय या राष्ट्रीय दृष्टि का परिचय देते हुए एक सशक्त राष्ट्रीय नेतृत्व को अपना मत दिया है। पिछले कुछ समय से देश में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उभार हुआ है। राज्य की राजनीति में इनका खासा वर्चस्व भी है। इस संदर्भ में विभिन्न पार्टियों के चाल, चरित्र और चेहरा समझना प्रासंगिक होगा।
वर्तमान चुनाव में एक तरफ भाजपा है। यद्यपि विभिन्न क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करके वह चुनावी मैदान में उतरी है, लेकिन एक सशक्त राष्ट्रीय दल होने के नाते एक अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य के साथ चुनाव लड़ रही है। दूसरी तरफ कांग्रेस कुछ अन्य दलों के साथ गठबंधन कर मैदान में है। कई राज्यों में भाजपा की सीधी लड़ाई कांग्रेस से है। जहां कांग्रेस नहीं है, वहां इसका मुकाबला कांग्रेस के घटकों या सहयोगी दलों जैसे सपा, राजद, झारखंड मुक्ति मोर्चा और आम आदमी पार्टी के अलावा तृणमूल कांग्रेस आदि से है। इसके अलावा ओडिशा में बीजू जनता दल, पंजाब में अकाली दल, तेलंगाना में बीआरएस आदि भी मैदान में हैं। नीति, दृष्टिकोण और जनाधार आदि की दृष्टि से इनमें भाजपा और कांग्रेस ही राष्ट्रीय दल हैं।
चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार कहने को बसपा, माकपा और आम आदमी पार्टी आदि भी राष्ट्रीय दल हैं, लेकिन इनका चरित्र, चाल और चेहरा भी क्षेत्रीय दलों जैसा ही है। विशुद्ध क्षेत्रीय दलों की बात करें तो ये किसी राज्य विशेष तक सीमित हैं। इसीलिए अखिल भारतीय दृष्टि और राष्ट्रीय हित के बजाय एक संकुचित दृष्टि से परिचालित होते हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की दुनिया भर में प्रशंसा हो रही है, लेकिन बंगाल जैसे कुछ अन्य राज्यों ने उसे लागू करने से इन्कार कर दिया। यहीं राष्ट्रीय दलों की अखिल भारतीय दृष्टि बनाम क्षेत्रीय दलों के संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ का अंतर स्पष्ट हो जाता है।
दूसरे, अधिकांश क्षेत्रीय दल न केवल किसी राज्य विशेष तक सिमटे हैं, बल्कि आमतौर पर उनका जनाधार भी किसी जाति विशेष तक ही सीमित है। जाति आधारित ये दल जनहित और राष्ट्रहित से ऊपर अपनी-अपनी जातियों के हित की बात ज्यादा सोचते हैं। क्षेत्रीय पार्टियों की एक अन्य सीमा है कि इनमें से अधिकांश एक परिवार के कब्जे वाले दल हैं। परिवारवाद के पैरोकार ये क्षेत्रीय दल जनहित-राष्ट्रीय हित से ज्यादा अपने परिवार हित की चिंता में रहते हैं। क्षेत्रीय दलों की एक अन्य समस्या यह है कि संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के लिए ये दल अन्य राज्यों के लोगों के प्रति भड़काऊ बयान और नफरती भाषा बोलने लगते हैं।
यथा-ममता बनर्जी कहती हैं कि यूपी और बिहार के गुंडों के साथ गुजराती बंगाल पर कब्जा करना चाहते हैं। द्रमुक नेता दयानिधि मारन ने कुछ समय पहले यूपी, बिहार और अन्य हिंदी भाषी लोगों के लिए कहा कि ये लोग तमिलनाडु में आकर टायलेट साफ करने के लिए हैं। क्षेत्रीयता के संकीर्ण प्रभाव में कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल के पंजाब में लोकसभा के एक प्रत्याशी सुखपाल सिंह खैहरा ने भी बयान दिया कि पंजाब में यूपी-बिहार के लोगों को नौकरी एवं वोट का अधिकार न मिले। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेसी चरणजीत सिंह चन्नी ने भी कहा कि उत्तर प्रदेश, बिहार और दिल्ली के ‘भइये’ को पंजाब में घुसने नहीं देंगे। कांग्रेस के साथ गठबंधन वाले उद्धव ठाकरे भी कभी मुंबई में अन्य राज्यों के लोगों के लिए परमिट की बात करते थे। समय-समय पर अन्य क्षेत्रीय दल भी ऐसी संकीर्णता दिखाते रहे हैं।
क्षेत्रीय राजनीति चमकाने के लिए ऐसे भड़काऊ बयानों ने उत्तर भारतीय समाज की गरिमा को तो ठेस पहुंचाई ही, संविधान का आत्मा कही जाने वाली प्रस्तावना में उल्लिखित ‘भारत की एकता और अखंडता’ पर भी चोट की। ये नेता अपने राजनीतिक हितों के लिए स्थानीय लोगों में दूसरे राज्यों के लोगों के प्रति अलगाव का भाव पैदा करते हैं, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए ठीक नहीं। भारत की तीव्र आर्थिक प्रगति की राह में ये मनमुटाव बाधा पैदा कर रहे हैं। सवाल यह है कि क्या जनहित-राष्ट्रहित से परे देश की एकता और अखंडता से खिलवाड़ करने वाले जाति या परिवार आधारित क्षेत्रीय दलों पर दांव लगाना ठीक रहेगा?
भाजपा और कांग्रेस से गठबंधन के बाद क्षेत्रीय दलों के संकुचित दृष्टिकोण पर कुछ लगाम तो लगेगी, पर इसके लिए भाजपा और कांग्रेस को मजबूती से उभरना होगा, लेकिन वर्तमान में कांग्रेस डूबते जहाज वाली हालत में है। अपने सहयोगी दलों तृणमूल कांग्रेस, माकपा, आप आदि से उसके संबंध भी तनावपूर्ण हैं। कुछ ही क्षेत्रीय दल हैं, जो राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हैं। इन स्थितियों में राष्ट्रीय चुनावों में जनता-जनार्दन क्षेत्रीय दलों के बारे में क्या निर्णय लेगी, इसका पता चार जून को ही चलेगा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सीनियर प्रोफेसर हैं)