तमिल संस्कृति की आत्मा है सनातन धर्म, खुद द्रमुक परिवार में कर्मकांड की है गहरी पैठ
तमिल संस्कृति सनातन धर्म का अविभाज्य हिस्सा है। इस सच्चाई को ईवीआर भी जानते थे। उन्होंने प्राचीन तमिल विरासत और साहित्य का यह कहते हुए तिरस्कार किया था कि इसने ही सनातन धर्म की व्याख्या और स्तुति की है। ईवीआर ने प्राचीन तमिल साहित्य और तमिल सामाजिक-सांस्कृतिक नियमों के स्रोत ‘तोल्काप्पियम्’ को आर्यों की देन और ब्राह्मणों का काम बताया था।
स्वामीनाथन गुरुमूर्ति। आप अनुमान लगा सकते हैं कि ‘तमिल भाषा बाधा एवं असभ्य है, तमिल विद्वान-कवि समाजविरोधी हैं’ और ‘तिरुक्कुरल (प्राचीन तमिल मुक्तक काव्य रचना) सोने की थाली में मानव मलमूत्र है।’ जैसी बात किसने कही होगी? हर कोई इस नाम से परिचित है। उनका जन्म तमिलनाडु में हुआ, परंतु उन्होंने स्वयं को कन्नड़ कहना उचित समझा। यह थे द्रविड़ आंदोलन के प्रणेता और तमिलनाडु में सत्तारुढ़ द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) के प्रेरणासस्रोत ईवी रामास्वामी (ईवीआर) नायकर, जिन्हें ‘पेरियार’ भी कहा जाता है।
यक्ष प्रश्न है कि ईवीआर ने तमिल भाषा, साहित्य और संस्कृति का अपमान क्यों किया और क्यों द्रमुक उन्हें संत तुल्य बताती है? इस प्रश्न के उत्तर में तमिल राजनीति में अब तक दबाया गया वह सच छिपा है, जिसमें ईवीआर ने तमिल समाज, संस्कृति और भाषा को इसलिए लांछित किया, क्योंकि वह सनातन धर्म की आत्मा है।
तमिलनाडु में वर्तमान सनातन धर्म विरोधी उपक्रम लगभग एक शताब्दी पुरानी ब्राह्मण-विरोधी राजनीति के अनुरूप है, जिसका बीजारोपण अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति और उससे जनित ‘जस्टिस पार्टी’ के साथ हुआ। वर्ष 1916 में स्थापित इस पार्टी का मूल उद्देश्य ब्राह्मणों का विरोध था, जो 1920 में सत्ता में तो आई, परंतु पिछली सदी के चौथे दशक के अंत में उसका कांग्रेसी राष्ट्रवाद के समक्ष पतन हो गया। परिणामस्वरूप ईवीआर ने 1946 में ‘द्रविड़ कड़गम’ यानी डीके बनाई, जिसके ब्राह्मण-विरोधी दर्शन में भारत विरोध भी जुड़ गया। इसी वैचारिक संयोजन के साथ डीके 1949 में डीएमके यानी द्रमुक बन गई। चुनावी राजनीति के चलते द्रमुक का राष्ट्रविरोधी चरित्र भले ही समाप्त हो गया हो, परंतु उसका ब्राह्मण विरोध अपरिवर्तित रहा। यही मानसिकता उसके हिंदू-सनातन विरोधी वक्तव्यों में बार-बार प्रकट होती है।
तमिल संस्कृति सनातन धर्म का अविभाज्य हिस्सा है। इस सच्चाई को ईवीआर भी जानते थे। उन्होंने प्राचीन तमिल विरासत और साहित्य का यह कहते हुए तिरस्कार किया था कि इसने ही सनातन धर्म की व्याख्या और स्तुति की है। ईवीआर ने प्राचीन तमिल साहित्य और तमिल सामाजिक-सांस्कृतिक नियमों के स्रोत ‘तोल्काप्पियम्’ को आर्यों की देन और ब्राह्मणों का काम बताया था। ‘तोल्काप्पियम्’ के लेखक थोलकाप्पियार को चारों वेदों में दक्षता प्राप्त थी। इसने तमिल समाज को चार वर्णों ‘अरासर’ (क्षत्रिय), ‘अंदानर’ (ब्राह्मण), ‘वैसियार’ (वैश्य), और ‘वेलालर’ (शूद्र) में विभाजित बताया। यह ग्रंथ तमिलों के अधिकारों, विशेषाधिकारों, पोशाक संहिता पर कहता है कि तमिल समाज वर्ण व्यवस्था के अनुसार रहता था, जिसका अर्थ जन्म से है।
ईवीआर ने ‘तिरुक्कुरल’ की निंदा इसलिए की, क्योंकि प्रख्यात तमिल कवि तिरुवल्लुवर ने वेदों की शिक्षा को विख्यात किया था। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के दिवंगत पिता एम. करुणानिधि ने जैन भिक्षु द्वारा लिखित प्राचीन तमिल साहित्य ‘शिलप्पादिकारम’को बहुत महत्व दिया। इस ग्रंथ के अनुसार कन्नगी ने पाण्ड्य राजा द्वारा अपने पति को दिए गए अन्यायपूर्ण मृत्युदंड का बदला लेने हेतु अपने भीतर उत्पन्न अग्नि से मदुरै नगर को जला दिया था। जहां ईवीआर ने कन्नगी को अपशब्द कहे, वहीं करुणानिधि ने उसकी कहानी को फिल्म का रूप देकर कन्नगी का महिमामंडन किया।
निष्कर्ष यह है कि यदि वर्णाश्रम सनातन धर्म में निहित है, तो यह तमिल संस्कृति का भी उतना ही अभिन्न अंग है। यदि मनु ने वर्णाश्रम की व्याख्या की तो थोलकाप्पियार के कार्य में इसकी झलक मिलती है। यदि वेद सनातन धर्म की उत्पत्ति हैं, तो तिरुक्कुरल ने भी वेदों को आत्मसात किया। यदि सनातन धर्म वेदों, वर्णों, ब्राह्मणों और गायों को महत्व देता है, तो तोल्काप्पियम्, तिरुक्कुरल से लेकर शिलप्पादिकारम ने भी ऐसा ही किया।
द्रमुक का यह दावा फर्जी है कि तमिल भूमि में सनातन धर्म को आर्यों द्वारा बाहर से लाया गया। सत्य यही है कि सनातन का प्रसार तमिल धरती से हुआ। महानतम सनातन आचार्य आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य का जन्म द्रविड़ भूमि पर ही हुआ, जिसमें कभी केरल भी शामिल था। सनातन धर्म पर इन विद्वानों की व्याख्या सर्वसमावेशी थी। शंकराचार्य के अद्वैत ने मनुष्यों के बीच सभी मतभेदों को पार कर ब्रह्मांड (सजीव-निर्जीव) को एक ईकाई और अविभाज्य माना। जब उन्होंने अपने अद्वैत दर्शन का उल्लंघन करते हुए एक बहिष्कृत व्यक्ति को दूर जाने को कहा, तब उसने स्वयं को भगवान शिव के रूप में प्रकट किया। इस पर शंकराचार्य ने उनके पैर छुए और ‘मनीषा पंचकम’ की रचना की।
क्या द्रमुक को इसकी जानकारी नहीं? विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन करने वाले रामानुजाचार्य ने अपने ही गुरु के विरुद्ध विद्रोह किया और उनकी गोपनीय दीक्षा को सभी जातियों में सार्वजनिक रूप से साझा करके जातिगत भेदों को अस्वीकार किया। करुणानिधि ने रामानुज का जीवन वृत्तांत लिखा और उनकी प्रशंसा की। उन पर फिल्म भी बनाई और करुणानिधि के स्वामित्व वाले चैनल ने उसे प्रसारित भी किया। क्या करुणानिधि के वंशजों और द्रमुक नेताओं को यह पता है? तमिल संस्कृति और सनातन धर्म के बीच यह निरंतरता सदियों से बनी हुई है। 19वीं सदी के महान तमिल सिद्धपुरुष तिरुमूलर ने अद्वैत को यह कहकर प्रस्तुत किया था कि निराकार ब्राह्मण बाहरी रूपों के पीछे छिपा होता है। तमिल संत वल्ललार ने अद्वैत की व्याख्या में मूर्तिपूजा को निराकार ब्राह्मण की प्राप्ति हेतु पहला कदम बताया। विडंबना देखिए कि द्रमुक नेता अद्वैत को अस्वीकार करते हैं, पर तिरुमूलर-वल्ललार का सम्मान करते हैं।
इस विषय पर जितना विमर्श आगे बढ़ेगा द्रमुक उतनी ही शर्मिंदा होगी। यह सब उसकी विचारधारा को भी नष्ट कर सकता है, क्योंकि सनातन कर्मकांड सत्तारूढ़ द्रमुक परिवार में इतनी गहराई से प्रवेश कर चुका है कि वे ‘राजनीतिक शत्रुता’ दूर करने के लिए अक्सर शत्रु संहार यज्ञ का आयोजन करते हैं। हिंदू आस्था को सनातन धर्म, वैदिक और वैदिका आस्था के नाम से भी जाना जाता है। सनातन धर्म का अर्थ है शाश्वत और कालातीत मूल्य। ‘वर्णाश्रम कार्य विभाजन पर आधारित है और इसमें कोई पदानुक्रम नहीं है’, यह तथ्य तमिलनाडु में भारतीय संस्कृति विषय पर 12वीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक का हिस्सा है। इसके बाद भी आइएनडीआइए का प्रमुख घटक द्रमुक सनातन धर्म के विरुद्ध निरंतर विषवमन कर रहा है। अच्छा हो कि इस पुस्तक को स्टालिन पिता-पुत्र और उनके दल के अन्य नेता पढ़ें।
(लेखक तमिल पत्रिका ‘तुगलक’ के संपादक हैं)