[केसी त्यागी] गुजरात के केवड़िया में सरदार पटेल की 182 मीटर ऊंची विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा उनके कद के अनुरूप ही है। यदि सरदार वल्लभभाई पटेल न होते तो आज भारत का भौगोलिक नक्शा भिन्न होता। जूनागढ़, जोधपुर, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर को भारत के साथ जोड़ने में उनकी नीतियां उन्हें भारतीय इतिहास में विशिष्ट स्थान प्रदान करते हुए उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाए हुए हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाजवादियों द्वारा भी उनका उचित आकलन नहीं किया गया।

उद्यम और पूंजीवाद के खुले समर्थक होने के कारण सरदार पटेल समाजवादियों को नापसंद करते थे, मगर स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका की प्रशंसा भी करते थे। महात्मा गांधी के बाद हमारे तीन सबसे महत्वपूर्ण नेताओं में पंडित नेहरू, सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद गिने जाते थे। इसके बावजूद भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग के एक तबके का निरंतर यह प्रयास रहा कि सरदार पटेल के योगदान को कमतर किया जाए। यह प्रश्न भी सदैव जनता के मन में बना रहेगा कि भारत रत्न जैसा सम्मान नेहरू को उनके प्रधानमंत्री रहते हुए और राजेंद्र प्रसाद, इंदिरा गांधी को उनके जीवनकाल में ही मिल गया, वह सरदार पटेल को 1991 से पहले क्यों नहीं मिला?

समाजवादी पंडित नेहरू के प्रति आकर्षित थे। पटेल उन्हें शायद उतने प्रगतिशील नजर नहीं आते थे। पटेल भी समाजवादियों के कटु आलोचक थे। पिछली सदी के चौथे दशक में सरदार पटेल के अहमदनगर बंदीगृह से यरवदा जेल स्थानांतरित होने पर यह समीकरण कुछ बदला, जहां युवा समाजवादियों की काफी संख्या थी। यहीं पटेल ने समाजवादियों को कांग्रेस में अहम पद संभालने का निमंत्रण दिया, मगर नौसेना विद्रोह और उसमें समाजवादियों की भूमिका ने पटेल को फिर कुपित कर दिया। उन्हें लगता था कि इस रवैये से कांग्रेस को परेशानी में डालने और उसके अनुशासन को खत्म करने के कुप्रयास किए जा रहे हैं।

स्पष्ट है कि समाजवादियों के प्रति सरदार पटेल के प्रतिकूल रुख की वजह व्यक्तिगत शत्रुता नहीं, बल्कि कांग्रेस की सत्ता और शक्ति के संबंध में उनके अत्यंत रूढ़िवादी विचार और हड़ताल सहित सभी प्रकार की ‘अव्यवस्था’ के संबंध में उनकी नापसंदगी थी। अगस्त आंदोलन के समय भी सरदार के समाजवादियों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बने। उन्हें इस बात की भी प्रसन्नता थी कि समाजवादियों ने नेहरू की युद्ध नीति का विरोध करने की भी हिम्मत दिखाई है। साम्यवादियों के विपरीत समाजवादियों के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में महती भूमिका को लेकर भी उनके मन में स्नेह बना रहा। हालांकि अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के कारण समाजवादियों और पटेल में अनबन जैसी स्थिति बनी रहती थी, लेकिन वैचारिक असहमति के बावजूद सरदार पटेल की ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण भूमिका को नकारना सत्य के प्रति अन्याय होगा।

आजादी के बाद समय के साथ नेताओं का नेहरू से मोहभंग होता गया। चीन से मिली पराजय के बाद ऐसी तीव्र प्रतिक्रिया हुई कि उसका प्रभाव राजनीतिक विचारकों के सोच पर पड़ना स्वाभाविक था। उस समय आचार्य कृपलानी, जयप्रकाश नारायण और डा. राममनोहर लोहिया आदि ने सरदार पटेल तथा स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य अग्रणी नेताओं के बारे में अपने विचारों में संशोधन करना शुरू किया। 1934 से 1950 के वर्षों में सरदार पटेल को प्रायः बिना तार्किक आधार के पक्षपाती प्रतिक्रियावादी और सामाजिक परिवर्तनों का घोर विरोधी कहा जाता रहा, लेकिन हाल के वर्षों में झुकाव दूसरे छोर पर दिखाई देता है। अब उनकी समझबूझ, दूरदृष्टि और स्वतंत्रता आंदोलन में उनके अपेक्षित योगदान और राज्य को सुदृढ़ करने के कार्यों को लेकर उन्हें महिमामंडित किया जाने लगा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान किसानों के प्रति उनके दृष्टिकोण को इतिहासकारों ने समुचित आदर देना शुरू किया है।

वास्तव में, वह किसानों के सच्चे हितैषी थे। 1917 में गोधरा राजनीतिक सम्मेलन के दौरान वह गांधीजी के करीब आए। तब कार्यसमिति के अध्यक्ष गांधी जी बने और वल्लभभाई उसके सचिव। खेड़ा में किसान प्रतिनिधिमंडल उनसे मिला। इसी बीच चंपारण सत्याग्रह की सफलता के किस्से यहां भी सुनाई पड़ने लगे। इसी प्रकार बारडौली का किसान आंदोलन भी ब्रिटिश अफसरों द्वारा उत्पीड़न एवं पुलिस ज्यादती का शिकार हो चला। 1924 और 1927 में दो बार बढ़े हुए लगान की वसूली का विरोध तीव्र हुआ।

किसानों ने मद्यपान छोड़ दिया। औरतों ने पीतल के भारी गहने छोड़कर खादी और चरखे को अपना लिया। गांव-गांव में सत्याग्रह के गीत गूंजने लगे और बड़ी-बड़ी जनसभाएं हुईं। आंदोलन ने व्यापक रूप लेना शुरू कर दिया, लिहाजा भयभीत होकर सरकार ने एक स्वतंत्र खुली जांच का फैसला किया और पुरानी दरों पर लगान लेना स्वीकार कर लिया। सभी बंदियो को रिहा किया गया। इस आंदोलन ने न केवल वल्लभभाई को ‘सरदार’ बनाया, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय ख्याति का नेता भी बना दिया। समूचे स्वतंत्रता आंदोलन में इस घटना के बाद ग्रामीण सत्याग्रहियों की संख्या में ऐतिहासिक वृद्धि होने लगी।

स्पष्ट है कि सरदार स्वतंत्रता से पहले और उसके तुरंत बाद उतने ही असरदार थे और भारत इस समय जिस दौर से गुजर रहा है, उसमें भी वह राष्ट्रीय एकता की प्रेरक कड़ी बने हुए हैं। भारतीय राजव्यवस्था आज जिन चुनौतियों से दो-चार है, उसमें सरदार पटेल की सुव्यवस्थित राज्य की कल्पना हमारा मार्गदर्शन कर सकती है। उनके मूल्यों को आत्मसात कर राष्ट्र को सशक्त बनाना ही उनकी जन्म-जयंती पर उनके प्रति राष्ट्र की कृतज्ञ श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक पूर्व सांसद हैं)