सूर्यकुमार पांडेय। जैसे-जैसे मतदान की तिथियां नजदीक आती जा रही हैं, वैसे-वैसे मेरी टेंशन बढ़ती जा रही है। चुनाव की तारीखें घोषित हो चुकी हैं, मगर मैं अभी तक यह भी घोषित नहीं कर पाया हूं कि मेरी अपनी पार्टी कौन-सी है? जवानी ख्वाब देखने में गुजर जाए और जब ब्याह का मुहूर्त निकले तो दूल्हा घोड़ी पर चढ़ने से पीछे हट जाए, ऐसा कैसे चलेगा। मौका-माहौल है, तो इस बार मुझे चुनाव लड़ना ही लड़ना है।

चाहे मैं किसी फटे से फटे बैनर के तले खड़ा होऊं, मुझे अबकी बार समूची शक्ति लगा देनी है। मेरी सज-धज जारी है। जरूरत के मुताबिक खर्चे-वर्चे का इंतजाम भी बन गया है। मतदाताओं, चिंता मत करो। मैं मत मांगने आ रहा हूं। अबकी बार चूक नहीं होगी। इस दफा मुझे समझदारी के साथ लड़ना है। मगर न जाने क्यों, अभी से मेरा रक्तचाप बढ़ता ही चला जा रहा है। वक्त थोड़ा हो और लोड ज्यादा हो, तब ऐसा ही होता है। मेरे साथ भी हो रहा है। जब तक फाइनली टिकट-विकट न मिल जाए, इस दिल को चैन कहां और आराम कहां?

मेरा दिल तो पागल है, नादान है और आवारा भी। यह मानता ही नहीं। रोज अपने देश के नेताओं की दुर्गतियां देखता हूं। जेल जा रहे हैं। उन पर मुकदमे किए जा रहे हैं। जमानत पर छूट नहीं पा रहे हैं। फिर भी मैं हतोत्साहित नहीं हो रहा हूं तो सिर्फ इस इकलौते दिल के चलते। दिल लगा कुर्सी से तो इज्जत क्या चीज है? इस बार आर-पार का खेल होगा। लड़ मरूंगा। मोर्चे पर डटे रहना है। किसी ने साथ नहीं दिया तो एक नया फ्रंट खोल लूंगा। वह समय गया, जब समान विचार वाले लोगों की पार्टियां बना करती थीं।

सिद्धातों, वादों और नीतियों के आधार पर दल गठित होते थे। अब का वक्त अवसरवादियों का है। चार लोग इकट्ठे हो लिए और एक दल तैयार हो गया। अगुआ-भगुआ गले मिल गए। लगुआ पहले से ही एक कंधे की तलाश में मुंह बाए हुए था। वह भी गला बचाकर पीछे से चिपक लिया। तन गया एक और राष्ट्रीय स्तर का तंबू। गड़ गया गठबंधन का खूंटा। माल काटना है तो पहले वोट काटने की कला आनी चाहिए। कभी-कभी मैं यह भी सोचता हूं कि फालतू टेंशन पाल रहा हूं। क्यों न अपनी एक अलग पार्टी बना लूं। जहां इतनी सारी सही, एक और सही! भालू की पीठ पर एक और बाल उग आए तो उसका वजन नहीं बढ़ जाता है। मेरी छटपटाहट जारी है। इधर-उधर हाथ-पांव फेंक रहा हूं।

ऊंट की चोरी निहुरे-निहुरे नहीं होती है। चुनाव लड़ना है तो खुलकर सामने आना ही पड़ेगा। लाज-शर्म को ताक पर रखकर असली वाली औकात पर उतरना ही होगा। इसके बिना कोई दूसरा मार्ग तो क्या, पगडंडी तक नहीं है, जिस पर चलकर दिल्ली तक पहुंचा जा सके। मैं क्रमशः-क्रमशः तैयार हो रहा हूं। सोचता हूं, एक वक्तव्य ठोंक दूं। जिसको कोई घास नहीं डाल रहा हो, वह अबकी बार मेरे साथ आए। तिनका-तिनका जोड़कर ही घोंसला बनता है। मेरे प्राणप्यारों, पास आओ। एकता की ताकत को पहचानो। चार गुंडे भी एक हो जाएं तो हजारों शरीफों के नाक में दम कर दें। आओ अबकी बार हम बहुमत लूट लेंगे।

वोट यूं ही नहीं मिलता। हथियाना पड़ता है। हम सब मिलकर उसे हासिल करेंगे। वोट अमूल्य है, उसकी कीमत किसे पता है! हम फिर भी मोल-भाव करेंगे। जो जिस रेट में पट जाए, उसे वहीं पर पटा मारेंगे। हमारी पार्टी का नारा होगा, ‘हम उचित दाम पर बिकने को भी तैयार हैं और खरीदने को भी।’ जनता हमें वोट दे, हम उसे मुंहमांगी कीमत का आकर्षक वादा देंगे। इसी भांति दल-बल के जरिये मैं अपनी तमन्नाओं को मूर्त रूप देना चाहता हूं। फिलहाल नया समीकरण और नए फार्मूले तलाशने हैं। नया गणित बैठाना है। विपक्षियों की समानांतर रेखा को तिकड़म की तिर्यक रेखाओं से काटने का नया सूत्र तैयार करना है। समय कम है। अभी चुनाव-प्रचार की विज्ञापनी तैयारियां भी करनी हैं। आप भी सतर्क रहिए। जिस वक्त मेरी टेंशन खत्म होगी, वोटरों की अपनेआप बढ़नी चालू हो जाएगी।