संजय गुप्त। सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों यानी एससी-एसटी के आरक्षण के उपवर्गीकरण का जो फैसला दिया, वह इन समुदायों के आरक्षण को और अधिक न्यायसंगत बनाने और साथ ही सामाजिक न्याय के उद्देश्य को पूरा करने वाला है।

एक लंबे अर्से से यह महसूस किया जा रहा था कि एससी-एसटी समुदाय की कुछ जातियां तो आरक्षण का पर्याप्त लाभ उठा रही हैं, लेकिन कुछ को उसका वांछित लाभ नहीं मिल पा रहा है और इसके चलते वे समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पा रही हैं। इसके साथ ही उनका सामाजिक-आर्थिक उत्थान भी नहीं हो पा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने 2004 की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के फैसले को पलट दिया।

उस फैसले में कहा गया था कि एससी-एसटी समुदाय की जातियां एकसमान हैं और उनका उपवर्गीकरण नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने इससे असहमति जताते हुए कहा कि एससी-एसटी समुदाय की जातियों में भी पिछड़ी एवं अति पिछड़ी जातियां हैं। वास्तव में इन समुदायों की जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में अंतर ही नहीं है, बल्कि उनके बीच ऊंच-नीच का भाव भी है।

सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश ने यह बिल्कुल सही उदाहरण दिया कि दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस अथवा महानगरों के किसी अन्य प्रतिष्ठित कालेज में पढ़ने वाले छात्र और किसी ग्रामीण क्षेत्र के कालेज में पढ़ने वाले छात्र की स्थिति को एक जैसा नहीं कहा जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी के आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू करने की भी आवश्यकता जताई। यह इसीलिए जताई, क्योंकि एक तो ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू है और दूसरे एससी-एसटी समुदाय में अनेक लोग ऐसे हैं, जो आर्थिक एवं सामाजिक रूप से कहीं अधिक सक्षम एवं संपन्न हैं। एससी-एसटी समाज की जातियों में उपवर्गीकरण करके उन्हें आरक्षण प्रदान करने से उन लोगों के सामाजिक उत्थान में आसानी होगी, जो अब भी पिछड़े हुए हैं।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद कई दलों ने एक तरह से चुप्पी साधी हुई है। एससी-एसटी जातियों में उपवर्गीकरण से इन समुदायों को एक वोट बैंक के रूप में देखने और इसी आधार पर राजनीति करने वाले दलों को राजनीतिक नुकसान का भय उनकी चुप्पी का कारण हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जाति की राजनीति करने वाले दलों का रवैया जो भी हो, इससे इन्कार नहीं कि एससी-एसटी समुदाय के कई नेता ऊंचे पदों पर पहुंच चुके हैं।

इसी तरह इन समुदायों के अनेक लोग आरक्षण का लाभ उठाकर आइएएस-आइपीएस अफसर बन चुके हैं। इसका कोई औचित्य नहीं कि उनके बच्चों को भी आरक्षण का लाभ मिले। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इस पर बल दिया गया है कि यदि किसी परिवार को एक बार आरक्षण का लाभ मिल चुका हो तो उसे आगे नहीं मिलना चाहिए। एक तरह से आरक्षण के लाभ को पहली पीढ़ी तक सीमित करने की जरूरत जताई जा रही है।

इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा जरूरतमंद लोगों को आरक्षण का लाभ दिया जा सके। यह ठीक नहीं कि लोग पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेते रहें। यदि ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू की जा सकती है तो उसे एससी-एसटी आरक्षण में भी लागू किया जाना चाहिए। इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि ओबीसी की तरह एससी-एसटी समुदाय में कई जातियां ऐसी हैं, जिनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर हो चुकी है। एक तरह से ये जातियां पिछड़ों में अगड़ी हैं। एससी-एसटी और ओबीसी समुदाय की ऐसी ही जातियां आरक्षण का अधिक लाभ उठा रही हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में एससी-एसटी जातियों के उपवर्गीकरण का अधिकार राज्य सरकारों को भी दे दिया है। अभी तक यह अधिकार केवल केंद्र सरकार को था। राज्य सरकारों की ओर से इस अधिकार का दुरुपयोग किए जाने की आशंका है। यह आशंका इसलिए है, क्योंकि राज्य सरकारें वोट बैंक की राजनीति के तहत एससी-एसटी जातियों का मनमाने तरीके से उपवर्गीकरण कर सकती हैं।

ऐसा न होने पाए, यह सुप्रीम कोर्ट को देखना होगा। हालांकि उसने यह कहा है कि उपवर्गीकरण का काम तथ्यों के आधार पर होना चाहिए और उसकी न्यायिक समीक्षा हो सकती है, लेकिन देखना है कि ऐसा हो पाता है या नहीं? यह एक सच्चाई है कि देश में अधिकांश गरीब एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग की जातियों से आते हैं। यदि इन गरीबों की बेहतर तरीके से पहचान हो पाए तो सरकारें उनके उत्थान के लिए विशेष उपाय कर उन्हें मुख्यधारा में लाने का कार्य कर सकती हैं।

ऐसा ही होना चाहिए। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन उल्लेखनीय है कि देश में चार ही जातियां हैं-किसान, युवा, गरीब और महिलाएं। स्पष्ट है कि आरक्षण के मामले में सबसे अधिक ध्यान जो सर्वाधिक गरीब हैं, उन पर ही दिया जाना चाहिए। यह उपवर्गीकरण से ही संभव है।

केंद्र और राज्य सरकारों को आरक्षण की व्यवस्था को दुरुस्त करने के साथ ही यह भी समझना होगा कि आरक्षण वोट बैंक की राजनीति का जरिया नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय का माध्यम है। अपने देश में कई दल जाति विशेष की राजनीति करते हैं और इस पर जोर देते हैं कि निर्धन तबकों का उत्थान और साथ ही देश की तमाम समस्याओं का समाधान केवल आरक्षण के बल पर ही संभव है। इसी के चलते वे जाति गणना की मांग करने में लगे हुए हैं।

यह धारणा ठीक नहीं, क्योंकि यह कहना सही नहीं कि स्वतंत्रता के बाद से देश में जो प्रगति हुई है, उसका लाभ केवल अगड़ी जातियों को ही मिला है। आज देश में आरक्षित वर्गों के लोग बड़े कारोबारी भी हैं। इन वर्गों के अनेक लोग ऐसे भी हैं, जो बिना आरक्षण के सहारे आगे बढ़े हैं।

यह सही समय है कि केंद्र सरकार ओबीसी आरक्षण में उपवर्गीकरण के लिए गठित रोहिणी आयोग की रिपोर्ट का अध्ययन कर उसके सुझावों पर अमल करने की दिशा में आगे बढ़े। राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि आरक्षित वर्गों में जिन्हें भी आरक्षण का लाभ मिल चुका है, उन्हें उसके दायरे से बाहर करने की व्यवस्था से पात्र लोगों यानी वास्तविक गरीबों-वंचितों को आरक्षण देकर उनका कहीं अधिक आसानी से सामाजिक उत्थान संभव है।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]