सत्य से साक्षात्कार का समय, कश्मीर में आतंकवाद न पहले कोई राजनीतिक मुद्दा था और न ही अब
भारत में कई बार चुनी हुई सरकारों को अनुच्छेद-356 के अंतर्गत बर्खास्त किया गया। मतदाता पहचान पत्र के आने से पहले न जाने कितने बड़े पैमाने पर फर्जी मतदान हुआ और आपातकाल तक लगाया गया। क्या इसके चलते देशवासी आतंकवाद के रास्ते पर चले? फिर कश्मीर में ही ऐसा क्यों हुआ? कश्मीर में आतंकवाद न पहले कोई राजनीतिक मुद्दा था और न ही अब।
दिव्य कुमार सोती। अनुच्छेद-370 को खत्म करने के मोदी सरकार के फैसले को संवैधानिक कसौटी पर कसने के बाद सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के सदस्य जस्टिस संजय किशन कौल ने एक महत्वपूर्ण निर्देश दिया, जो सुर्खियों के बीच दबकर रह गया। उन्होंने आतंकवाद के चलते कश्मीर घाटी से कश्मीरी हिंदुओं के पलायन का उल्लेख करते हुए कहा कि इन घावों को भरने के लिए एक ‘सत्य और सुलह आयोग’ की आवश्यकता है, जो कश्मीर घाटी में आतंकवाद के लंबे दौर में हुए अत्याचारों और मानवाधिकार उल्लंघनों के तथ्यात्मक सत्य को सामने लाए। यह बहुत सार्थक सुझाव है। इसे सिर्फ कश्मीर तक ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के इतिहास को लेकर लागू किया जाना चाहिए, जो विदेशी आक्रांताओं के पाशविक अत्याचारों से भरा हुआ है।
पहले कश्मीर की ही बात करते हैं। कश्मीर में आतंकवाद को सही ठहराने और उसे तार्किक बताने के लिए तमाम कुतर्क गढ़े गए। यहां तक कहा गया कि कश्मीर में आतंकवाद इसलिए शुरू हुआ, क्योंकि 1987 के विधानसभा चुनावों में हेराफेरी कर फारूक अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बना दिया गया था।
भारत में कई बार चुनी हुई सरकारों को अनुच्छेद-356 के अंतर्गत बर्खास्त किया गया। मतदाता पहचान पत्र के आने से पहले न जाने कितने बड़े पैमाने पर फर्जी मतदान हुआ और आपातकाल तक लगाया गया। क्या इसके चलते देशवासी आतंकवाद के रास्ते पर चले? फिर कश्मीर में ही ऐसा क्यों हुआ? कश्मीर में आतंकवाद न पहले कोई राजनीतिक मुद्दा था और न ही अब। अगर राजनीतिक मुद्दा होता तो 1990 के बाद कई स्वतंत्र एवं पारदर्शी चुनावों और अरबों रुपये के आर्थिक पैकेजों के बाद वह कब का समाप्त हो गया होता। ऐसा इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि पाकिस्तान ने वहां मजहबी उन्माद को बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप, कश्मीरी हिंदुओं को वहां से पलायन करना पड़ा।
इस्लामिक कट्टरपंथ के चलते कश्मीरी हिंदुओं को 1990 के पहले भी कई बार वहां से पलायन करना पड़ा। तब वहां इस्लामिक शासन था। उस दौर में अल्पसंख्यक कश्मीरी हिंदू कोई प्रतिवाद करने में समर्थ नहीं थे। सिकंदर बुतशिकन ने कश्मीर में हिंदुओं की बड़े पैमाने पर हत्याएं कीं। यदि इन हत्याओं के पीछे मजहबी उन्माद नहीं था तो क्या था?
कश्मीर मात्र एक राजनीतिक समस्या नहीं है। यह इससे भी स्पष्ट है कि अनुच्छेद-370 हटने के बाद भी वहां कश्मीरी हिंदुओं की एक के बाद एक हत्याएं हुई हैं। इन मामलों में मुखबिरी का संदेह अक्सर सहयोगियों या फिर पड़ोसियों पर ही गया। कश्मीरी युवाओं को बस यह बताया गया है कि उन पर अत्याचार हुए। ऐसा क्यों हुआ, यह उन्हें नहीं पता, क्योंकि कट्टरपंथी संगठनों द्वारा संचालित मस्जिद-मदरसों में बताया जाने वाला इतिहास कोई इतिहास न होकर मजहबी फंतासी है। भारत पर कब्जा करने के पाकिस्तान के मजहबी उन्माद ने भारतीय फौज को 1947 में कश्मीर में ला खड़ा किया। अगर ऐसा न हुआ होता तो पाकिस्तान से आए कबायली कश्मीरी महिलाओं को इस्लामिक स्टेट की तरह गुलाम बनाते रहते।
भारतीय सेना के कश्मीर पहुंचने से पहले कबायली सैकड़ों महिलाओं को रावलपिंडी और पेशावर की मंडियों में ले जाकर बेच चुके थे। कश्मीरी युवा यह नहीं जानता कि उनके और कबायलियों के बीच बस भारतीय सेना खड़ी थी। गुलाम जम्मू-कश्मीर के मीरपुर में 25,000 हिंदू-सिखों में से 2,000 लोग ही जीवित भारत पहुंच सके। राजौरी में 11,000 हिंदुओं-सिखों में से 10,900 की हत्या कर दी गई। चूंकि 1990 में कश्मीरी हिंदुओं के साथ यही दोहराने का प्रयास हुआ, इसलिए भारत सरकार के लिए वहां सख्त कार्रवाई जरूरी हो गई थी।
कोई भी समाज अपने यहां हुए जघन्य पापों को लेकर स्वयं को मुगालते में रखकर शांति या समाधान नहीं प्राप्त कर सकता। जर्मनी में नाजियों ने यहूदियों का नरसंहार किया तो द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जर्मन समाज ने गलती स्वीकार की। दक्षिण अफ्रीका में भी स्वतंत्रता के बाद नस्लभेदी अत्याचारों को लेकर सत्य और सुलह आयोग बना, जिससे वहां के लोग हकीकत से परिचित हो सकें। भारत में इस्लामिक आक्रांताओं के अत्याचारों को लेकर ऐसा आत्म-अवलोकन कभी नहीं किया गया। इतिहासकार विल ड्यूरांट ने लिखा था कि भारत पर इस्लामिक आक्रांताओं के हमले विश्व इतिहास की सबसे बड़ी खूनी गाथा हैं। इतिहासकार केएस लाल अनुमान लगाते हैं कि इस्लामिक हमलों के पहले पांच सौ वर्षों में भारत की जनसंख्या में तीन करोड़ की गिरावट दर्ज की गई। बाबर से लेकर अहमद शाह अब्दाली तक भारतीयों का नरसंहार करके उनके सिरों से मीनारों का निर्माण करने की कहानी उस जमाने के मुस्लिम इतिहासकार ही गर्व से सुनाते हैं।
अलाउद्दीन खिलजी की फौज हजारों हिंदू महिलाओं और बच्चों को जंजीरों में बांधकर जानवरों की तरह घसीटती हुई दिल्ली तक लाई थी, इसका कंपकपा देने वाला वर्णन आपको मिल जाएगा, पर यह इतिहास की किताबों से गायब है, क्योंकि स्वतंत्रता के बाद भारतीय नेताओं को लगा कि यह सच जनता जान गई तो सांप्रदायिक खाई गहरी होगी। यदि यह सच बताया गया होता तो आम मुस्लिम जानते कि इस्लामी आक्रांताओं द्वारा गुलाम बनाए गए लोगों में उनके पूर्वज भी शामिल थे। बाबर द्वारा सिरों की मीनारों में उनके पूर्वजों के सिर भी थे। हजारों मंदिरों को ढहाए जाने की कहानी उस जमाने के अरबी-फारसी के मुस्लिम इतिहासकारों ने सुनाई। आम मुसलमानों को यह बताया जाता रहा कि किसी दूसरे की उपासना की जगह पर कोई मस्जिद नहीं बनी। इसी कारण आम मुस्लिम अयोध्या, काशी, मथुरा आदि जगहों पर मुस्लिम शासकों द्वारा बनाई गई मस्जिदों को नैतिक रूप से सही समझता है।
यदि सत्य सामने लाया गया होता तो आज स्थिति अलग होती। अभी भी देर नहीं हुई। जिस देश का राष्ट्रीय वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ हो, उसे सत्य से मुंह मोड़ना शोभा नहीं देता। स्वतंत्रता के अवसर पर प्रधानमंत्री नेहरू ने प्रसिद्ध भाषण में कहा था कि यह भारत के लिए नियति से साक्षात्कार का समय है, लेकिन स्वतंत्रता के 75 वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बाद भी भारत सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सका। कम से कम अब तो यह काम किया ही जाना चाहिए।
(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)