गांधी परिवार के पराभव का आरंभ, बिना इशारा मिले जो बैठते तक नहीं थे वही दिखा रहे आंखें
गहलोत की सबसे बड़ी योग्यता परिवार के विश्वस्त और वफादार के रूप में थी लेकिन जयपुर में जो हुआ उससे भरोसे की वह दीवार दरक गई। हैरानी की बात यही है कि इस पूरे संकट के दौरान पार्टी में कोई संकटमोचक भी नहीं उभरा।
प्रदीप सिंह : तमाम कांग्रेस विरोधी नेता जो काम इतने वर्षों में न कर सके, वह अशोक गहलोत ने एक दिन में कर दिया था। गत 25 सितंबर को उनके समर्थक गुट के विधायकों ने कांग्रेस के सर्वशक्तिमान आलाकमान को ठेंगा दिखा दिया। गहलोत ने गांधी परिवार को उनकी हैसियत बता दी। जिस दर्पण में गांधी परिवार खुद को राज परिवार के रूप में देखता था, वह चकनाचूर हो गया। गहलोत ने पार्टी के प्रथम परिवार का अपमान ही नहीं किया, बल्कि उन्हें एक क्षत्रप के समक्ष बहुत छोटा होने का अहसास भी करा दिया। जिन हाथों ने गहलोत को ‘गहलोत’ बनाया था, उन्होंने उन्हीं हाथों को झटक दिया। गहलोत तीसरी बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने हैं। तीनों बार उन्हें मुख्यमंत्री सोनिया गांधी ने ही बनाया। किसी और का हक मारकर।
जाहिर है कि उन्हें यह पद जनादेश से नहीं हाईकमान के आदेश से मिला। दो बार उनके नेतृत्व में पार्टी ने चुनाव लड़ा और बुरी तरह हारी। असल में सोनिया गांधी वही काट रही हैं, जो उन्होंने बोया था। जनाधारहीन नेता को किसी बात डर नहीं होता। गहलोत को राजस्थान की जनता का डर तो कतई नहीं है। डर था तो सोनिया जी की नाराजगी और राहुल जी की उपेक्षा का। ये दोनों डर उसी समय निकल गए, जब एलान कराया गया कि पार्टी में ‘एक व्यक्ति-एक पद’ का सिद्धांत लागू होगा और गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष पद का नामांकन भरने से पहले ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ेगा।
शायद उसी समय गहलोत ने तय कर लिया कि इस परिवार के सिर से राज परिवार होने का भूत उतारना है। सोनिया, राहुल और प्रियंका की इतनी हिम्मत नहीं हो रही कि गहलोत के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकें। परिवार के जिन हरकारों को जयपुर से खाली हाथ लौटा दिया, उन्हीं से रिपोर्ट दिलवाई कि इसमें गहलोत की कोई गलती नहीं है। व्यक्ति के बुरे दिन आते हैं तो उसका सामान्य ज्ञान भी साथ छोड़ देता है। पता नहीं इस रिपोर्ट का अर्थ हाईकमान को समझ आया या नहीं? दोषी ठहराए गए हैं राजस्थान के तीन विधायक। ऐसे विधायक जो गहलोत के परम भक्त हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि गहलोत तो छोड़िए, उनके भक्त भी हाईकमान को चुनौती दे सकते हैं। यह ‘स्वामी का कुछ न बिगाड़ पाने, लेकिन सेवक का कान मरोड़ने’ जैसा है। कौन मानेगा कि गहलोत की मर्जी और योजना के बिना यह सब कुछ हुआ, लेकिन गांधी परिवार और उनके दरबारी यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं। यानी सोनिया ने कहा रात है, राहुल ने कहा रात और उनके दरबारियों ने ‘सुबह-सुबह’ ही मान लिया कि रात है।
गोवा, मणिपुर में कांग्रेस से सरकार बनी नहीं। मध्य प्रदेश और कर्नाटक में बनी-बनाई सरकार चली गई। पंजाब में सरकार ही नहीं, बल्कि पार्टी भी गड्ढे में गिरा दी। नेता युवा हो या अनुभवी, वह परिवार को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। छोड़कर जा भी रहे हैं तो उस पार्टी में, जिसका हमेशा विरोध किया।
सोनिया गांधी सम्मान के साथ रिटायर हो गई थीं, किंतु पुत्र मोह में फजीहत कराने वापस आ गईं। जो लोग उनके सामने बैठने के लिए भी उनके इशारे का इंतजार करते थे, वही आज उन्हें आंखें दिखा रहे हैं। उनकी लाचारी यह है कि वे कुछ कर नहीं सकतीं। राजस्थान में विधायक दल की बैठक बुलाने और पर्यवेक्षक भेजने से पहले उन्हें पता ही नहीं था कि उन्हें नियुक्ति का अधिकार देने के लिए एक वाक्य का प्रस्ताव पारित कराने वाला युग बीत चुका है। यह भी कि उनके बेटे की पार्टी में अपनी कोई हैसियत नहीं है। वह तभी तक चल रहे हैं, जब तक सोनिया उनके पीछे खड़ी हैं। गहलोत ने जो किया उससे तो लगता है कि सोनिया के होने-न होने का भी समय निकल चुका है। करीब 24 साल पहले सोनिया गांधी ने अपने जिन दरबारियों की मदद से सीताराम केसरी को धक्का मारकर अध्यक्ष पद से हटाया था, उनके वही दरबारी अब उन्हें हटाने के लिए तैयार खड़े हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के लिए अब दिग्विजय सिंह और शशि थरूर के बीच ही मुकाबला होने के आसार बन रहे हैं। गहलोत ने खुद को अध्यक्ष पद की होड़ से अलग कर लिया। गहलोत की सबसे बड़ी योग्यता परिवार के विश्वस्त और वफादार के रूप में थी, लेकिन जयपुर में जो हुआ उससे भरोसे की वह दीवार दरक गई। हैरानी की बात यही है कि इस पूरे संकट के दौरान पार्टी में कोई संकटमोचक भी नहीं उभरा। यह देश की सबसे पुरानी और दूसरी सबसे बड़ी पार्टी की राजनीतिक दरिद्रता का प्रमाण है।
कांग्रेस और गांधी परिवार के संकट के दो ही कारण हैं। पहला यह कि सोनिया गांधी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि राजनीति राहुल गांधी के बस की बात नहीं और दरबारियों को छोड़कर कोई राहुल का नेतृत्व स्वीकार करने को राजी नहीं। दूसरा, जनतंत्र में नेता की ताकत उसकी वोट दिलाने की क्षमता से तय होती है। गांधी परिवार के सदस्य वोट दिलाने की क्षमता खो चुके हैं।
दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव गांधी परिवार को सीधे हमले से बचाने के लिए हो रहा है। इसीलिए सबसे बड़े वफादार की खोज हुई और उसमें भी परिवार गच्चा खा गया। गहलोत ने बता दिया कि गांधी परिवार को अब यह भी नहीं पता कि कौन उनका वफादार है। कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव का नतीजा जो भी हो, लेकिन कुछ बातें साफ नजर आ रही हैं। एक, राजस्थान कांग्रेस के लिए दूसरा पंजाब बनने को तैयार है। दो, कांग्रेस में सामंती प्रथा पर अस्तित्व का संकट है। तीसरा, परिवार को आदेश देने की आदत छोड़नी होगी। राजस्थान में परिवार की सत्ता को इस तरह चुनौती दी गई और देश के किसी कोने से कोई आवाज नहीं उठी। कहां कांग्रेस कार्यसमिति में भी परिवार के मुताबिक न बोलने पर अंदर और बाहर हमला शुरू हो जाता था। दुनिया भर के देशों में जिस तरह से शेयर बाजार का भाव गिर रहा है, उससे ज्यादा तेजी से गांधी परिवार का कांग्रेस में भाव गिर रहा है। आने वाले समय में यह गिरावट और तेज होने वाली है। कांग्रेस में गांधी परिवार के खात्मे की शुरुआत हो गई है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)