स्याह दिखने लगा कांग्रेस का भविष्य, उसे ही होगा आइएनडीआइए के बिखरने का सबसे अधिक राजनीतिक नुकसान
नीतीश किसी राष्ट्र या समाज कल्याण की भावना से यह सब कर रहे थे ऐसी गलतफहमी कांग्रेस सरीखी सत्ता की शातिर खिलाड़ी को भला कैसे हो गई? नीतीश का सपना प्रधानमंत्री बनना था। भाजपा जैसी जनाधार वाली पार्टी तो उनका वह सपना पूरा करने से रही। हां चुनाव से पहले सत्ता के लिए होने वाला विपक्षी जमावड़ा वह मंच हो सकता था।
राज कुमार सिंह। बिहार का मुख्यमंत्री बने रहने के लिए नीतीश कुमार ने फिर से पाला बदल कर केवल अपनी विश्वसनीयता को ही चोट नहीं पहुंचाई। उन्होंने विपक्षी दलों के मोर्चे आइएनडीआइए की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया। नीतीश ही बेहतर जानते होंगे कि 17 महीने बाद वह क्यों राजग में लौटे। वहीं ऐसे नेता पर बार-बार विश्वास कर लेने का कारण भी भाजपा ही बेहतर जानती होगी, पर इन सवालों के चलते विपक्षी मोर्चे की दुर्दशा और उसमें कांग्रेस की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती।
जो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे नीतीश की विश्वसनीयता पहले से ही संदिग्ध होने की बात कह रहे हैं या फिर जयराम रमेश उन्हें गिरगिट बता रहे हैं, उन्हें इन सवालों का जवाब भी देना चाहिए कि ऐसे नेता को विपक्षी एकता का सूत्रधार क्यों बनाया गया? यह भी कि अभी तक किसी विश्वसनीय नेता को संयोजक क्यों नहीं बना दिया गया? राजनीतिक नैतिकता में विश्वास रखने वाला शायद ही कोई नीतीश की राजनीति को सही मानेगा, पर कांग्रेस इस तथ्य से मुंह नहीं मोड़ सकती कि उन्हीं की बदौलत वह विपक्षी एकता की धुरी बनती दिखी।
सब जानते हैं कि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी से लेकर आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव तक ज्यादातर क्षत्रप कांग्रेस-भाजपा से समान दूरी के आधार पर तीसरा मोर्चा या संघीय मोर्चा बनाने के पक्षधर थे। तेलंगाना के तत्कालीन मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव तो इसके लिए देश भर में घूम कर विपक्षी क्षत्रपों से मिले भी थे।
राजग छोड़कर फिर राजद-कांग्रेस के महागठबंधन में लौटे नीतीश कुमार ही वह नेता थे, जिन्होंने दो टूक कहा था कि अगर भाजपा को हराना है तो दूसरा-तीसरा नहीं, बल्कि एक ही विपक्षी मोर्चा बनाना होगा, जो कांग्रेस के बिना नहीं बन सकता। उसके बाद नीतीश ने ज्यादातर क्षत्रपों को ऐसे मोर्चे के लिए मनाया भी, जो अंतत: पिछले साल करीब दो दर्जन दलों के विपक्षी मोर्चे आइएनडीआइए के रूप में सामने आया।
नीतीश किसी राष्ट्र या समाज कल्याण की भावना से यह सब कर रहे थे, ऐसी गलतफहमी कांग्रेस सरीखी सत्ता की शातिर खिलाड़ी को भला कैसे हो गई? नीतीश का सपना प्रधानमंत्री बनना था। भाजपा जैसी जनाधार वाली पार्टी तो उनका वह सपना पूरा करने से रही। हां, चुनाव से पहले सत्ता के लिए होने वाला विपक्षी जमावड़ा वह मंच हो सकता था। अतीत में एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल जैसे नेता उसी मंच पर चढ़कर प्रधानमंत्री बने।
सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की दशा नेतृत्व के मामले में अच्छी नहीं है। देश तो दूर, अपनी पार्टी में भी राहुल गांधी वैसा विश्वास अभी तक जगा नहीं पाए हैं और नेहरू-गांधी परिवार किसी और कांग्रेस नेता पर आसानी से विश्वास नहीं करता। ऐसे में नीतीश की रणनीति थी कि विपक्षी गठबंधन का सूत्रधार बनकर वह कांग्रेस का विश्वास अर्जित कर लें और 2024 के लोकसभा चुनाव में बहुमत मिलने पर प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार बन जाएं।
शायद नीतीश भूल गए कि नरेन्द्र मोदी की भाजपा के सत्ता में आने के बाद कांग्रेस चुनाव जीतने की बिसात बिछाने में भले पिछड़ गई हो, पर राजनीतिक तिकड़मबाजी में वह कम नहीं। इसीलिए विपक्षी एकता के लिए पटना में हुई पहली बैठक तक तो कांग्रेस नीतीश के प्रति आभारी दिखी, लेकिन उसके बाद बड़ी चतुराई से उसने स्टीयरिंग अपने हाथ में ले लिया। इसके बाद भी नीतीश ने उम्मीद नहीं छोड़ी।
उनका दांव था कि प्रधानमंत्री चुनने की जरूरत तो चुनाव में बहुमत मिलने पर आएगी, फिलहाल संयोजक भी बन जाएं तो दावा मजबूत रहेगा, पर गठबंधन की पिछली बैठक में ममता और केजरीवाल ने मल्लिकार्जुन खरगे के नाम की चर्चा कर उनका वह खेल भी बिगाड़ दिया। माना जाता है कि इसके बाद ही नीतीश ने भाजपा से अपना टूटा हुआ संपर्क फिर जोड़ा। भाजपा को भी लगा कि अगर विपक्षी गठबंधन का सूत्रधार ही उसके पाले में आ जाएगा तो उसे बड़ी मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलेगी और विपक्ष धूल-धूसरित हो जाएगा। वैसा होता दिख भी रहा है, लेकिन अगर आइएनडीआइए बिखरता है तो सबसे बड़ा राजनीतिक नुकसान कांग्रेस को ही होगा।
बंगाल में तृणमूल कांग्रेस तथा दिल्ली और पंजाब में आप अकेले चुनाव लड़ती रही है। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन बिना भाजपा आप को चुनौती नहीं दे सकती, लेकिन दिल्ली में वह सातों लोकसभा सीटें अपने दम पर जीत लेती है। जबकि कांग्रेस ज्यादातर राज्यों में अपने बूते चुनाव लड़ने की स्थिति में भी नहीं है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के वार्ताकारों का इंतजार करते-करते अखिलेश यादव ने जिस तरह उसे 11 सीटें देने का एकतरफा एलान कर दिया, उसे अल्टीमेटम भी समझा जा सकता है।
उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की राकांपा में विभाजन के बाद महाराष्ट्र में भी कांग्रेस जिस तरह बड़ा भाई बनने की कोशिश कर रही है, उसके परिणाम सकारात्मक नहीं होंगे। ऐन चुनाव से पहले राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा का एकतरफा फैसला कर घटक दलों के नेताओं को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में शामिल होने का निमंत्रण भेजने वाली कांग्रेस शायद भूल रही है कि आइएनडीआइए की सफलता सबसे ज्यादा उसके राजनीतिक भविष्य के लिए जरूरी है। अन्य घटक दलों के दांव राज्य की राजनीति तक सीमित हैं, जबकि कांग्रेस का भविष्य लोकसभा में उसकी सदस्य संख्या पर निर्भर करेगा, जहां पिछले दो चुनावों में वह क्रमश: 44 और 52 सीटों पर सिमटती रही है। कांग्रेस के शर्मनाक प्रदर्शन की हैट्रिक, मोदी सरकार की हैट्रिक तो सुनिश्चित करेगी ही, उसके भविष्य पर प्रश्नचिह्न भी लगा देगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)