काम के घंटों का महत्वपूर्ण सवाल, नारायण मूर्ति के कथन पर हमें सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए
नारायण मूर्ति के बयान का एक आधार यह भी है कि भारत की उत्पादकता दुनिया में कई देशों से कम है। जब तक हम अपनी उत्पादकता में सुधार नहीं करते हम उन देशों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे जिन्होंने हमसे अधिक प्रगति की है। जापान के बारे में दावा किया जाता है कि वहां कर्मचारी न केवल ज्यादा काम करते हैं।
अभिषेक कुमार सिंह। ऐसा लगता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं के साथ तालमेल बैठाने और दुनिया की ताकतवर कंपनियों से आगे निकलने का दबाव अब भारतीय कंपनियों पर काफी बढ़ गया है। अन्यथा इन्फोसिस के सह-संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति को कामकाज की भारतीय संस्कृति को लेकर वह बयान नहीं देना पड़ता, जिसमें उन्होंने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा कि यदि भारत को एक आर्थिक महाशक्ति बनाना है तो उन्हें हर हफ्ते 70 घंटे काम करना चाहिए।
नौकरियों पर बढ़ते दबाव और छंटनी की खबरों के बीच श्रमिक-हितैषी संगठनों और मजदूर नेताओं को नारायण मूर्ति का बयान खटक रहा है। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो राष्ट्र निर्माण के लिए जुनून की हद तक जुटने के पक्ष में हैं। यह पूरा विमर्श तब और ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है, जब पता चलता है कि चीन और अन्य देशों में ऐसी ही कार्यसंस्कृति की मांग उठ रही है, ताकि उद्योग एवं रोजगार क्षेत्र के संकटों को दूर किया जा सके।
नारायण मूर्ति के प्रति सप्ताह 70 घंटे काम वाले बयान पर जिंदल स्टील के सज्जन जिंदल ने कहा कि उनका यह बयान समर्पण के बारे में है। हमारे प्रधानमंत्री हर दिन 14-16 घंटे काम करते हैं। देश के युवाओं को उनसे प्रेरणा लेकर राष्ट्र निर्माण में इसी तरह जुटना चाहिए। यदि भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाना है, तो हम पश्चिमी देशों की कार्यसंस्कृति को ही मानक नहीं बना सकते, जहां हफ्ते में चार या पांच दिन काम होता है।
नारायण मूर्ति के बयान का एक आधार यह भी है कि भारत की उत्पादकता दुनिया में कई देशों से कम है। जब तक हम अपनी उत्पादकता में सुधार नहीं करते, हम उन देशों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे, जिन्होंने हमसे अधिक प्रगति की है। जापान के बारे में दावा किया जाता है कि वहां कर्मचारी न केवल ज्यादा काम करते हैं, बल्कि वे सालाना नौ दिन की छुट्टियां भी नहीं लेते, जबकि उन्हें इसकी दोगुने से ज्यादा छुट्टियां मिलती हैं। चीन की ई-कामर्स कंपनी अलीबाबा के संस्थापक जैक मा तो यहां तक कह चुके हैं कि कर्मचारियों को हर दिन सुबह नौ से रात नौ बजे तक काम करने की जरूरत है और पांच कार्य दिवसों वाली परंपरा फिजूल है।
भारत, चीन और पश्चिमी देशों के कामकाजी माहौल पर नजर डालें तो कई अंतर दिखते हैं। पश्चिमी देशों में किसी भी नौकरी या व्यवसाय के तहत काम के घंटों का समायोजन इस प्रकार किया जाता है, जिससे कर्मचारी की निजी और सामाजिक जीवनशैली नकारात्मक रूप से प्रभावित न हो। इसे ही वर्क-लाइफ बैलेंस की संज्ञा दी जाती है। कई यूरोपीय देशों में सरकारें और निजी कंपनियां इसका हिसाब-किताब भी रखती हैं कि कहीं कर्मचारी ने साल में जरूरत से कम छुट्टियां तो नहीं लीं या फिर कर्मचारी दफ्तर में आवश्यकता से अधिक समय तो नहीं रुक रहा?
कोरोना काल में जब कामकाज का हाइब्रिड माडल (कभी दफ्तर तो कभी घर से काम करना) अपनाया गया तो कर्मचारियों को इसकी सुविधा भी दी गई कि वे एक तय समय के बाद कार्यालय से आए ईमेल या फोन काल का जवाब न दें। इसका आश्चर्यजनक पहलू यह था कि जब इन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने भारत स्थित अपने कार्यालयों में पश्चिमी देशों वाला कामकाजी माडल अपनाने का मामला आया तो वे इससे कन्नी काट गईं। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि भारत में श्रम कानूनों के तहत कर्मचारियों को ज्यादा अधिकार नहीं मिले। एक अन्य कारण कार्यसंस्कृति को लेकर कर्मचारियों का रवैया भी हो सकता है।
भारतीय कर्मचारियों को लेकर यह आम धारणा है कि वे अपने काम के प्रति अपेक्षित समर्पण नहीं दिखाते। देश के ज्यादातर सरकारी कार्यालयों में कर्मचारी या तो समय पर नहीं आते या फिर अपनी कुर्सी से गायब रहते हैं। यह अकारण नहीं कि अब ज्यादातर सरकारी कार्यालयों में उपस्थिति दर्ज करने की बायोमीट्रिक प्रणाली और कामकाज के आकलन के लिए उनके सालाना अप्रेजल वाली व्यवस्थाओं को लागू किया जा रहा है।
बौद्ध आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कुछ वर्ष पूर्व इंडियन चैंबर आफ कामर्स के एक कार्यक्रम में कहा था कि भारत के लोग चीनियों की तुलना में आलसी हैं। इसके लिए उन्होंने भौगोलिक कारणों को जिम्मेदार ठहराया था और भारत को सबसे ज्यादा स्थिर देश बताते हुए धार्मिक सहनशीलता पर उसकी प्रशंसा की थी। शायद भारतीयों के बारे में इसी तरह की धारणा का नतीजा है कि जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां पश्चिम में अपने कर्मचारियों को जबरन छुट्टी पर भेजने तक के उपाय करती हैं, वे भारत में ऐसा करने में कंजूसी बरतती हैं।
एक आकलन कहता है कि 50 साल पहले भारतीय कर्मचारियों को एक हफ्ते में औसतन 39 घंटे काम करना होता था, लेकिन अब वह औसत बढ़कर 45 घंटे हो चुका है। दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में तो यह औसत 60 घंटे तक पहुंच चुका है, जबकि ब्रिटेन, अमेरिका आदि देशों में कर्मचारियों से प्रति सप्ताह सिर्फ 34 घंटे काम करने की ही अपेक्षा की जाती है।
प्रश्न यह है कि क्या हमें नारायण मूर्ति के बयान को इसलिए खारिज कर देना चाहिए, क्योंकि भारतीय तो पहले से ही पश्चिमी देशों के कर्मचारियों के मुकाबले ज्यादा काम कर रहे हैं? इसका सार्थक उत्तर यही होगा कि हमें उनके बयान को एक सकारात्मक नजरिये से देखना होगा और यह समझना होगा कि ज्यादा काम करके हम उन धारणाओं को बदलने में कामयाब होंगे, जिन्होंने भारतीयों को आलसी और कामचोर आदि श्रेणियों में घेर रखा है। अपने परिश्रम के बल पर देश को एक नई आर्थिक शक्ति बनाने पर ही हम छुट्टी से लेकर वेतन तक में पश्चिमी देशों की बराबरी के लिए आवाज उठाने और उनके जैसे अधिकार पाने के योग्य हो सकेंगे।
(लेखक एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध हैं)