डा. एके वर्मा : दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है’ भारतीय राजनीति की एक बड़ी लोकप्रिय लोकोक्ति है। इसका आधार लोकसभा की 543 में से 80 सीटों का अकेले उत्तर प्रदेश में होना है। यानी जिसने उत्तर प्रदेश का किला जीत लिया, देश पर शासन करने की कुंजी भी उसके हाथ ही लगती है। अधिकांश चुनाव इसी रुझान का बखान करते हैं।

वर्ष 2014 के आम चुनाव में भाजपा को मिलीं कुल सीटों में 73 केवल उत्तर प्रदेश से मिली थीं। फिर 2019 के चुनाव में सपा-बसपा के गठजोड़ के चलते भाजपा की सीटें कुछ घटीं जरूर, पर तब भी वह राज्य की 64 सीटें जीतने में सफल रही। अब भाजपा ने यहां की सभी 80 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है।

बसपा प्रमुख मायावती ने चुनावों में अकेले उतरने का फैसला किया है। यह विपक्षी एकता की कोशिशों में लगे आइएनडीआइए के लिए झटका है। कांग्रेस का प्रदेश में सीमित जनाधार है। यदि सपा उससे मिलकर चुनाव लड़ेगी, तो उसे कोई फायदा होगा नहीं। उलटे अपनी कुछ सीटें कांग्रेस को देनी पड़ेंगी। सपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन किया तो उसे 47 सीटें मिली थीं। पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबंधन किया तो मात्र पांच सीटें मिलीं। दोनों बार सपा को गठबंधन से लाभ नहीं मिला। ऐसे में क्या वह आइएनडीआइए से पीछे हट सकती है?

सपा की दुविधा और बसपा की ‘एकला-चलो’ वाली रणनीति का लाभ भाजपा उठाना चाहेगी। राज्य में भाजपा की ‘डबल-इंजन’ सरकार है। यहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर कड़े कदम उठाए हैं। कोरोना काल में कुशल नेतृत्व दिया। गरीबों को लंबे समय तक मुफ्त राशन उपलब्ध कराया और मोदी सरकार की गरीब कल्याण योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू किया है।

विपक्ष के पास कोई ठोस मुद्दा नहीं है। राहुल गांधी अदाणी के नाम पर निर्भर हैं। अदाणी के मुद्दे से गरीबों को क्या फर्क पड़ता है? गरीबों को घर बैठे राशन, पांच लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा, आवास और शौचालय, उज्ज्वला गैस सिलेंडर मिला है। यूरिया की मारामारी नहीं है। इससे भी बढ़कर उनके जनधन खाते में बिना बिचौलियों के पैसे आ रहे हैं। वे अदाणी की चिंता क्यों करें?

विपक्ष का दूसरा मुद्दा है कि देश की एकता, लोकतंत्र और संविधान खतरे में है। इस आरोप के उलट जनता ने यही महसूस किया है कि मोदी हमेशा 140 करोड़ भारतवासियों की बात करते हैं और कल्याणकारी नीतियों में कोई भेदभाव नहीं करते। यदि लोकतंत्र एवं संविधान खतरे में होता तो न विपक्ष इस प्रकार एकजुट हो पाता और न ही उसे प्रधानमंत्री को अपशब्द कहने की आजादी होती।

लोकतंत्र और संविधान पर खतरे की मिसाल तो कांग्रेस ने आपातकाल के दौरान संविधान को ताक पर रखकर विरोधियों को जेल में डालकर और प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाकर कायम की थी। जबकि आज विपक्ष को विरोध की आजादी है। प्रेस के पास मोदी और सरकार की आलोचना की गुंजाइश है। जनता को सरकारें बनाने-हटाने का अधिकार है। सार्वजनिक विमर्श में मोदी, भाजपा और सरकार के प्रति असहमति, आलोचना और आरोपों की बौछार देखकर नहीं लगता कि देश में लोकतंत्र, संविधान और प्रेस की आजादी पर कोई खतरा है।

लोकतंत्र में सशक्त विपक्ष की अपनी महत्ता है, पर क्या इसकी जिम्मेदारी भी मोदी की है? विपक्ष क्या कर रहा है? कांग्रेस क्यों सिमट रही है? यूपी में एक लोकसभा और सात विधानसभा सीटें जीतने वाली तथा कुछ राज्यों में सिमटी कांग्रेस क्या वास्तव में राष्ट्रीय पार्टी है? क्या पिछले विधानसभा चुनाव में एक सीट जीतने वाली बसपा राष्ट्रीय पार्टी है? सपा से उम्मीद थी, मगर अखिलेश यादव ‘ट्विटर-पालिटिक्स’ से आगे निकल नहीं पाए। उनके समक्ष अपनी वर्तमान पांच लोकसभा सीटें बचाने की ही बड़ी चुनौती है।

इन दलों के विपरीत भाजपा उत्तर प्रदेश और देश में मजबूत सांगठनिक आधार, सशक्त दक्षिणपंथी विचारधारा तथा सकारात्मक सक्रियता के बलबूते जनता से गहरा जुड़ाव रखती है। लोकतांत्रिक राजनीति का मूलमंत्र है ‘आप जनता के हो जाइए, जनता आपकी हो जाएगी।’ क्या विपक्ष ने इस जुड़ाव के लिए कुछ किया? अभी वे आपस में ही नहीं जुड़ पा रहे हैं? भाजपा न केवल अपनी जीती हुई सीटों पर सक्रिय है, बल्कि उन 160 सीटों पर भी जनता से जुड़ने का कार्यक्रम मजबूती से शुरू कर चुकी है, जिन पर वह 2019 में हारी थी। उसके पास एक स्पष्ट लक्ष्य और रणनीति है। विपक्षी गठबंधन के पास क्या है? ‘मोदी को हटाना है-देश, लोकतंत्र और संविधान बचाना है’ इस जुमले के अलावा और क्या है विपक्ष के पास? अनेक योग्य एवं अनुभवी रणनीतिकारों के होते हुए भी विपक्ष को इतनी छोटी सी बात समझ में नहीं आती?

विपक्षी दलों को लगता है कि जिन राज्यों में भाजपा चरम पर पहुंच चुकी है, वहां उसकी सीटें घटेंगी। हालांकि, उनके पास इसका कोई आधार नहीं। फिर कर्नाटक, बंगाल, बिहार, राजस्थान, झारखंड, दिल्ली, पंजाब और छत्तीसगढ़ जैसे गैर-भाजपा शासित राज्यों का मतदाता क्या अभी राष्ट्रीय राजनीति में अस्थिरता चाहेगा? आज जब चंद्रयान-3 और आदित्य एल-1 का सफल प्रक्षेपण और जी-20 की अध्यक्षता कर भारत विश्व में तेजोमय हो रहा है, तो क्या उसका राजनीतिक लाभ मोदी सरकार को नहीं मिलेगा? हमने 1971 के बांग्लादेश युद्ध और 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण का राजनीतिक लाभ तत्कालीन प्रधानमंत्रियों को मिलते देखा है।

आइएनडीआइए के रणनीतिकारों के अनुसार यदि वह पारंपरिक मुद्दे छोड़कर गंभीर आर्थिक मुद्दे उभारने में सफल रहा तो कुछ बात बन सकती है। यहां सवाल यह भी है कि क्या केवल मुद्दों से चुनाव जीता जा सकेगा? क्या सांगठनिक एकता, वैचारिकी, सीट बंटवारा और चुनावी रणनीतियों का कोई महत्व नहीं? विपक्षी खेमे में बिखराव और पारस्परिक कटुता भी है, जिसके चलते भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव में अपना पिछला प्रदर्शन दोहरा सकती है। इसमें उत्तर प्रदेश की 80 सीटों का बहुत महत्व होगा। इसे सुनिश्चित करने के लिए भाजपा सुरक्षा, विकास, लोक कल्याण और सोशल इंजीनियरिंग के चार पहियों वाले विजय रथ को सशक्त करने में लगी है।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)