शिवकांत शर्मा : साठ साल पहले एक सोवियत नेता को एक शतरंजी चाल सूझी थी। उसने सोचा कि परमाणु बमों से लैस दो मिसाइलों को गुपचुप क्यूबा ले जाकर अमेरिका की नाक के नीचे तैनात कर उसे शह दी जाए, पर वह इसका हिसाब नहीं लगा पाया कि अमेरिका की चाल क्या होगी और क्या उसकी काट उसके पास है? साठ साल बाद रूस के नेता को उससे भी दुस्साहसी चाल सूझी। उसने अमेरिका और नाटो देशों से दोस्ती बढ़ा रहे अपने पड़ोसी यूक्रेन पर हमला बोलकर अमेरिका और नाटो को शह दी, पर उनकी चाल क्या होगी, यह उसने इस बार भी नहीं सोचा।

निकिता ख्रुश्चेव की तरह फंसने के साथ-साथ पुतिन ने अपनी चाल से वैश्विक क्रम और संतुलन से जुड़े कई गंभीर प्रश्न भी खड़े कर दिए हैं। दूसरे विश्वयुद्ध और शीतयुद्ध के बाद से यह माना जाने लगा था कि परमाणु अस्त्रों के पारस्परिक संहार के खतरे ने परमाणु शक्तियों के बीच युद्ध की आशंका को समाप्त कर दिया है, लेकिन यूक्रेन पर जीत हासिल न कर पाने से बौखलाए पुतिन की आखिरी दांव के रूप में परमाणु अस्त्रों का प्रयोग करने की धमकी ने उस मान्यता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। अब अमेरिका और नाटो के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि यदि पुतिन बड़े संहारक परमाणु अस्त्रों की जगह सीमित दायरे वाले परमाणु अस्त्रों का प्रयोग करते हैं तो उनका क्या जवाब होगा? पाकिस्तान और उत्तर कोरिया भी अक्सर इसी तरह की धमकियां देते रहते हैं। परमाणु शक्तिसंपन्न देशों के बेलगाम और विस्तारवादी शासक अब समूची वैश्विक व्यवस्था के लिए संकट खड़े कर रहे हैं। इनके बारे में दुनिया को गंभीरता से सोचना होगा।

अभी तक राजनयिकों का सोचना था कि यूरोपीय संघ और रूस तथा अमेरिका और चीन व्यापार के लिए एक-दूसरे पर इतने निर्भर हो चुके हैं कि अब इनके बीच युद्ध होने के आसार नहीं। यूक्रेन पर रूस के हमले और ताइवान के मामले पर चीन के कड़े होते तेवरों ने इस धारणा को ध्वस्त करते हुए सिद्ध किया कि हकीकत इसके उलट है। पुतिन ने यूरोप की ऊर्जा निर्भरता को उसकी कमजोरी मानकर यूक्रेन पर हमला बोला। उन्हें लगता था कि अव्वल तो यूरोप के देश रूस के सामने खड़े होंगे नहीं और हुए तो ऊर्जा के संकट से भाग खड़े होंगे, पर ऐसा हुआ नहीं। व्यापार को लेकर अमेरिका और चीन की आपसी निर्भरता तो और भी ज्यादा है। इसलिए शायद चीनी नेता ताइवान को हथियाने के लिए रूस जैसा दुस्साहसी कदम न उठाएं, लेकिन यूक्रेन पर हमले ने साबित कर दिया कि सामरिक हितों के सामने आर्थिक हित गौण ही रहते हैं, भले ही वे कितने भी अहम क्यों न हों।

2008 के वित्तीय संकट की भविष्यवाणी करने वाले और विश्व बैंक, आइएमएफ एवं फेडरल रिजर्व में काम कर चुके अर्थशास्त्री नूरिएल रूबीनी ने अपनी नई पुस्तक ‘मैगाथ्रेट्स’ या महासंकट में लिखा है कि दुनिया कर्ज, महंगाई और मंदी के ऐसे भंवर की तरफ बढ़ रही है जो पिछली सदी के तीसरे दशक के आर्थिक संकट जितना गंभीर साबित हो सकता है। 1999 में पूरी दुनिया का निजी और सार्वजनिक कर्ज मिलाकर दुनिया की जीडीपी से लगभग दोगुना था। पिछले 20 वर्षों में वह दोगुने से बढ़कर साढ़े तीन गुना हो चुका है। चीन का निजी और सार्वजनिक कर्ज उसकी जीडीपी का 330 प्रतिशत हो चुका है और अमेरिका में 420 प्रतिशत। भारत के निजी कर्ज के विश्वसनीय आंकड़े नहीं हैं, फिर भी जितनी जानकारी है उसके हिसाब से निजी और सार्वजनिक कर्ज मिलाकर जीडीपी से लगभग डेढ़ गुना हो चुका है।

पिछली सदी के आठवें दशक में आए आर्थिक संकट के समय निजी और सार्वजनिक कर्ज आज की तुलना में बहुत कम था। इसलिए सरकारों ने मंदी से उबरने के लिए कर्ज उठाकर खर्च किया। 2008 के वित्तीय संकट के समय महंगाई नहीं थी। इसलिए केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दरों को शून्य तक लाकर और सरकारी कर्ज यानी बांड खरीदकर पैसे की तंगी दूर की थी, परंतु आज महंगाई पर काबू पाने के लिए बैंकों को ब्याज दरें बढ़ानी पड़ रही हैं और सरकारें कर्ज के बोझ से इतनी दबी हुई हैं कि और कर्जा लेकर खर्च नहीं कर सकतीं। यदि उन्होंने ऐसा करने की कोशिश की तो लोग सरकारी ऋणपत्र या बांड बेचने लगेंगे। केंद्रीय बैंक महंगाई पर काबू पाने के लिए बांड बेच रहे हैं। दोनों तरफ की बांड बिकवाली से ब्याज दरें और भी तेजी से बढ़ेंगी, जिससे महंगाई में उछाल आएगा और मंदी का संकट गहराता जाएगा। शेयर बाजारों की हालत भी अच्छी नहीं है। पिछली सदी के आठवें दशक की मंदी के समय कंपनियों के शेयरों के दाम उनकी आमदनी के औसतन आठ गुना थे। आज उनके दाम आमदनी के बीस गुना के पास हैं। इसका खतरा यह है कि महंगाई और मंदी की आहट सुनते ही शेयर बाजारों में हड़कंप मच सकता है और दाम आधे तक हो सकते हैं। रूबीनी की पुस्तक में इसी आर्थिक महासंकट की चेतावनी दी गई है।

चीन की अर्थव्यवस्था पर मंदी के साथ-साथ कोविड की लहर ने हमला बोल दिया है। यदि चीन को फिर पाबंदियां लगाने के लिए मजबूर होना पड़ता है तो चीन से आने वाले माल की आपूर्ति फिर से बंद हो सकती है। चीन और भारत दुनिया की अर्थव्यवस्था के सप्लाई इंजन हैं और अमेरिका तथा यूरोप मांग के इंजन। यूरोप में मंदी आ चुकी है और अमेरिका में आने के आसार हैं और यदि चीन भी कोविड से ठप हो गया तो भारत कब तक बच पाएगा?

इन सारे संकटों के बीच तेल उत्पादक देशों ने रूस के साथ मिलकर संकट भुनाने के लिए एक कारटेल या मुनाफाखोर संघ की तरह काम करना शुरू कर दिया है। अमेरिका ने इन्हें कारटेल बनाकर संकट भुनाने से रोके रखा था, परंतु अमेरिका के ऊर्जा आत्मनिर्भर बनने के बाद से इन देशों का झुकाव सबसे बड़े तेल उपभोक्ता चीन और तेल उत्पादक रूस के खेमे की तरफ हो रहा है। ऊर्जा संकट से दुनिया को राहत पहुंचाने के लिए तेल उत्पादन बढ़ाने के अमेरिका के अनुरोध को ठुकरा कर इन्होंने उत्पादन घटा दिया, ताकि दाम नीचे न गिरें। इनकी ऊर्जा पर निर्भर भारत जैसे देशों को इससे सबक लेकर कोई वैकल्पिक रणनीति बनानी होगी।

(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक हैं)