प्रकाश सिंह। केंद्रीय द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल में पुलिस स्मृति दिवस के अवसर पर कर्तव्य पालन करते हुए बलिदान देने वाले पुलिस कर्मियों को श्रद्धांजलि देते हुए तीन प्रस्तावित कानूनों-भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम का उल्लेख किया। इनके द्वारा न्याय प्रणाली में परिवर्तन लाया जाना है। 11 अगस्त को संसद में गृह मंत्री ने कहा था कि ये कानून ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए इंडियन पीनल कोड, क्रिमिनल प्रोसिजर कोड और इंडियन एविडेंस एक्ट की जगह लागू किए जाएंगे।

प्रस्तावित कानूनों का मसौदा संसदीय समिति के समक्ष विचाराधीन है। समिति जल्द ही अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दे देगी। इस समिति के सदस्य पी. चिदंबरम और डेरेक ओ ब्रायन ने इस पर आपत्ति जताई है कि समिति को पर्याप्त समय नहीं दिया गया। उन्होंने इस पर बल दिया है कि इन कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज, बार काउंसिल आफ इंडिया, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन, मानवाधिकार संगठनों और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से गहन विचार-विमर्श की आवश्यकता है। इंडियन पुलिस फाउंडेशन ने प्रस्तावित अधिनियमों पर संसदीय समिति को एक विस्तृत ज्ञापन दिया है। आशा की जाती है कि उस पर गंभीरता से विचार होगा।

पुराने तीनों कानूनों को हटाने के बारे में मुख्य रूप से तीन दलीलें दी गई हैं। एक तो यह कि वे औपनिवेशिक धरोहर हैं। दूसरी यह कि वे भारतीय गणतंत्र की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित नहीं करते और तीसरी यह कि उनमें तकनीक के प्रयोग के प्रविधान नहीं हैं। यह सही है कि पुराने कानूनों को एक विदेशी हुकूमत ने बनाया था, परंतु हमें यह भी मानना पड़ेगा कि ये कानून मोटे तौर पर समय की कसौटी पर खरे उतरे।

भारत जैसे विविधता से भरे देश में ऐसे कानून बनाना आसान नहीं था, जो सब पर लागू हो सकें। यह सही है कि ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य भारत में अपनी सत्ता बनाए रखना था, फिर भी उक्त कानूनों का व्यवस्था बनाए रखने में योगदान रहा। इसके बाद भी इसमें संदेह नहीं कि ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए कानूनों में व्यापक परिवर्तन जरूरी है। इस पर बहस हो सकती है कि संशोधन से लक्ष्य पूरा होगा या परिवर्तन से, पर इसमें दोराय नहीं कि तकनीक का प्रयोग अपरिहार्य है।

भारतीय न्याय संहिता कई मायनों में पुराने इंडियन पीनल कोड से अच्छी है। इसमें आतंकवाद को परिभाषित किया गया है। यद्यपि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज भी आतंकवाद की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। संगठित गिरोह का भी संहिता में उल्लेख है। अभी तक ऐसे गिरोह के अपराधों से निपटने के लिए राज्य सरकारें ‘मकोका’ जैसा कानून बनाती थीं। अब उसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में भी कुछ नए प्रविधान हैं, जैसे किसी अभियोग में केवल दो स्थगन दिए जा सकेंगे, कम गंभीर अपराधों का समरी ट्रायल किया जा सकेगा और मुकदमे का फैसला ट्रायल समाप्त होने के 30 दिन के अंदर देना अनिवार्य होगा। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में तकनीक को स्थान मिला है। ऐसे सभी मामलों में फोरेंसिक परीक्षण अनिवार्य होगा जिनमें सात साल से अधिक की सजा का प्रविधान है। इसी तरह तलाशी की वीडियो रिकार्डिंग की जाएगी।

हमें यह भी समझना पड़ेगा कि नए कानूनों को लागू करने से क्या व्यावहारिक दिक्कतें आएंगी। इंडियन पीनल कोड की मुख्य धाराओं को देश की जनता अच्छी तरह जान गई थी। सारा देश जानता है कि 420 के माने धोखाधड़ी। नए कानून में अपराध की धाराओं को नई संख्या मिल गई है। इससे भ्रम फैलने वाला है। आप किसी से कह दीजिए कि उसके विरुद्ध धारा 302 का मुकदमा दर्ज हो गया है तो शायद उसे दिल का दौरा पड़ जाए, क्योंकि यह हत्या की धारा है। नई संहिता में यह धारा छिनैती का एक साधारण अपराध है। इसी तरह नागरिक सुरक्षा संहिता में धारा 144 पत्नी और बच्चों के मेंटेनेंस से संबंधित है जबकि पुरानी सीआरपीसी में इस धारा के तहत शांति भंग होने की आशंका में आवश्यक आदेश पारित किए जाते थे। दुर्भाग्य से साक्ष्य अधिनियम में पुलिस अधिकारियों के सामने अपराध की स्वीकारोक्ति अभी भी साक्ष्य के रूप में नहीं मानी जाएगी।

संसदीय समिति को इस विषय पर गंभीरता से सोचना होगा कि कम से कम उन धाराओं की संख्या न बदली जाए, जो जनमानस के दिमाग में बैठ चुकी हैं। देश में करीब पांच करोड़ मामले लंबित हैं और सामान्यतः मुकदमे पांच साल से लेकर 40 साल तक चलते हैं। ऐसी हालत में पुराने मुकदमों में आइपीसी की ही धारा लगेगी और नए मुकदमों में नई संहिता की धारा लगेगी।

अगर हम सुनिश्चित कर सकें कि खास-खास धाराओं की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं हो तो अगले कई दशकों तक जो संशय होगा, उससे बच सकेंगे। नए कानूनों से ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट, नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो और क्राइम एंड क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क एंड सिस्टम को समस्या आ सकती है। पुराने मुकदमों को हमें पुरानी धाराओं के अंतर्गत दिखाना पड़ेगा और नए मुकदमों में उन्हीं अपराधों को नई धाराओं में दिखाना पड़ेगा। इन संस्थाओं को नया साफ्टवेयर बनाना पड़ेगा, जिसमें कम से कम एक साल तो लग ही जाएगा। तब तक अपराधों का कोई तुलनात्मक अध्ययन करने में मुश्किल आएगी।

सरकार तीन बड़े कानून तो बदलने जा रही है, परंतु यह समझ नहीं आता कि उसने अभी तक ‘माडल पुलिस एक्ट’ क्यों नहीं पारित किया? इसका प्रारूप सोली सोराबजी ने 2006 में ही बना दिया था। 17 साल हो गए, परंतु यह अभी तक लंबित ही है। केंद्र और राज्य सरकारें जब तक पुलिस सुधारों के प्रति गंभीर नहीं होंगी, तब तक केवल कानून बदलने से वांछित परिवर्तन नहीं होगा। कानूनों में परिवर्तन और सुधार जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक कानून के रखवालों में सुधार लाना। गृह मंत्रालय ने जो पहल की है, वह प्रशंसनीय है, परंतु उसे अंजाम तक ले जाने में यदि अनावश्यक जल्दबाजी की गई तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है। तीनों नए प्रस्तावित कानून जिस रूप में हमारे सामने हैं, उनके महत्वपूर्ण बिंदुओं पर गंभीर चिंतन एवं व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

(लेखक उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व महानिदेशक एवं इंडियन पुलिस फाउंडेशन के संरक्षक हैं)